शुक्रवार, जून 18, 2010
गुरुवार, जून 17, 2010
बुधवार, जून 16, 2010
786 वाले अमिताभ बच्चन...अब ब्लॉग पर भी 786
संवाद
मद्धिम आभा से
पहरो चुपचाप हीं निहारते हुये
आस-पास
कोई संध्या अजनबी सा वजूद
डोलता है मेरे आस-पास
कहीं ये मैं तो नहीं
कभी/ उन बेहाया के फूलों के संग
गुपचुप मुस्कुराते हुये
कभी/मंदिर के कंगरे पर बैठे हुये
बहुत कुछ है
हमारे इर्द-गिर्द
सिव इन्सानों के
जिनसे जोड़ा जा सकता है
संवाद सूत्र
खोला जा सकता है
मन की गिरह को बेहिचक
मसलन
की जा सकती है बाते
बारिस की बूंदों से बेझिझक
खेला जा सकता है
लुका-छिपी भी/
बादलों की ओट से
झाकते सूरज की चंद किरणों के साथ
जाया जा सकता है
कहीं भी/
सतरंगे
इंद्रधनुष पे सवार होकर।
- सीमा स्वधा
मंगलवार, जून 15, 2010
बुधवारी : पिछले सात दिनों में आये कुछ नए ब्लॉग
हर कोई ब्लॉग लेखन में व्यस्त है...पर नए लोगों की सुध लेना भी जरुरी...स्वागत कीजिये पिछले सात दिनों में पदार्पण करने वाले ब्लॉग का...एक प्रयास बुधवारी स्तम्भ के द्वारा
- सौरभ के.स्वतंत्र
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“आप हिंदी में लिखते हैं। अच्छा लगता है। मेरी शुभकामनाएँ आपके साथ हैं, इस निवेदन के साथ कि नए लोगों को जोड़ें, पुरानों को प्रोत्साहित करें - यही हिंदी चिट्ठाजगत की सच्ची सेवा है। एक नया हिंदी चिट्ठा किसी नए व्यक्ति से भी शुरू करवाएँ और हिंदी चिट्ठों की संख्या बढ़ाने और विविधता प्रदान करने में योगदान करें।शुभकामनाएँ!
- समीर लाल (उड़न तश्तरी)
आभार : चिट्ठाजगत
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ज्ञानवाणी - वाणी गीत
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सफ़ेद घर - सतीश पंचम
सबद - अनुराग वत्स
समकाल - चौपटस्वामी
समय के साये में - समय
सरगम - पारुल
सरस पायस - रावेंद्रकुमार रवि
साईब्लाग [sciblog] - अरविंद मिश्र
सारथी - जे सी फिलिप 'शास्त्री'
सिनेमा-सिलेमा - प्रमोद सिंह
सुनिये मेरी भी - प्रवीण शाह
सृजन और सरोकार - रवि कुमार
हाशिया - रियाज़ उल हक़
अंतर्ध्वनि - नीरज रोहिल्ला
अंतर्मंथन - डॉ. टी एस दराल
अखाड़े का उदास मुगदर - आस्तीन का अजगर
अज़दक - प्रमोद सिंह
अदालत - लोकेश
अनवरत - दिनेशराय द्विवेदी
अनहद नाद - प्रियंकर
अनुनाद - गिरीष कुमार मौर्य
अपनी बात - वंदना अवस्थी दुबे
अपनी, उनकी, सबकी बातें - रश्मि रविजा
अभिषेक ओझा उवाच
अमीर धरती गरीब लोग - अनिल पुसदकर
अरे बिरादर! - जितेंद्र भगत
आँख की किरकिरी - नीलिमा
आलोक पुराणिक की अगड़म बगड़म
आवाज़ - हिंद युग्म
इसी बहाने - प्रबुद्ध जैन
कर्मनाशा - सिद्धेश्वर
कविताएँ और कवि भी..- गिरिजेश राव
काव्य मंजूषा - अदा
किस से कहें ? - अमिताभ मीत
किस्सा-कहानी - वंदना अवस्थी दुबे
कुछ एहसास - पल्लवी त्रिवेदी
कूल लिंक्स वैब जुगाड़
खेती-बाड़ी - अशोक पांडेय
चांद पुखराज का - पारूल
जे कृष्णमूर्ति इन हिंदी
जो न कह सके - सुनील दीपक
जोग लिखी - संजय पटेल
टूटी हुई बिखरी हुई - इरफ़ान
