सच हम नहीं, सच तुम नहीं, सच है महज संघर्ष ही!

बुधवार, जून 16, 2010

786 वाले अमिताभ बच्चन...अब ब्लॉग पर भी 786

16जून,हिंदुस्तान। बॉलीवुड के महानायक अमिताभ को ब्लॉग की दुनिया में कदम रखे आज 786 दिन हो गए। 786वें ब्लॉग में अमिताभ ने मुस्लिमों के इस पाक और अपने लकी नम्बर को याद किया है लेकिन साथ ही यह भी कहा है कि वह नहीं जानते कि इस नंबर की महत्ता क्या है। फिल्म कुली और दीवार में बिग बी के बिल्ले का नंबर 786 था और उन्हें यह संख्या बेहद रास आई। ब्लॉग में उन्होंने लिखा कि मैं दीवार और कुली के अपने 786 बैज को कभी नहीं भूल सकता। अमिताभ ने अमन की दुआ करते हुए कहा कि अपने ब्लॉग जीवन में 786 की पूरी शुद्धता और पवित्रता के साथ मैं दुआ करता हूं कि यह सभी लोगों को नेक तमन्नाएं दे। हालांकि बिग बी आज तक यह नहीं जान पाए कि 786 की महत्ता क्या है और उन्होंने अपने शुभचिंतकों से इसके बारे में बताने का आग्रह किया है। उन्होंने लिखा है कि मैं अब तक नहीं जान पाया कि यह संख्या कैसे आई और मुस्लिमों में इसकी महत्ता कैसे बढ़ती गई लेकिन अगर मेरे कुछ दोस्त जो इसे पढ़ रहे हों वह अगर यह मुझे बताएं तो मैं उनका एहसानमंद रहूंगा।





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संवाद

डूबते सूरज की
मद्धिम आभा से
पहरो चुपचाप हीं निहारते हुये
आस-पास
कोई संध्या अजनबी सा वजूद
डोलता है मेरे आस-पास
कहीं ये मैं तो नहीं
कभी/ उन बेहाया के फूलों के संग
गुपचुप मुस्कुराते हुये
कभी/मंदिर के कंगरे पर बैठे हुये
बहुत कुछ है
हमारे इर्द-गिर्द
सिव इन्सानों के
जिनसे जोड़ा जा सकता है
संवाद सूत्र
खोला जा सकता है
मन की गिरह को बेहिचक
मसलन
की जा सकती है बाते
बारिस की बूंदों से बेझिझक
खेला जा सकता है
लुका-छिपी भी/
बादलों की ओट से
झाकते सूरज की चंद किरणों के साथ
जाया जा सकता है
कहीं भी/
सतरंगे
इंद्रधनुष पे सवार होकर।

- सीमा स्वधा


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पुरानी जींस और गिटार...मोहल्ले की वो छत और मेरे यार!



पुरानी जींस और गिटार...



मोहल्ले की वो छत और मेरे यार!



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मंगलवार, जून 15, 2010

बुधवारी : पिछले सात दिनों में आये कुछ नए ब्लॉग

हर कोई ब्लॉग लेखन में व्यस्त है...पर नए लोगों की सुध लेना भी जरुरी...स्वागत कीजिये पिछले सात दिनों में पदार्पण करने वाले ब्लॉग का...एक प्रयास बुधवारी स्तम्भ के द्वारा

- सौरभ के.स्वतंत्र

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  67. आँगन (http://matikahekumharse.blogspot.com/)

गौरतलब

“आप हिंदी में लिखते हैं। अच्छा लगता है। मेरी शुभकामनाएँ आपके साथ हैं, इस निवेदन के साथ कि नए लोगों को जोड़ें, पुरानों को प्रोत्साहित करें - यही हिंदी चिट्ठाजगत की सच्ची सेवा है। एक नया हिंदी चिट्ठा किसी नए व्यक्ति से भी शुरू करवाएँ और हिंदी चिट्ठों की संख्या बढ़ाने और विविधता प्रदान करने में योगदान करें।शुभकामनाएँ!


- समीर लाल (उड़न तश्तरी)

आभार : चिट्ठाजगत

ब्लॉग नहीं लिख सकते जज : सुप्रीम कोर्ट का फैसला

एक खबर है कि सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के जजों की ब्लॉग पर अपनी भड़ास निकालने की बढती प्रवृति के मद्देनजर उनके ब्लॉग लेखन पर पूर्णरूप से रोक लगा दिया है। सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि जज जो भी बोलना चाहते हैं कोर्ट कक्ष में बोलें। यदि भावनाएं ज्यादा जोर मार रही हों तो फैसलों में उन्हें व्यक्त करें।

हिंदी के कुछ चुनिन्दा ब्लॉग

  • इन ब्लॉग पर चटका लगाये और ब्लॉग जगत का आनंद पायें

आइए हाथ उठाएं हम भी - लाल्टू
आत्मोन्नति - ज्ञानदत्त पांडेय
आराधना का ब्लॉग
उदय प्रकाश का ब्लॉग
उन्मुक्त - उन्मुक्त
उड़न तश्तरी - समीर लाल
एक आलसी का चिठ्ठा - गिरिजेश राव
एक ज़िद्दी धुन
एक शाम मेरे नाम - मनीष कुमार
ओशो सत्संग - आनंद प्रसाद 'मनसा'
कतरनें - आवेश
कबाड़खाना - अशोक कुमार पांडेय
कल्पनाओं का वृक्ष - विवेक रस्तोगी
कवितायन - मुकेश तिवारी
कस्‍बा - रवीश कुमार
कही अनकही - डॉ. दुष्यंत
काजल कुमार के कार्टून
कारवां - कुमार मुकुल
कुछ औरों की, कुछ अपनी - अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी
कुछ तो.. - डॉ. अमर कुमार
कुछ मेरी कलम से - रंजना भाटिया
कुछ लोग, कुछ बातें - अभिषेक ओझा
कुमाउँनी चेली - शेफाली पांडेय
कुमार अम्‍बुज का ब्लॉग
कुश की कलम
कॉमिक वर्ल्ड
क्वचिदन्यतोअपि - अरविंद मिश्र
गाहे-बगाहे - विनीत कुमार
घुघूतीबासूती का ब्लॉग
चंद्रभान भारद्वाज का ब्लॉग
चवन्नी चैप - अजय ब्रह्मात्म्ज
चिट्ठा चर्चा - समूह ब्लॉग
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छींटें और बौछारें - रवि रतलामी
छुट-पुट - उन्मुक्त
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जोगलिखी - संजय बेंगाणी
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ज्ञानवाणी - वाणी गीत
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दफ़्‌अतन - अपूर्व
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दिलीप के दिल से - दिलीप कावठेकर
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अदालत - लोकेश
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हरी मिर्च - 'जोशिम' मनीष जोशी
हिंदिनी - ई-स्वामी
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हिन्द-युग्म - कविता
हृदय गवाक्ष -कंचन चौहान

मोहल्ला-अविनाश
उसका सच-सौरभ के.स्वतंत्र

आभार : हिंदी ब्लॉग जगत

सोमवार, जून 14, 2010

छूकर मेरे मन को....








एक और रात का सफर

शब्द खो गए हैं

शेष है/ सिर्फ़ मौन

चाहता है मन

तमाम अनुभवों को बांटना

करना तमाम बातें

मौसम की,

फूलों की,
हवाओं की
कुछ तुम्हारी

मेरी अपनी भी।

मगर/उन

गिने चुने पलों को

तौलती तुम्हारी बेरुखी में

मुखर होता है

सिर्फ़ मौन।

शायद कल मिले

अनुकूल शब्द और पल भी

दे सकूं अभिव्यक्ति

जब मैं अपनी भावनाओं को

इन्हीं सोच में डूबा मन

तय कर चुका होता है

एक और रात का सफर।


-सीमा स्वधा

रविवार, जून 13, 2010

सांसों की जरुरत है जैसे




समझौता पत्र

सोचा था नहीं बनने दूँगी कभी
समझौता का पर्याय जिंदगी
एक दिन
वक्त ने ख़त लिखा जिंदगी के नाम
कि स्वप्न का आकाश
धरती पर उतर नहीं सकता
उतार भी दो गर
तो जिन्दा रह नहीं सकता
और जाने कब वक्त थमा गया
जिंदगी के नाम
मेरे हस्ताक्षरयुक्त एक समझौता पत्र।

- सीमा स्वधा

एक शहरी माओवादी से साक्षात्कार!

अरुंधती रॉय अपनी सपाट बयानी और साफगोई के लिए मशहूर हैं। नक्सलवादियों के इलाके दंडकारंय के जंगल में उन्होंने आदिवासियों और माओवादियों के साथ पिछले दिनों काफी वक्त बिताया है। विकास के नाम पर विध्वंस उन्हें कतई बर्दाश्त नही। पेश है शुक्रवार पत्रिका के डा.रमेश निर्मल द्वारा लिए गए साक्षात्कार के कुछ अंश..मुझे लगा ये पढना जरुरी है.....
- आप खुल कर माओवादियों के साथ हैं?
हाँ, मै हूँ। यदि इस वजह से वे मुझे पकड़ते हैं, तो पकड़ ले। जेल में बंद कर दे। मुझे अपनी गिरफ्तारी का भी कोई डर नही है। माओवादियों ने ७६ मासूमो कि जान ली , फिर भी मै अत्यचारी सरकार के साथ नही हो सकती। आखिर ७६ जवान एके ४७ लेकर आदिवासियों के गाँव में क्या कर रहे हैं? इस jansangharsh में अत्याचारों का विश्लेषण करने में मेरा विश्वास नही।
- आप हाल में दंतेवाडा गयी थी?
हाँ, मै वहां इस साल के आरम्भ में ३-४ हफ्ते रहकर आई हूँ। वहां के सबसे गरीब लोगों के सर से पानी गुजर चूका है। और वे सरकार कि ताकत से भी भीड़ गए हैं।
- पर माओवादियों ने भी तो अपराध किये हैं?
हाँ, माओवादियों ने भी अपराध किये हैं, मगर हमे उनसे आगे जाकर एक मूलभूत सवाल पूछने की जरुरत है। सरकार अपने ही नागरिको को क्यों कुचलती है? ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस पर हमला माओवादियों का हो सकता है और नही भी। पर जांच से पहले निष्कर्ष पर नही पहुंचना चाहिए।
- आपको इस तरह विचार व्यक्त करने से रोकने कि कोशिश की गयी थी?
गृह मंत्रालय ने कहा था कि ऐसा करके हम गैरकानूनी रोकथाम कानून कि धरा ३७ का उलंघन करेंगे। फिर भी मै ऐसा कर राही हूँ। क्योंकि सरकार को चुनौती देने का हमारे पास यही एकमात्र तरीका बचा है.

शनिवार, जून 12, 2010

वेद प्रताप वैदिक ने आज शुरू किया नया आन्दोलन : मेरी जात है हिन्दुस्तानी

जनगणना को लेकर पूरा भारत दो खेमे में बंट चुका है। एक खेमा का मानना है जनगणना में जात रहे..तो दूसरे खेमे का मानना है कि जनगणना में जात न रहे। जनगणना में जात न रखने की हिमायत वेद प्रताप वैदिक कर रहे हैं...वे निरंतर अपने लेख और ऑनलाइन गतिविधियों से जात शब्द का विरोध कर रहे हैं तो वही कुछ सामाजिक कार्यकर्ता जैसे प्रो डी प्रेमपति, मस्तराम कपूर, राजकिशोर, उर्मिलेश, प्रो चमनलाल, नागेंदर शर्मा, जयशंकर गुप्ता, डा निशात कैसर, श्रीकांत और दिलीप मंडल आदि उनके लेखो और आन्दोलन की काट निकालने से नहीं चूक रहें...
आज वैदिक ने नया आन्दोलन शुरू किया है..मेरी जात है हिन्दुस्तानी...जिसके संरक्षण में कई दिग्गज, जैसे बाबा रामदेव, राम जेठ मलानी,मुचकुंद दुबे, बलराम जाखड , जगमोहन, रामबहादुर राय आदि शामिल हैं।
चिंता का विषय यह है कि इस मुद्दे को ले शीत युद्ध गहराता जा रहा है...नतीजा क्या आएगा ये पता नहीं..बहरहाल मै किस खेमे में हूँ मेरी ये कविता आपको बताएगी:


भारत में कई रंगे सियार हैं !
भारत में कई धर्म हैं
भारत में कई प्रथाएं हैं ,
भारत में कई भाषाएँ हैं ,
भारत में कई तरह के जीव-जंतु हैं ,
भारत में कई नस्ल के कुत्ते हैं,
भारत में कई रंगे सियार भी हैं,
भारत में विविधता है,
इनके बावजूद यहाँ एकता है,
जनगणना में जाति है
फिर क्यों आपत्ति है?