टूटी-फूटी - रचना त्रिपाठी
दस्तक - सागर नाहर
नोटपैड - सुजाता
पहलू - चंद्रभूषण
पाल ले इक रोग नादां - गौतम राजऋषि
पिट्सबर्ग में एक भारतीय - अनुराग शर्मा
पुण्य प्रसून बाजपेयी का ब्लॉग
पुरातत्ववेत्ता - शगद कोकास
प्रतिभास - अनुनाद सिंह
प्रत्यक्षा का ब्लॉग
प्राइमरी का मास्टर - प्रवीण त्रिवेदी
प्रेम ही सत्य है - मीनाक्षी
फिलहाल - गिरिराज किशोर
बना रहे बनारस - रंगनाथ सिंह
बस यूँ ही निट्ठल्ला - डॉ. अमर कुमार
बेदखल की डायरी - मनीषा पांडे
मनोरमा - श्यामल सुमन
मसि कागद - डॉ. चंद्र कुमार जैन
मसिजीवी का ब्लॉग
मा पलायनम - डॉ. मनोज मिश्र
मीडिया डाक्टर - डॉ. प्रवीण चोपड़ा
मेरा पन्ना - जीतू
मेरी कठपुतलियां - बेजी जैसन
राजू बिंदास - राजीव ओझा
लपूझन्ना
लालमिर्ची - अनिल सौमित्र
लावण्यम्` ~अन्तर्मन्` - लावण्या शाह
लूज़ शंटिंग - दीप्ति और भुवन
विनय पत्रिका - अखिलेश कुमार मिश्र
शकुनाखर - हेम पांडेय
शान की सवारी - स्तुति पांडेय
शेर-ओ-शायरी - हिमांशु मोहन
शैशव - अफलातून
श्रीश उवाच
संजय व्यास का ब्लॉग
समाजवादी जनपरिषद
सुर-पेटी - संजय पटेल
सोचालय - सागर
स्त्रीविमर्श - कविता वाचक्नवी
स्व प्न रं जि ता - आशा जोगलेकर
स्वप्नलोक - विवेक सिंह
हरकीरत ' हीर' का ब्लॉग
हरा कोना - रवींद्र व्यास
हरी मिर्च - 'जोशिम' मनीष जोशी
हिंदिनी - ई-स्वामी
हिंदी ब्लॉग टिप्स
हिंदीज़ेन - निशांत मिश्र
हिन्द-युग्म - कविता
हृदय गवाक्ष -कंचन चौहान
मोहल्ला-अविनाश
उसका सच-सौरभ के.स्वतंत्र
आभार : हिंदी ब्लॉग जगत
सोमवार, जून 14, 2010
एक और रात का सफर
शेष है/ सिर्फ़ मौन
रविवार, जून 13, 2010
समझौता पत्र
समझौता का पर्याय जिंदगी
एक दिन
वक्त ने ख़त लिखा जिंदगी के नाम
कि स्वप्न का आकाश
धरती पर उतर नहीं सकता
उतार भी दो गर
तो जिन्दा रह नहीं सकता
और जाने कब वक्त थमा गया
जिंदगी के नाम
मेरे हस्ताक्षरयुक्त एक समझौता पत्र।
- सीमा स्वधा
एक शहरी माओवादी से साक्षात्कार!
शनिवार, जून 12, 2010
वेद प्रताप वैदिक ने आज शुरू किया नया आन्दोलन : मेरी जात है हिन्दुस्तानी
भारत में कई रंगे सियार हैं !
भारत में कई धर्म हैं
भारत में कई प्रथाएं हैं ,
भारत में कई भाषाएँ हैं ,
भारत में कई तरह के जीव-जंतु हैं ,
भारत में कई नस्ल के कुत्ते हैं,
भारत में कई रंगे सियार भी हैं,
भारत में विविधता है,
इनके बावजूद यहाँ एकता है,
जनगणना में जाति है
फिर क्यों आपत्ति है?
- सौरभ के.स्वतंत्र
टापू
पटना में भगवाधारियों की भीड़...लालू हुए अधीर !
भई भगवाधारियों की भीड़,
चमचा-बेलचा चन्दन घिसे
तिलक करें गडकरी व उनके वीर,
नरेन्द्र मोदी के आगमन पर
नीतीश हुए गंभीर,
बज गई है चुनावी बिगुल
क्षत्रप चला रहे हैं तीर,
कौन बनेगा योद्धा
कौन बनेगा वीर,
सूबे की है अलहदा राजनीति
गजब की है तस्वीर,
पल में तोला-पल में माशा
यही जनता की तकदीर,
भगवा ध्वज और नारों को देख
लालू हुए अधीर...
गंगा नदी के घाट पे
भई भगवाधारियों की भीड़...
शुक्रवार, जून 11, 2010
सोनिया गाँधी...द रेड साड़ी..और विवादस्पद अंश..
कुर्सीनामा
1
जब तक वह ज़मीन पर था
कुर्सी बुरी थी
जा बैठा जब कुर्सी पर वह
ज़मीन बुरी हो गई ।
2
उसकी नज़र कुर्सी पर लगी थी
कुर्सी लग गयी थी
उसकी नज़र को
उसको नज़रबन्द करती है कुर्सी
जो औरों को
नज़रबन्द करता है ।
3
महज ढाँचा नहीं है
लोहे या काठ का
कद है कुर्सी
कुर्सी के मुताबिक़ वह
बड़ा है छोटा है
स्वाधीन है या अधीन है
ख़ुश है या ग़मगीन है
कुर्सी में जज्ब होता जाता है
एक अदद आदमी ।
4
फ़ाइलें दबी रहती हैं
न्याय टाला जाता है
भूखों तक रोटी नहीं पहुँच पाती
नहीं मरीज़ों तक दवा
जिसने कोई ज़ुर्म नहीं किया
उसे फाँसी दे दी जाती है
इस बीच
कुर्सी ही है
जो घूस और प्रजातन्त्र का
हिसाब रखती है ।
5
कुर्सी ख़तरे में है तो प्रजातन्त्र ख़तरे में है
कुर्सी ख़तरे में है तो देश ख़तरे में है
कुर्सी ख़तरे में है तु दुनिया ख़तरे में है
कुर्सी न बचे
तो भाड़ में जायें प्रजातन्त्र
देश और दुनिया ।
6
ख़ून के समन्दर पर सिक्के रखे हैं
सिक्कों पर रखी है कुर्सी
कुर्सी पर रखा हुआ
तानाशाह
एक बार फिर
क़त्ले-आम का आदेश देता है ।
7
अविचल रहती है कुर्सी
माँगों और शिकायतों के संसार में
आहों और आँसुओं के
संसार में अविचल रहती है कुर्सी
पायों में आग
लगने
तक ।
8
मदहोश लुढ़ककर गिरता है वह
नाली में आँख खुलती है
जब नशे की तरह
कुर्सी उतर जाती है ।
9
कुर्सी की महिमा
बखानने का
यह एक थोथा प्रयास है
चिपकने वालों से पूछिये
कुर्सी भूगोल है
कुर्सी इतिहास है ।
(रचनाकाल : 1980)
कविता कोश से
सनसनी से घट जाएगी ब्लॉग की विश्वसनीयता! कायम
दहाड़ है,
हाथी है,
चिंघाड़ है,
सियार है,
चालबाजी है,
कुत्ता है,
दूम है,
बारूद है,
बम है,
विस्फोट है,
खून है,
मौत है,
मातम है,
समाचार है,
विचार है,
चिटठा है,
पोस्ट है,
सनसनी है,
पाठक हैं,
टिप्पणी है,
लोकप्रियता है,
फोटू है,
अखबार है,
और इन सबसे
ऊपर ब्लॉग लेखन
की विश्वसनीयता है!
जो कायम है...
गुरुवार, जून 10, 2010
समाजवाद
- गोरख पाण्डेय
समाजवाद बबुआ, धीरे-धीरे आई
समाजवाद उनके धीरे-धीरे आई
हाथी से आई
घोड़ा से आई
अँगरेजी बाजा बजाई, समाजवाद...
नोटवा से आई
बोटवा से आई
बिड़ला के घर में समाई, समाजवाद...
गाँधी से आई
आँधी से आई
टुटही मड़इयो उड़ाई, समाजवाद...
काँगरेस से आई
जनता से आई
झंडा से बदली हो आई, समाजवाद...
डालर से आई
रूबल से आई
देसवा के बान्हे धराई, समाजवाद...
वादा से आई
लबादा से आई
जनता के कुरसी बनाई, समाजवाद...
लाठी से आई
गोली से आई
लेकिन अंहिसा कहाई, समाजवाद...
महंगी ले आई
गरीबी ले आई
केतनो मजूरा कमाई, समाजवाद...
छोटका का छोटहन
बड़का का बड़हन
बखरा बराबर लगाई, समाजवाद...
परसों ले आई
बरसों ले आई
हरदम अकासे तकाई, समाजवाद...
धीरे-धीरे आई
चुपे-चुपे आई
अँखियन पर परदा लगाई
समाजवाद उनके धीरे-धीरे आई ।
(रचनाकाल :1978)
(जन्म: 1945 निधन: 29 जनवरी 1989 )
बुधवार, जून 09, 2010
दुल्हन को मारुती चाहिए...नहीं तो दूल्हा की पिटाई !
चौथी दुनिया देश का पहला हिंदी साप्ताहिक अख़बार कैसे?