- सौरभ के.स्वतंत्र

चलते-चलते मेरे ये गीत याद रखना




चलते-चलते मेरे ये गीत याद रखना


टापू

जानती हूं मैं

सागर हो तुम

अथाह, विस्तृत, उन्मुक्त

और मेरी इयत्ता

एक नौका भर है

जानते हो तुम!

उभचुभ सांसों को संभाले

ढूंढती हूं मैं

कोई टापू

प्रेम का, विश्वास का

जहां ले सकूं मैं

चंद सांसे

सुकून की।


- सीमा स्वधा

पटना में भगवाधारियों की भीड़...लालू हुए अधीर !

गंगा नदी के घाट पे
भई भगवाधारियों की भीड़,
चमचा-बेलचा चन्दन घिसे
तिलक करें गडकरी व उनके वीर,
नरेन्द्र मोदी के आगमन पर
नीतीश हुए गंभीर,
बज गई है चुनावी बिगुल
क्षत्रप चला रहे हैं तीर,
कौन बनेगा योद्धा
कौन बनेगा वीर,
सूबे की है अलहदा राजनीति
गजब की है तस्वीर,
पल में तोला-पल में माशा
यही जनता की तकदीर,
भगवा ध्वज और नारों को देख
लालू हुए अधीर...
गंगा नदी के घाट पे
भई भगवाधारियों की भीड़...

शुक्रवार, जून 11, 2010

सोनिया गाँधी...द रेड साड़ी..और विवादस्पद अंश..

सोनिया गाँधी यानी भारत की एक सशक्त महिला और उनपर लिखा गया एक उपन्यास 'द रेड साड़ी'। विवादस्पद। हंगामा मचाने वाला ग्रन्थ। लेखक 'जेवियर मोरो' हर हाल में चाहते हैं कि यह उपन्यास भारतियों के हाथ में भी जाए। पर कांग्रेस इसे झूठ का पिटारा बता कर विरोध कर राही है। आइये जानते हैं कि
-
हंगामा क्यों है बरपा
----------------------------
- इमरजेंसी लागू करने में सोनिया की भी रजामंदी थी।
- एक पंडित ने सोनिया को राजीव गाँधी के अंतिम संस्कार में जाने से यह तर्क देकर मन कर दिया कि वह दूसरे धर्म कीहैं।
- राजीव की हत्या के बाद सोनिया गाँधी ने यह आशंका जाहिर की कि यह काम इंदिरा गाँधी के हत्यारे सिखों तथा गाँधी जी के हत्यारे हिन्दू कट्टरपंथी या मुस्लिम अतिवादियों का है।
- सोनिया का मानना था कि अगर इंदिरा गाँधी दबाव नही डालती तो राजीव राजनीती में नही आते और वे पायलट ही रहते..जिन्दा रहते।
- राजीव के हत्या के बाद सोनिया गाँधी की माँ ने फोन से उन्हें वापस लौट आने को कहा..सोनिया भी यही सोच रही थी..और उनका मानना था कि यह देश उनके बच्चों को भी निगल जायेगा।
- सोनिया गाँधी बचपन से ही दमे की मरीज हैं।
- सोनिया की माँ एक पुलिस वाले की बेटी हैं और वह एक बार का सञ्चालन करती हैं।

कुर्सीनामा

- गोरख पाण्डेय
1
जब तक वह ज़मीन पर था
कुर्सी बुरी थी
जा बैठा जब कुर्सी पर वह
ज़मीन बुरी हो गई ।

2
उसकी नज़र कुर्सी पर लगी थी
कुर्सी लग गयी थी
उसकी नज़र को
उसको नज़रबन्द करती है कुर्सी
जो औरों को
नज़रबन्द करता है ।

3
महज ढाँचा नहीं है
लोहे या काठ का
कद है कुर्सी
कुर्सी के मुताबिक़ वह
बड़ा है छोटा है
स्वाधीन है या अधीन है
ख़ुश है या ग़मगीन है
कुर्सी में जज्ब होता जाता है
एक अदद आदमी ।

4
फ़ाइलें दबी रहती हैं
न्याय टाला जाता है
भूखों तक रोटी नहीं पहुँच पाती
नहीं मरीज़ों तक दवा
जिसने कोई ज़ुर्म नहीं किया
उसे फाँसी दे दी जाती है
इस बीच
कुर्सी ही है
जो घूस और प्रजातन्त्र का
हिसाब रखती है ।

5
कुर्सी ख़तरे में है तो प्रजातन्त्र ख़तरे में है
कुर्सी ख़तरे में है तो देश ख़तरे में है
कुर्सी ख़तरे में है तु दुनिया ख़तरे में है
कुर्सी न बचे
तो भाड़ में जायें प्रजातन्त्र
देश और दुनिया ।

6
ख़ून के समन्दर पर सिक्के रखे हैं
सिक्कों पर रखी है कुर्सी
कुर्सी पर रखा हुआ
तानाशाह
एक बार फिर
क़त्ले-आम का आदेश देता है ।

7
अविचल रहती है कुर्सी
माँगों और शिकायतों के संसार में
आहों और आँसुओं के
संसार में अविचल रहती है कुर्सी
पायों में आग
लगने
तक ।

8
मदहोश लुढ़ककर गिरता है वह
नाली में आँख खुलती है
जब नशे की तरह
कुर्सी उतर जाती है ।

9
कुर्सी की महिमा
बखानने का
यह एक थोथा प्रयास है
चिपकने वालों से पूछिये
कुर्सी भूगोल है
कुर्सी इतिहास है ।

(रचनाकाल : 1980)
कविता कोश से

चना जोर गरम...



सनसनी से घट जाएगी ब्लॉग की विश्वसनीयता! कायम

शेर है,
दहाड़ है,

हाथी है,
चिंघाड़ है,

सियार है,
चालबाजी है,

कुत्ता है,
दूम है,

बारूद है,
बम है,

विस्फोट है,
खून है,

मौत है,
मातम है,

समाचार है,
विचार है,

चिटठा है,
पोस्ट है,

सनसनी है,
पाठक हैं,

टिप्पणी है,
लोकप्रियता है,

फोटू है,
अखबार है,

और इन सबसे
ऊपर ब्लॉग लेखन
की विश्वसनीयता है!

जो कायम है...

गुरुवार, जून 10, 2010

एक मंजिल..राही दो..फिर प्यार न कैसे हो !




एक मंजिल..राही दो...फिर प्यार न कैसे हो

समाजवाद

- गोरख पाण्डेय


समाजवाद बबुआ, धीरे-धीरे आई


समाजवाद उनके धीरे-धीरे आई


हाथी से आई


घोड़ा से आई


अँगरेजी बाजा बजाई, समाजवाद...


नोटवा से आई


बोटवा से आई


बिड़ला के घर में समाई, समाजवाद...


गाँधी से आई


आँधी से आई


टुटही मड़इयो उड़ाई, समाजवाद...


काँगरेस से आई


जनता से आई


झंडा से बदली हो आई, समाजवाद...


डालर से आई


रूबल से आई


देसवा के बान्हे धराई, समाजवाद...


वादा से आई


लबादा से आई


जनता के कुरसी बनाई, समाजवाद...


लाठी से आई


गोली से आई


लेकिन अंहिसा कहाई, समाजवाद...


महंगी ले आई


गरीबी ले आई


केतनो मजूरा कमाई, समाजवाद...


छोटका का छोटहन


बड़का का बड़हन


बखरा बराबर लगाई, समाजवाद...


परसों ले आई


बरसों ले आई


हरदम अकासे तकाई, समाजवाद...


धीरे-धीरे आई


चुपे-चुपे आई


अँखियन पर परदा लगाई


समाजवाद उनके धीरे-धीरे आई ।


(रचनाकाल :1978)

कविता कोश से

(जन्म: 1945 निधन: 29 जनवरी 1989 )

बुधवार, जून 09, 2010

दुल्हन को मारुती चाहिए...नहीं तो दूल्हा की पिटाई !

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याद आता है हिंदी फिल्म का वह सीन जब लड़की का बाप मांग न पूरा कर पाने पर अपनी पगड़ी लड़के के बाप के चरणों में रख कर गिडगीडाता है..सिर्फ इसलिए कि अगर बारात वापस द्वार से चली गयी तो नाक कट जाएगी..रिअल लाइफ में भी उस समय ऐसा ही होता था..हाल-हाल तक इस्टमैन कलर फिल्मोंमें भी इस तरह का वाकया देखने को मिला..और समाज में भी...
----------2-----------
पर विगत एकाध वर्षो से माजरा बदल गया है...लड़की शादी इसलिए नहीं करती है क्योंकि उसके सपनों का राजकुमार मारुती से नही ऑटो से आया है..लड़की शादी इसलिए नहीं करती है क्योंकि वह लड़कों वालो की नाजायज मांग पर अपने पिता के परेशानी को देख नहीं पाती है और बरात वापस लौट जाती है..
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फिलवक्त सीन और बदला-बदला सा लग रहा है..अब बरात में बाजा नहीं लाने पर...आर्केस्ट्रा(नाच) नहीं लाने पर...दुल्हे समेत उसके बाप और भाई की लड़की वालों द्वारा कम्बल परेड कर दी जा रही..मतलब जबरदस्त पिटाई..और साथ में लड़की ब्याह कर भी लाइ जा रही है..यह मुझे इस समय चल रहे लगन में चार बरातों की कहानी सुनने पर पता चला...
--------------
लब्बोलुआब यह है कि अब ब्लैक एंड व्हाइट वाली संस्कृति विलुप्त हो गयी है..और उसका विलुप्त होना हमारे लिए शुभ है...सीन टू तक भी सही है...मसलन,लोग जागरूक हो रहे हैं...लडकियाँ सशक्त हो रही हैं...पर सीन थ्री में हमारे संस्कृति के पतन के अलावा और कुछ नहीं दिखता..

ब्लागवाणी थम सा गया है !

भारतीय ब्लॉग एग्रीगेटर

ब्लागवाणी

कल रात से थम सा गया है..

उम्मीद है उसे दुरुस्त कर लिया जायेगा..

हम दोनों मिल के..कागज पे दिल पे..चिट्ठी लिखेंगे..



हम दोनों मिल के..कागज पे दिल पे..चिट्ठी लिखेंगे..

चौथी दुनिया देश का पहला हिंदी साप्ताहिक अख़बार कैसे?

मजा आ गया। कमाल का ले-आउट। जानदार पृष्ठ सज्जा। विविध मुद्दों से लबरेज। कुछ ऐसा ही आज मुझे चौथी दुनिया पढ़ने पर आभास हुआ । साथ में अपने राज्य के लिए विशेष सप्लीमेंट। वाकई संतोष भारतीय और उनकी टीम की ये पहल उल्लेखनीय है। भारतीय जी को साधुवाद..ऐसे बेहतरीन प्रकाशन के लिए।
बावजूद इसके एक बात समझ में नहीं आई। चौथी दुनिया का पंच लाइन। ये चौथी दुनिया देश का पहला हिंदी साप्ताहिक अखबार कैसे है? ऐसे कई हिंदी के साप्ताहिक अखबार निकलते आ रहे हैं इस देश में।
जब हम बनिये से हिसाब मांग सकते हैं..दूध वाले से हिसाब मांग सकते हैं...सूचना के अधिकार के तहत सरकार से हिसाब मांग सकते हैं तो लोकतंत्र के चौथे स्तंभ मीडिया से कोई सूचना या हिसाब क्यों नहीं मांग सकते ? बस सवाल इतना ही कि चौथी दुनिया देश का पहला हिंदी साप्ताहिक कैसे?

मंगलवार, जून 08, 2010

एक सच्चे-ईमानदार पत्रकार के कुछ अनसुलझे प्रश्नों का सीधा जवाब

रंजन ने कहा…
अजीबो गरीब बहस है की है इस ब्लॉग वाले ने - मालूम नहीं ए कौन है ?? - गीता जी ने जो कुछ भी कहा - वो सच है - संजय गाँधी ने जब नसबंदी करवाना शुरू किया तो - पुरुष अपनी 'पत्नी' के पल्लू में छिपने लगे ! खैर , यह ब्लॉग मोहल्ला पर प्रकाशित हुआ है और विशेष मै क्या कहूँ ? मोहल्ला एक खास लोगों पर अपने हमले के लिए 'फेमस' रहा है - और इस मोहल्ले को 'एक न्यूज चैनल' के खास पत्रकार का सप्पोर्ट है वो भी सबको पता है ! मोहल्ला ने वी एन राय पर भी लगातार हमला किया है - फिर क्या हुआ सबको पता है ! इस तरह की बातें शोभा नहीं देता ! कुंठित पत्रकारिता है ! हाँ , फेमस होना है तो 'सूरज' पर थूकना शुरू कर दीजिए - लोग जान भी जायेंगे और आप .. :)
८ जून २०१० ११:०३ AM



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ये टिप्पणी है एक सीधे-नेक-सच्चे-ईमानदार नागरिक पत्रकार रंजन ऋतुराज सिंह का ..जो पेशे से एक सह-अध्यापक हैं..मैंने गीताश्री के ब्लॉग नुक्कड़ पर प्रकाशित एक पोस्ट पर बहस छेड़ी थी..कई प्रतिक्रियाएं मिली..पर उन सब में एक ब्लॉग लेखक महोदय उलझे-उलझे लगे। मै चाहता हूँ कि उनकी उलझन दूर हो और बहस स्वस्थ..कोई कुंठा नही..कोई पूर्वाग्रह नही॥

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- अजीबो गरीब बहस है की है इस ब्लॉग वाले ने - मालूम नहीं ए कौन है ??