मंगलवार, जून 08, 2010
एक सच्चे-ईमानदार पत्रकार के कुछ अनसुलझे प्रश्नों का सीधा जवाब
रंजन ने कहा…
अजीबो गरीब बहस है की है इस ब्लॉग वाले ने - मालूम नहीं ए कौन है ?? - गीता जी ने जो कुछ भी कहा - वो सच है - संजय गाँधी ने जब नसबंदी करवाना शुरू किया तो - पुरुष अपनी 'पत्नी' के पल्लू में छिपने लगे ! खैर , यह ब्लॉग मोहल्ला पर प्रकाशित हुआ है और विशेष मै क्या कहूँ ? मोहल्ला एक खास लोगों पर अपने हमले के लिए 'फेमस' रहा है - और इस मोहल्ले को 'एक न्यूज चैनल' के खास पत्रकार का सप्पोर्ट है वो भी सबको पता है ! मोहल्ला ने वी एन राय पर भी लगातार हमला किया है - फिर क्या हुआ सबको पता है ! इस तरह की बातें शोभा नहीं देता ! कुंठित पत्रकारिता है ! हाँ , फेमस होना है तो 'सूरज' पर थूकना शुरू कर दीजिए - लोग जान भी जायेंगे और आप .. :)
८ जून २०१० ११:०३ AM
-------------------------------------------------------
ये टिप्पणी है एक सीधे-नेक-सच्चे-ईमानदार नागरिक पत्रकार रंजन ऋतुराज सिंह का ..जो पेशे से एक सह-अध्यापक हैं..मैंने गीताश्री के ब्लॉग नुक्कड़ पर प्रकाशित एक पोस्ट पर बहस छेड़ी थी..कई प्रतिक्रियाएं मिली..पर उन सब में एक ब्लॉग लेखक महोदय उलझे-उलझे लगे। मै चाहता हूँ कि उनकी उलझन दूर हो और बहस स्वस्थ..कोई कुंठा नही..कोई पूर्वाग्रह नही॥
-------------------
- अजीबो गरीब बहस है की है इस ब्लॉग वाले ने - मालूम नहीं ए कौन है ??
रंजन जी बहस अजीबो-गरीब मुद्दों पर ही हो सकती है..और मुझे ब्लॉग लेखन से पूर्व आपसे अपने पहचान के लिए कोई सर्टिफिकेट लेने की जरुरत नही॥?
-गीता जी ने जो कुछ भी कहा - वो सच है - संजय गाँधी ने जब नसबंदी करवाना शुरू किया तो - पुरुष अपनी 'पत्नी' के पल्लू में छिपने लगे !
मैंने कब कहा कि गीताश्री ने गलत लिखा...मेरा प्रश्न है कि क्या कंडोम और पिल पर बहस से महिला सशक्तिकरण हो जावेगा? आप बेवजह संजय गाँधी की बात घुसेड रहे हैं..यहाँ बात कुछ और हो रही है और आप कुछ और अलाप रहे हैं।
-खैर , यह ब्लॉग मोहल्ला पर प्रकाशित हुआ है और विशेष मै क्या कहूँ ? मोहल्ला एक खास लोगों पर अपने हमले के लिए 'फेमस' रहा है - और इस मोहल्ले को 'एक न्यूज चैनल' के खास पत्रकार का सप्पोर्ट है वो भी सबको पता है ! मोहल्ला ने वी एन राय पर भी लगातार हमला किया है - फिर क्या हुआ सबको पता है !
यह मोहल्ला पर प्रकाशित हुआ..क्योंकि मैंने खुद किया..मोहल्ला किस बात के लिए फेमस है यह जगजाहीर है...आज भी चार सौ से पांच सौ पाठक रोज मोहल्ला में विचरते हैं..हो सकता है आपका भी कोई सपोर्टर हो..इसलिए आप बेवजह बहस कर रहे हैं...बहस कीजिये...पर स्वस्थ।
- इस तरह की बातें शोभा नहीं देता !
सर जी , बात शोभा नहीं देती...(मै व्याकरण से कमजोर हूँ)
-कुंठित पत्रकारिता है ! हाँ , फेमस होना है तो 'सूरज' पर थूकना शुरू कर दीजिए - लोग जान भी जायेंगे और आप ..
मैंने महिला सशक्तिकरण पर बहस कर दी इसीलिए आपने मुझे पुरुषों के प्रति कुंठित मान लिया...खैर फेमस होने के लिए ही मै आपके टिप्पणी पर जवाब दे रहा हूँ..आज निश्चित फेमस हो जाऊंगा..कल मेरी समीक्षा फोटू के साथ आने वाली है..पढने के लिए तैयार रहिये रंजन जी...
सादर/सस्नेह
सौरभ के.स्वतंत्र
नीतीश कुमार का ब्लॉग लेखन ठन्डे बस्ते में...