रंजन जी बहस अजीबो-गरीब मुद्दों पर ही हो सकती है..और मुझे ब्लॉग लेखन से पूर्व आपसे अपने पहचान के लिए कोई सर्टिफिकेट लेने की जरुरत नही॥?

-गीता जी ने जो कुछ भी कहा - वो सच है - संजय गाँधी ने जब नसबंदी करवाना शुरू किया तो - पुरुष अपनी 'पत्नी' के पल्लू में छिपने लगे !

मैंने कब कहा कि गीताश्री ने गलत लिखा...मेरा प्रश्न है कि क्या कंडोम और पिल पर बहस से महिला सशक्तिकरण हो जावेगा? आप बेवजह संजय गाँधी की बात घुसेड रहे हैं..यहाँ बात कुछ और हो रही है और आप कुछ और अलाप रहे हैं।

-खैर , यह ब्लॉग मोहल्ला पर प्रकाशित हुआ है और विशेष मै क्या कहूँ ? मोहल्ला एक खास लोगों पर अपने हमले के लिए 'फेमस' रहा है - और इस मोहल्ले को 'एक न्यूज चैनल' के खास पत्रकार का सप्पोर्ट है वो भी सबको पता है ! मोहल्ला ने वी एन राय पर भी लगातार हमला किया है - फिर क्या हुआ सबको पता है !

यह मोहल्ला पर प्रकाशित हुआ..क्योंकि मैंने खुद किया..मोहल्ला किस बात के लिए फेमस है यह जगजाहीर है...आज भी चार सौ से पांच सौ पाठक रोज मोहल्ला में विचरते हैं..हो सकता है आपका भी कोई सपोर्टर हो..इसलिए आप बेवजह बहस कर रहे हैं...बहस कीजिये...पर स्वस्थ।

- इस तरह की बातें शोभा नहीं देता !

सर जी , बात शोभा नहीं देती...(मै व्याकरण से कमजोर हूँ)

-कुंठित पत्रकारिता है ! हाँ , फेमस होना है तो 'सूरज' पर थूकना शुरू कर दीजिए - लोग जान भी जायेंगे और आप ..

मैंने महिला सशक्तिकरण पर बहस कर दी इसीलिए आपने मुझे पुरुषों के प्रति कुंठित मान लिया...खैर फेमस होने के लिए ही मै आपके टिप्पणी पर जवाब दे रहा हूँ..आज निश्चित फेमस हो जाऊंगा..कल मेरी समीक्षा फोटू के साथ आने वाली है..पढने के लिए तैयार रहिये रंजन जी...

सादर/सस्नेह

सौरभ के.स्वतंत्र

नीतीश कुमार का ब्लॉग लेखन ठन्डे बस्ते में...

आज घूम रहा था ऐसे ही। फिर मूड हुआ आज घूमने चलते हैं बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के ब्लॉग पर। नीतीश कुमार के लेख पर सैकड़ो प्रतिक्रियाएं , राय, सुझाव, बधाई। इसे नीतीश कुमार ने खुद महसूस भी किया है..उन्ही के शब्द:
------------
सप्ताह भर में सैकड़ो रेपोंस के जरिये व्यक्त किये गए आपके टिप्पणीकार विचार न केवल सराहनीय है , बल्कि मेरे लिए बेहद अहम् हैं।
- नीतीश कुमार
------------------
पर विडम्बना..अप्रैल के बाद उनके ब्लॉग पर कोई नया पोस्ट नही...विश्वास यात्रा का कोई जिक्र नही..अब सवाल यह उठता है कि जब नीतीश कुमार के लिए ब्लॉग पर पाठको के रेस्पोंस अहम् है तो फिर क्यों नीतीश कुमार ठन्डे पड़े हैं? कम से कम रात में ही समय निकाल एक-आध घंटे बिहार की जनता के लिए ब्लॉग पर लेख पोस्ट करते...ब्लॉग से संवाद करके नीतीश कुमार कुछ जनता के बीच में जा सकते हैं और अपने नए बिहार का हाल जान सकते हैं.. ...नीतीश जी से अपील है कि आप ब्लॉग लेखन जारी रखे....मुझे उम्मीद है ब्लॉग जगत के अधिकतर लोग उनके ब्लॉग को पढना चाहते हैं..सो सभी ब्लॉग लेखको से प्रश्न है क़ि आप क्या चाहते हैं?

ए जी..ओ जी..लो जी...सुनो जी


सोमवार, जून 07, 2010

एक कतरा प्यार...

तुम नित निहारती हो,
धूप और छाव के बीच पलके बिछाती हो,
साईकिल की घंटी बजाता पास वाला हलवाई
तुम्हे देखता है कि तुम्हारी नजरे किधर गडी हैं,
पर तुम लीन हो
अपने उस बेइंतहा प्यार को जताने के लिए,
मसलन एकटक निहारना,
माँ की चौका घर से आवाज़ पर भी
तुम निहारती ही रहती हो,
जैसे बार्डर पर एक सैनिक निहारता है
सीमा के उस पार से आने वाले पंक्षियों को,
पर वह मानता है अपने अफसरान का हुक्म,
पर तुम तो अभी भी निहार रही हो,
कुछ क्षणों के लिए
माँ की चिल्लाने को नजरंदाज करके,
जैसे कि मौके की तलाश है
न जाने कितने दिनों से,
आज तो वह देखे इस तरफ,
फिर देखती है तुम्हे तुम्हारी छोटी बहन
और नजरंदाज कर जाती है
तुम्हारे निहारने को,

आज मौसम सुहाना है
तुम फिर उम्मीद लिए चढ़ती हो रोज की तरह
आज भी छत पर
विडंबना यह कि वह भी है अपने छत पर
पर न जाने क्यों नही देखता है वो,
क्यों नही देखता है वो वह बेपनाह प्यार
जो उसकी सांसों में हैं
फिर पुनः बैरंग उतर आती हो तुम
हर रोज कोई न कोई तुम्हे देखता
और तुम्हारी चर्चाए करता है
चौराहे-नुक्कड़ पर,
तुम्हे चरित्रहीन कहा जाने लगता है,
तुम्हारा दोष इतना कि
तुम अपने पहले प्यार का
इज़हार करना चाहती हो
घर की देहरी लांघे
बिना ही जीना चाहती हो
अपना एक कतरा जीवन...
एक कतरा प्यार..

चली आना तू पान की दुकान पे....साढ़े तीन बजे


अख़बार की कीमत : फिरंगी का कटा हुआ सर

कुछ बाते जिन्हें याद रखनी चाहिए
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- सौरभ के.स्वतंत्र
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1903 में भारतमित्र (दुर्गा प्रसाद मिश्र) अखबार में शिवशंभू के चिट्ठे की पहली किस्त प्रकाशित हुई। लार्ड कार्जन को ललकारते हुए संपादक ने लिखाः
"आप बारंबार अपने दो कर्मो का वर्णन करते हैं, एक विक्टोरिया मेमोरियल हॉल और दूसरा दिल्ली दरबार। पर जरा सोचिये ये दोनों काम शो है या ड्यूटी? विक्टोरिया मेमोरियल हॉल चंद पेट भरे अमीरों के एक दो बार आने की चीज होगी। इससे दरिद्रों का कुछ दुःख घट जावेगा? इस देश में आपने ध्यान नहीं दिया, न हीं यहां कि दिन/ भूखी प्रजा का विचार किया। कभी दस मिठे शब्द सुनाकर न हीं उत्साहित किया। फिर विचारिये तो गालियां यहां के लोगों को किस कृपा के बदले आपने दी?"

1905 में बंगाल विभाजन की घोषणा के बाद भारतीय अखबारों ने बंग-भंग का कड़ा विरोध करते हुए, इसे राष्ट्र हितों पर कुठाराघात बताया गया। अंबिका प्रसाद वाजपेयी का 1907 में नृसिंग अखबार में प्रकाशित लेख स्वराज की आवश्यकता को काफी सराहा गया। वहीं जब युगांतर ने पूर्ण स्वतंत्रता का नारा दिया और बड़ी निडरता से बम बनाने की विधि छापी तो अंग्रजों के पैर तले जमीन खिसक गयें। जिसका फलसफा यह हुआ कि युगांतर को उनके कोप का भाजन बनना पड़ा।1909 में जब युगांतर का अंतिम अंक निकला तो उसका नया मूल्य था:

" फिरंगी का कटा हुआ सर"

वहीं हिंदी प्रदीप को भी अंग्रेजों के दमन का शिकार होना पड़ा। दरअसल, प्रदीप में माधव शुक्ल की कविता जरा सोचो तो यारो ये बम क्या है? प्रकाशित हुई थी।इस दौर में केसरी पत्र का स्वर भी काफी तीव्र था। हिंदी केसरी के मुख्य पृष्ठ पर ये निर्भिक वाक्य होते थें-

सावधान! निश्चिंत होकर न विचरना, जब देश की जनता निंद से उठ जाएगी, तब तुम्हारी खैर नहीं।


1913 में गणेश शंकर विद्यार्थी ने कानपुर से साप्ताहिक अखबार प्रातप निकाला। तमाम क्रांतिकारी प्रताप के कार्यालय में जुटते थें और वहीं से उन्हें क्रांति की खुराक मिलती थी।1919 में दशरथ प्रसाद द्विवेदी ने गोरखपुर से स्वदेश पत्र निकाल उत्तर भारत में स्वाधिनता आंदोलन का परचम लहराया।1919 के बाद सैनिक, कर्मवीर, अभ्युदय, स्वतंत्र और आज राष्ट्रीय आंदोलन के क्रुर दमन के बावजूद मोर्चे पर डटे रहें। ब्रिटीश सरकार ने जब स्वतंत्र विचारों और समाचारों के प्रकाशन पर रोक लगा दी थी तब विष्णु पराड़कर जी ने अपने सहयोगियों के साथ मिलकर रणभेरी अखबार निकाला। उस समय रणभेरी और आज दोनों के प्रेस पर फिरंगियों ने ताला जड़ दिया ।फिर पराड़कर जी ने रणभेरी गुप्त रूप से निकलना शुरू किया। एक पैसे के इस अखबार में

संपादक का :नाम सीताराम और

प्रकाशक का :नाम पुलिस सुप्रीटेंडेंट, कोतवाली, बनारस छपा।

पुलिस रणभेरी के प्रेस का पता लगाने में नाकामयाब हुई। रणभेरी की एक टिप्पणीः
"ऐसा कोई शहर नहीं जहां से रणभेरी जैसा पर्चा न निकलता हो। अकेले बंबई में इस समय ऐसे एक दर्जन पर्चे निकल रहे हैं। दमन से द्रोह बढ़ता है, इसका यह अच्छा सबूत है, पर नौकरशाही के गोबर भरे गंदे दिमाग में इतनी समझ कहां? वह तो शासन का एक ही अस्त्र जानती है- बंदूक।"


विदेश में रहने वाले क्रांतिकारियों ने भी कई अखबार निकालें, जिनमें गदर एक था। वास्तव में गदर-गदर पार्टी का पत्र था, जो कनाडा और अमेरिका में बसे भारतीयों का आवाज बना। इसके पहले अंक में एक प्रश्नोत्तरी छपी--

-आपका नाम क्या है?

गदर

-आपका काम क्या है?

गदर

- गदर कहां होगा?

हिंदुस्तान में।

- गदर क्यों होगा?

क्योंकि अब लोग ब्रिटीश सरकार के अत्याचार को और सहन नहीं कर सकते हैं।

वाकई हिंदी पत्रकारिता ने स्वतंत्रता संग्राम में जो अपना अमूल्य एवं साहसिक योगदान दिया वह उल्लेखनीय है। ऐसी साहसिक पत्रकारिता को मेरा सलाम।

रविवार, जून 06, 2010

डायरी

उसने साफ किया

सारा घर

खिड़की तक लटक आये जाले

कोनों में जमी धूल

सीलन भरे बक्से को

धूप तक दिखा आयी

मगर खोला नहीं

बहुत दिनों से

कोने वाली बंद आलमारी

दरअसल

वो जुटाती रही हौसला

सामना करने का/अतीत का

जिंदगी के सफे से गायब

उन पन्नों में लिखी इबारत का

उस बन्द आलमारी में

कैद है

कितने सपने/ कितनी ख्वाहिशे

अधूरी सी

बोतल में बंद जीन की तरह

यकायक

जाने क्या हाथ आया

तमाम उथल-पुथल मचा गया

बह चला सैलाब भी

आंखों की कोरों को तोड़कर

हां

उसकी हाथों में थी


बीते वर्षों की डायरी।


- सीमा स्वधा

सुहाना सफ़र और ये मौसम हसीं






सुहाना सफ़र और ये मौसम हसीं



शनिवार, जून 05, 2010

ब्लॉग पर विज्ञापन चाहिए

adsene और adbrite पर मैंने प्रयास कर लिया
सफलता हाथ नही लगी..सुझाइए मुझे भी
कोई विज्ञापनदाता साईट...जहाँ से कुछ revenue आ
सके..