सोमवार, जून 07, 2010
एक कतरा प्यार...
धूप और छाव के बीच पलके बिछाती हो,
साईकिल की घंटी बजाता पास वाला हलवाई
तुम्हे देखता है कि तुम्हारी नजरे किधर गडी हैं,
पर तुम लीन हो
अपने उस बेइंतहा प्यार को जताने के लिए,
मसलन एकटक निहारना,
माँ की चौका घर से आवाज़ पर भी
तुम निहारती ही रहती हो,
जैसे बार्डर पर एक सैनिक निहारता है
सीमा के उस पार से आने वाले पंक्षियों को,
पर वह मानता है अपने अफसरान का हुक्म,
पर तुम तो अभी भी निहार रही हो,
कुछ क्षणों के लिए
माँ की चिल्लाने को नजरंदाज करके,
जैसे कि मौके की तलाश है
न जाने कितने दिनों से,
आज तो वह देखे इस तरफ,
फिर देखती है तुम्हे तुम्हारी छोटी बहन
और नजरंदाज कर जाती है
तुम्हारे निहारने को,
आज मौसम सुहाना है
तुम फिर उम्मीद लिए चढ़ती हो रोज की तरह
आज भी छत पर
विडंबना यह कि वह भी है अपने छत पर
पर न जाने क्यों नही देखता है वो,
क्यों नही देखता है वो वह बेपनाह प्यार
जो उसकी सांसों में हैं
फिर पुनः बैरंग उतर आती हो तुम
हर रोज कोई न कोई तुम्हे देखता
और तुम्हारी चर्चाए करता है
चौराहे-नुक्कड़ पर,
तुम्हे चरित्रहीन कहा जाने लगता है,
तुम्हारा दोष इतना कि
तुम अपने पहले प्यार का
इज़हार करना चाहती हो
घर की देहरी लांघे
बिना ही जीना चाहती हो
अपना एक कतरा जीवन...
एक कतरा प्यार..
अख़बार की कीमत : फिरंगी का कटा हुआ सर
1905 में बंगाल विभाजन की घोषणा के बाद भारतीय अखबारों ने बंग-भंग का कड़ा विरोध करते हुए, इसे राष्ट्र हितों पर कुठाराघात बताया गया। अंबिका प्रसाद वाजपेयी का 1907 में नृसिंग अखबार में प्रकाशित लेख स्वराज की आवश्यकता को काफी सराहा गया। वहीं जब युगांतर ने पूर्ण स्वतंत्रता का नारा दिया और बड़ी निडरता से बम बनाने की विधि छापी तो अंग्रजों के पैर तले जमीन खिसक गयें। जिसका फलसफा यह हुआ कि युगांतर को उनके कोप का भाजन बनना पड़ा।1909 में जब युगांतर का अंतिम अंक निकला तो उसका नया मूल्य था:
" फिरंगी का कटा हुआ सर"
वहीं हिंदी प्रदीप को भी अंग्रेजों के दमन का शिकार होना पड़ा। दरअसल, प्रदीप में माधव शुक्ल की कविता जरा सोचो तो यारो ये बम क्या है? प्रकाशित हुई थी।इस दौर में केसरी पत्र का स्वर भी काफी तीव्र था। हिंदी केसरी के मुख्य पृष्ठ पर ये निर्भिक वाक्य होते थें-
सावधान! निश्चिंत होकर न विचरना, जब देश की जनता निंद से उठ जाएगी, तब तुम्हारी खैर नहीं।
1913 में गणेश शंकर विद्यार्थी ने कानपुर से साप्ताहिक अखबार प्रातप निकाला। तमाम क्रांतिकारी प्रताप के कार्यालय में जुटते थें और वहीं से उन्हें क्रांति की खुराक मिलती थी।1919 में दशरथ प्रसाद द्विवेदी ने गोरखपुर से स्वदेश पत्र निकाल उत्तर भारत में स्वाधिनता आंदोलन का परचम लहराया।1919 के बाद सैनिक, कर्मवीर, अभ्युदय, स्वतंत्र और आज राष्ट्रीय आंदोलन के क्रुर दमन के बावजूद मोर्चे पर डटे रहें। ब्रिटीश सरकार ने जब स्वतंत्र विचारों और समाचारों के प्रकाशन पर रोक लगा दी थी तब विष्णु पराड़कर जी ने अपने सहयोगियों के साथ मिलकर रणभेरी अखबार निकाला। उस समय रणभेरी और आज दोनों के प्रेस पर फिरंगियों ने ताला जड़ दिया ।फिर पराड़कर जी ने रणभेरी गुप्त रूप से निकलना शुरू किया। एक पैसे के इस अखबार में
संपादक का :नाम सीताराम और
प्रकाशक का :नाम पुलिस सुप्रीटेंडेंट, कोतवाली, बनारस छपा।
पुलिस रणभेरी के प्रेस का पता लगाने में नाकामयाब हुई। रणभेरी की एक टिप्पणीः
"ऐसा कोई शहर नहीं जहां से रणभेरी जैसा पर्चा न निकलता हो। अकेले बंबई में इस समय ऐसे एक दर्जन पर्चे निकल रहे हैं। दमन से द्रोह बढ़ता है, इसका यह अच्छा सबूत है, पर नौकरशाही के गोबर भरे गंदे दिमाग में इतनी समझ कहां? वह तो शासन का एक ही अस्त्र जानती है- बंदूक।"
विदेश में रहने वाले क्रांतिकारियों ने भी कई अखबार निकालें, जिनमें गदर एक था। वास्तव में गदर-गदर पार्टी का पत्र था, जो कनाडा और अमेरिका में बसे भारतीयों का आवाज बना। इसके पहले अंक में एक प्रश्नोत्तरी छपी--
-आपका नाम क्या है?
गदर
-आपका काम क्या है?
गदर
- गदर कहां होगा?
हिंदुस्तान में।
- गदर क्यों होगा?
क्योंकि अब लोग ब्रिटीश सरकार के अत्याचार को और सहन नहीं कर सकते हैं।
वाकई हिंदी पत्रकारिता ने स्वतंत्रता संग्राम में जो अपना अमूल्य एवं साहसिक योगदान दिया वह उल्लेखनीय है। ऐसी साहसिक पत्रकारिता को मेरा सलाम।
रविवार, जून 06, 2010
डायरी
सारा घर
खिड़की तक लटक आये जाले
कोनों में जमी धूल
सीलन भरे बक्से को
धूप तक दिखा आयी
मगर खोला नहीं
बहुत दिनों से
कोने वाली बंद आलमारी
दरअसल
वो जुटाती रही हौसला
सामना करने का/अतीत का
जिंदगी के सफे से गायब
उन पन्नों में लिखी इबारत का
उस बन्द आलमारी में
कैद है
कितने सपने/ कितनी ख्वाहिशे
अधूरी सी
बोतल में बंद जीन की तरह
यकायक
जाने क्या हाथ आया
तमाम उथल-पुथल मचा गया
बह चला सैलाब भी
आंखों की कोरों को तोड़कर
हां
उसकी हाथों में थी
बीते वर्षों की डायरी।
- सीमा स्वधा
शनिवार, जून 05, 2010
ब्लॉग पर विज्ञापन चाहिए
भारत में कई रंगे सियार हैं !
भारत में कई प्रथाएं हैं ,
भारत में कई भाषाएँ हैं ,
भारत में कई तरह के जीव-जंतु हैं ,
भारत में कई नस्ल के कुत्ते हैं,
भारत में कई रंगे सियार भी हैं,
भारत में विविधता है,
इनके बावजूद यहाँ एकता है,
जनगणना में जाति है
फिर क्यों आपत्ति है?
- सौरभ के.स्वतंत्र
शुक्रवार, जून 04, 2010
कंडोम और पिल पर बहस से महिला सशक्तिकरण करने का प्रयास
पहले मुक्ति, अब गुलामी की गोली
गुरुवार, जून 03, 2010
कविता संकलन निकालने की प्रक्रिया क्या है?
मुझे कविता संकलन निकलवाने के बारे में जानकारी चाहिए..अगर आपके पास कोई जानकारी है या आपके नज़र में कोई प्रकाशक हैं तो उसे साझा कीजिये..
पाण्डुलिपि तैयार है..
इसके लिए मै आप सभी का आभारी रहूँगा..
विश्व पर्यावरण दिवस का आगमन और मेरा एक अंत्येष्टि में शामिल होना!