भारत में कई रंगे सियार हैं !

भारत में कई धर्म हैं ,
भारत में कई प्रथाएं हैं ,
भारत में कई भाषाएँ हैं ,
भारत में कई तरह के जीव-जंतु हैं ,
भारत में कई नस्ल के कुत्ते हैं,
भारत में कई रंगे सियार भी हैं,
भारत में विविधता है,
इनके बावजूद यहाँ एकता है,
जनगणना में जाति है
फिर क्यों आपत्ति है?

- सौरभ के.स्वतंत्र

शुक्रवार, जून 04, 2010

कंडोम और पिल पर बहस से महिला सशक्तिकरण करने का प्रयास

पुराश्री, अनुश्री, तनुश्री,गीताश्री, इतिश्री.......में मैंने गीताश्री को ही क्यों चुना? क्योंकि वो बतियाती हैं महिला सशक्तिकरण की बात.कंडोम और पिल पर जिरह करके सुश्री गीताश्री करना चाहती हैं महिलाओं का उद्धार... उनका मानना है "पिल को स्त्री की आजादी से जोड़कर देखना मर्दवादी सत्ता की साजिश है..!" गीताश्री के ब्लॉग नुक्कड़ पर "पहले मुक्ति, अब गुलामी की गोली" पढ़ कर मै अभी याद कर रहा था उस औरत का चेहरा जो गाँव में रहती है और अपने पूत को दो जून की रोटी देने के लिए झाड़ू-पोछा लगाती है..जीने का संघर्ष करती है...पिल और कंडोम पर नजर डालने की उसे फुर्सत कहाँ? 25 की उम्र में ही वह 52 की दिखती नजर आती है...अनेकानेक समस्याओं से जूझती नजर आती है... अब सवाल यह है कि क्या वाकई पिल और कंडोम पर बहस से महिला सशक्तिकरण हो जावेगा..या यह प्रभाव है सेक्स पर सर्वे कराने वाली पत्रिका का..आप ही पढ़ लीजिये गीता जी की बहस को उन्ही के ब्लॉग नुक्कड़ से..लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की छूट है..


पहले मुक्ति, अब गुलामी की गोली

- गीताश्री

पिल का खेल सबको समझ में आ गया है। इनका बहुत बड़ा बाजार है। इसने औरतों को टारगेट किया। पुरुषो ने अपने स्पर्श के आनंद के लिए औरतो को गोली ठुंसाई। वे कंडोम को अपनी राह का रोड़ा मानते हैं। इसीलिए औरतो को मानसिक रूप से तैयार करते हैं कि वे पिल को अपना लें। औरतें ही गोली क्यो खाएं? इससे बेहतर है कि हम पचास साल की गुलामी से बाहर आएं।
-एक स्त्रीवादी लेखिका
बहुत योजनाबद्घ तरीके से पुरुष नियंत्रित कंपनियों और समाज ने पिल को प्रोत्साहित किया। जबकि हमारे पास उसका विकल्प कंडोम के रूप में मौजूद था। अब महिलाएं कंडोम के पक्ष में हैं।
-- एक स्त्रीवादी उपभोक्ता
एक शांत-सा विज्ञापन- टेलीविजन पर आता है इन दिनों। कोई शोर शराबा नहीं, पति पत्नी के बीच आंखों-आंखों में बातें होती है और उसके बाद ‘आई-पिल’ का जिक्र।ऐसा नहीं कि इससे पहले कोई गर्भ निरोधक दवाई बाजार में नहीं आई। सिप्ला कंपनी की यह गोली शायद कुछ ज्यादा ही खास है। इसे गर्भधारण के 72 घंटे बाद लेने से भी काम चल जाता है। यही इसकी सबसे खास बात है। कंपनी ने इस के प्रचार में गुलाबी रंगों से लिखा है, ‘इसका उपयोग बिना डॉक्टरी सहायता के भी किया जा सकता है। साथ ही यह भी लिखा है कि यह गोली गर्भपात की गोली नहीं है।’पचास साल पहले जब गर्भनिरोध· गोली अस्तित्व में आई तब औरतों की दुनिया बदलने का अंदाजा शायद किसी को न रहा होगा। अनचाहे गर्भ का बोझ ढोती और साल दर साल बच्चे पैदा करती औरतें असमय बूढ़ा जाती थीं। आधी जिंदगी रसोई और आधी कोख यानी बच्चे पैदा करने में गुजर जाती थी। अपने साथ दैहिक आजादी का अहसास लेकर आई ‘जादुई पिल’ ने जब पश्चिम की औरतों को पहली बार उनकी आजादी का अहसास कराया होगा, तब औरतों ने ईश्वर के बदले वैज्ञानिको को धन्यवाद दिया होगा। औरतों की इस बेचारगी के बारे में मार्क्सवादी विचारक शुलामिथ फायर स्टोन ने भी स्पष्ट किया था कि जब तक स्त्री को गर्भाशय से मुक्ति नहीं मिलती, तब तक उसकी वास्तविक मुक्ति संभव नहीं। इन गोलियों ने पश्चिम में 50 वर्ष पहले महिलाओं के लिए मुक्ति की दिशा में कदम बढ़ा दिए। आई पिल के पैकेट पर ऐसी औरतों का ही सूरते हाल छपा हुआ है। एक उदास औरत शून्य में देख रही है। उसके नीचे लिखा है, ‘असहजता, दुश्चिंता, क्रोध, खुद से खफा, भय, ग्लानि, क्षोभ, शर्म, अकेलापन... ऐसे अनेक तरह के संशय बोध से घिरी एक औरत अनचाही गर्भ का बोझ ढोने को खुद को तैयार नहीं पाती तो इससे उबार लेने के लिए ‘आई-पिल’ मदद करने आया।’ मदद के नाम पर स्त्रियां इनके जाल में फंसती चली गईं। जो चीज 50 साल पहले शुरुआती वर्षो में आजादी का प्रतीक थी, वह धीरे धीरे जबरन गुलामी का प्रतीक बन गई। अब पता चल रहा है कि जादुई पिल सेक्सुअल आजादी की सारी कीमत सिर्फ महिलाओं से वसूलता है, पुरुषों से नहीं। कोख से मुक्ति देने के नाम पर कंडोम की उपलब्धता के बावजूद स्त्रियां पिल की जादुई गिरफ्त में फंसती चली गईं। जबकि सच ये हैं कि पिल कंडोम की तरह यौन सुरक्षा नहीं दे सकता। बल्कि सिर्फ इस पर निर्भर रहे तो यौन संबंधी कई बीमारियां हो सकती है। कंपनियां भी इसे स्त्रियों की आजादी से जोड़कर प्रचारित करती हैं। इस दौर में पिल को स्त्री की आजादी से जोड़कर देखने को मैं मर्दवादी सत्ता की साजिश मानती हूं। ये ठीक है पिल ने मुक्ति दी थी। लेकिन 50 साल से स्त्रियां ही बचाव क्यो करें। आजादी के नाम पर उन्हें लुभाना बंद कर देना चाहिए। क्यों खाती रहें गोली। आप क्यो ना यह जिम्मेवारी उठाओ। अब मुक्ति दो गोली की गुलामी से। अपने लिए उपाय तलाशो और उन्हें आजमाओ। पिल के महत्व से हमें इनकार नहीं। दुनिया बदलने में उसका बहुत बड़ा हाथ रहा है। एक पुरानी फिल्म का संवाद यहां सटीक बैठता है, जिसमें लंपट नायक कुंवारी, गर्भवती-नायिका से कहता है, ‘ईश्वर ने तुम स्त्रियों को कोख देकर हम मर्दों का काम आसान कर दिया।’ लेकिन पिल ने आकर ईश्वर के काम में दखल दे दिया। ये गोलियां धार्मिक वर्जना के विरुद्ध एक औजार की तरह आईं जिसे स्त्रियों ने अपने बचाव के लिए इस्तेमाल किया। पचास साल पहले जब इन गोलियों का अस्तित्व सामने आया तब पश्चिमी विचार· मारग्रेट सेंगर ने टिप्पणी की थी, ‘गर्भ पर नियंत्रण वह पहला महत्वपूर्ण कदम है जो स्त्री को आजादी के लक्ष्य की ओर उठाना ही चाहिए। पुरुषों की बराबरी के लिए उसे यह पहला कदम लेना चाहिए। ये दोनों कदम दासता से मुक्ति की ओर हैं।’ मुक्ति का दौर आज भी जारी है। इस एक छोटी सी गोली ने औरतों की बड़ी दुनिया का नक्शा बदल दिया। औरतें खुदमुख्तार हुईं और देह पर उनका पहला नियंत्रण यही से आरंभ हुआ। उन्होंने तय किया कि उन्हें ‘महाआनंद’ की कीमत अनचाहे गर्भ से नहीं चुकाना है। बेखौफ औरतें पुरुषों के अराजक साम्राज्य से बाहर निकलीं। बस अब नई राह पर चलना है...आप समझ रही हैं ना॥।