पिता और नी रिप्लेसमेंट
लौटे हैं पिता एम्स से
डॉक्टर की हिदायतें और सुझाव
टटका हैं अभी
आँखों में छायी उदासी
और दर्द का मिला जुला भाव
माँ के चहरे का साझीदार है
नी रिप्लेसमेंट शब्द एकदम
अजनबी तो नहीं वजनी जरूर है
'किसके साथ बांटा जाए इसे'
धीरे से फुसफुसाती है माँ
'सीढियां चढ़ने की सख्त मनाही है
नीचे ही बंदोबस्त करना होगा'
कैसी बिडम्बना है ये
जिनके बदलौत चढ़े हैं कोई
सफलता की सीढियाँ
आज उन्हें सीढियों पर चढ़ने तक की मनाही है
उठाया जिसने आज तक
पूरे परिवार का बोझ
आज उनका बोझ
उनके घुटनों को भारी पड़ रहा है
अपने सपनो को
हाशिये पे रख
अपनों के सपनों को मनचाहा आकार देन के क्रम में
उन्होंने कब सोचा होगा भला
कि अपनों के सपने सगे तो होते हैं
नितांत अपने नहीं
मसलन बेटे के सपनों की सहभागी बहू
बेटी के सपनों का वो अनजाना
सहोदर होने के बावजूद
भाई के सपनों की मंजिल में भी
कोई हिस्सेदारी नहीं होती
सच पूछा जाये तो सपने बेवफा होते हैं
खासी हिम्मत और धैर्य की
जरूरत होती है
दूसरों के सपने पालने में
हाँ सपने गर अपने होते
पूरा होने पर अंत तक साथ निभाते हैं
काफी हताश हैं पिता
जानती हूँ
ये हताशा महज घुटनों की बेवफाई नही
वरन कहीं न कहीं
भौतिकता की इस अंधी दौड़
में टूटते विशवास और दरकते सपनों
का दर्द भी है।
- सीमा स्वधा
बुधवार, जून 02, 2010
पत्रकार का दुधारू होना!
ब्लॉग पर यह मेरा पहला लेख था। जोकि 11 अप्रैल'2008को रिजेक्ट माल ब्लॉग पर प्रणव प्रियदर्शी जी के मार्गदर्शन में पोस्ट किया गया था. आज विचर रहा था उसी ब्लॉग पर. सोचा पुरानी यादें ताज़ा कर ली जाये...गौर फरमाइए....
पत्रकार का दुधारू होना!
दुधारू पशुओं की फेहरिस्त काफी लम्बी है. चूंकि, मनुष्य भी पशु (सामाजिक) है. सो, उसका भी दुधारू होना लाजिमी है. हाँ, ये बात अलग है कि कोई उन्नत नस्ल का है और कोई बाँझ टाइप. चूंकि मैं एक पत्रकार हूँ. सो, पत्रकारों के दुधारू होने पर चर्चा करना मेरा कर्तव्य बनता है. पत्रकार शब्द जब भी सुनने को मिलता है तो मुझे वह दुधारू गाय नजर आने लगती है, जो खाती तो है अपने बछड़े को दूध पिलाने के लिए . पर उसे दुह कोई और लेता है. बेचारी वह चाहकर भी कुछ नही कर पाती सिवाय हाथ-पांव पटकने के.
आजकल पत्रकार बंधुओ को भी गजब दुहा जा रहा है. एकदम रेलवे के माफिक. शायद यह सोंचकर कि उन्हें कम दुहेंगे तो अख़बार या चैनल बीमार पड़ सकते हैं. पत्रकारों के दुहने की बात थोड़ा विस्मय पैदा करती है. पर आजकल पत्रकार पैदा करने वाले इतने सारे केन्द्र खुल गए हैं. जहाँ से हजारो-हज़ार की संख्या में किसिम-किसिम के पत्रकार निकल रहे हैं. लिहाजा, स्थिति यह हो गई है कि हर चैनल और अख़बार के पास अनेकानेक विकल्प हो गए हैं. अगर, आप सही तरीके से दूध नही देते हैं तो समझिए आपकी छुट्टी तय है. मतलब आपको इस लाइन में जगह बनानी है तो अपने आप को खूब दुहवाइये . चाहे आप कितने भी बड़े ओहदे पर क्यो न पहुँच जाए आपके ऊपर भी कोई आपको दुहने वाला है.
एक माह पहले इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के ऑडिटोरियम मे बैठा था. जहाँ पत्रकारिता की शिक्षा के मानकीकरण पर चर्चा हो रही थी. जिसमे अच्युतानंदजी, आनंद प्रधानजी, राहुल देवजी, आलोक मेहताजी जैसे वरिष्ठ हस्ताक्षर पत्रकारिता के भविष्य को लेकर अपनी चिंता व्यक्त कर रहे थे. आलोक मेहता जी ने कहा कि इस दौर में संपादक के सत्ता का क्षरण हो रहा है. मैं काफी सोंच मे पड़ गया कि जब पत्रकारिता के शीर्ष पर बैठे लोग ऐसी बात करते हैं तो हमारी क्या बिसात.... हो सकता है संपादक भी अपने आप को दुहा हुआ महसूस करता हो.
हंस पत्रिका के एक मीडिया विशेषांक मे मैंने पढ़ा था कि संपादक को भी अपने ग्रुप चेयरमैन की बातें सुननी पड़ती हैं. उनके सवालो का जवाब देना पड़ता है. जैसे टीआरपी को... खबरों के एंगल को ले कर जवाबदेही ... ख़बर छूट जाने पर भी जवाब देना पड़ता है. वगैरह..वगैरह..
लिहाजा संपादक भी दुहा जाते हैं. और दबाव मे आकर अपने अंडर में काम करने वालो को उन्हें दुहना पड़ता है. अपने बॉस के मार्गदर्शन पर न चाहते हुए भी उन्हें चलना पड़ता है. और जूनियरों को दुहना पड़ता है. वही जूनियर न्यू कमर्स की दुहाई गुस्से मे आकर करते हैं..थोड़ा भी चूं..चा किया कि छुट्टी तय. सो, अपने आपको दुह्वाना ही अपनी नियति मन लेना श्रेयस्कर है.
लोहे का स्वाद लोहार से मत पूछो, उस घोडे से पूछो जिसके मुंह में लगाम है। यह मैं नही कह रहा हूँ. बल्कि धूमिल ने कहा है. अब जब लगाम की बात आती है तो स्वतंत्र पत्रकार भाई लोग के मुह मे लगाम तो नही है. पर अगर शब्दों के बीच गिरे खून को पहचाने तो जाहिर हो जाएगा कि स्वतंत्र पत्रकार भी दुधारू जमात मे उन्नत नस्ल से सम्बन्ध रखते हैं. दरअसल, उनके अन्दर छपास का रोग होता है. सो, विभिन्न पत्र-पत्रिकाओ में लेख दीजिये , नाम कमाइये , और भूखे सोयिये. यदि कही से सात-आठ माह में चेक आ भी जाए तो उसे लेखन सामग्री खरीदने मे लगा दीजिये , इंटरनेट व कंप्यूटर आदि के चार्ज भर दीजिये. और सूखी अंतडियों से निर्बाध लेख निकालिए. यदि नही निकालते हैं तो आप उन्नत किस्म के दुधारू पत्रकार नही हैं. पारिश्रमिक के लिए सम्पादकजी को फ़ोन घुमाइये तो एहसान फरामोशी का तमगा पाइए. मतलब स्वतंत्र पत्रकार का भी कमोबेश वही हालत है. पर अन्य पत्रकारों से थोड़ा इतर .
मैं जानता हूँ कि पत्रकारों को दुधारू पशु के रूप मे निरुपित करना कितने शूरमाओं को नागवार गुजरेगा...पर क्या करें..कलम है कि रूकती नही।
रिजेक्ट माल को आभार.
स्त्री
स्त्री हूं मैं
इसीलिये शापित होना भी
मेरी ही नियति है,
एक बार फिर
मूर्तिमान हो डटी है
अहिल्या मुझमें
अपनी तमाम वंचनाओं सहित
और तुम तो
निस्पृह गौतम हीं बने रहे,
उपेक्षा और अपमान की
प्रतीक वह
तिरस्कृत शिला
जाने कब तक
प्रतीक्षा करती रही
जो राम का,
पर मुझे इंतजार नहीं
किसी राम का
तुम्हीं तो हो
मेरे अभिशाप भी/
उद्धार भी।
- सीमा स्वधा
मंगलवार, जून 01, 2010
ब्लॉग लेखन : हिंदी का अहित करने वाला अश्लील रचनाकर्म नही..एक गंभीर रचनाकर्म..शैलेन्द्र सागर का कबूलनामा
जब कथाक्रम पत्रिका पढने के बाद मैंने संपादक शैलेन्द्र सागर के सम्पादकीय पर बहस छेड़ी थी तो काफी प्रतिक्रियाएं मिली। पर मुझे लगा कि यह पोस्ट ( पूर्व में इस बहस में शामिल नही होने वाले ब्लोगर्स नीचे के पोस्ट में जाकर पढ़े) शैलेन्द्र सागर को भी पढना चाहिए...मैंने उन्हें वाया मेल उस पोस्ट का लिंक उनके रिसाले में पहुंचा दिया..आज उन्होंने उस पोस्ट और तमाम प्रतिक्रियाओं को पढने के बाद पुनः यह कबूल किया कि ब्लॉग लेखन एक गंभीर रचना कर्म है॥ यह ब्लॉग लेखको के लिए एक सुखद बात है....
प्रिय भाई,
आपकी मेल के लिए शुक्रिया
मैंने ब्लॉग पर कमेन्ट पढ़े. मैंने अपनी अज्ञानता पहले ही स्वीकारी है. आज भी मै ब्लॉग को गंभीर रचना कर्म मानता हू..पर हमे ऐसे विकृतियों से सावधान रहने की जरूरत है.इसी मकसद से ये सम्पादकीय लिखा था. मुझे ख़ुशी है कि दोस्तों का ध्यान इस मुद्दे पर गया.
शैलेन्द्र सागर