गुरुवार, जून 03, 2010

कविता संकलन निकालने की प्रक्रिया क्या है?

प्रिय ब्लॉग लेखको,
मुझे कविता संकलन निकलवाने के बारे में जानकारी चाहिए..अगर आपके पास कोई जानकारी है या आपके नज़र में कोई प्रकाशक हैं तो उसे साझा कीजिये..

पाण्डुलिपि तैयार है..

इसके लिए मै आप सभी का आभारी रहूँगा..

विश्व पर्यावरण दिवस का आगमन और मेरा एक अंत्येष्टि में शामिल होना!

विगत महीने संजय उपाध्याय एक ऐसी अंत्येष्टि में शामिल हुए थे जो वाकई में दिल दहलाने वाला था..उन्ही के शब्दों में जान लीजिये...और जोड़ लीजिये आने वाले पर्यावरण दिवस से...

मैं 12 मार्च को एक ऐसी अन्त्येष्टि में शामिल होने गया था, जिसमें शामिल होने का अवसर हर आम को नहीं होता है। देखे तो आंख भर आए। यह कैसी अन्त्येष्टि है कि अन्त्येष्टि स्थल के पास ही लाश के हर हिस्से को फाड़कर रख दिया। बहुत सताया अब क्या सता पाएगी लाश है फाड़ डालो नौकरी का सवाल है और सरकार को जवाब भी देना है। ऐसी भी अन्त्येष्टि होती आप लोगों को जरा आश्चर्यजनक लग रहा होगा। परंतु, सच मानिए यह भी एक शव यात्रा ही है अंतर बस इतना है कि यह आदमी की शव यात्रा नहीं है वरन देश की सरकार के लिए चिंता का कारण बने जंगल की शान बाघ की रानी बाघिन की शव यात्रा है। स्थल है बिहार का वाल्मीकि टाइगर रिजर्व। दरअसल इस परियोजना के मदनपुर वनक्षेत्र से रायल बंगाल टाइग्रेस (बाघिन) की लाश 11 मार्च को एक गड्ढे में मिली। लाश क्या मिली विभाग का सारा अमला परेशान हो गया। आनन-फानन में राजधानी पटना से अधिकारियों की टीम चली। मदनपुर पहुंची और फिर 12 मार्च को चिकित्सक ने बाघिन की लाश को फाड़कर देखा कि कैसे मर गई? तत्काल कुछ भी पता नही चला। इतनी जानकारी हो गई कि बाघिन सात दिन पहले मरी होगी। फिर बेसरा सुरक्षित कर दिया गया और बाघिन की लाश को चैन मिला। फिर लाश को आग के हवाले कर दिया गया। मैने अधिकारियों से थोड़ी सी जानकारी मांगी तो बस वे लपक गए और गिना दी मजबूरी। उनकी भी बात जायज थी 840 वर्ग किलोमीटर में फैली इस परियोजना में अब से एक दशक पहले करीब पांच दर्जन बाघ थे, लेकिन अब इनकी संख्या 10 से तेरह के बीच थी। इनमें से भी एक घट गई। लोग बताते हैं इण्डो-नेपाल व उत्तर प्रदेश की सीमा पर स्थित इस व्याघ्र परियोजना में जमकर शिकार होता है। परंतु, निहत्थे वनकर्मी क्या करें? न वाहन न वेतन और नहीं सुरक्षा तो बस ये लोग भी लाश गिनने और अंत्येष्टि में लगे रहते हैं और सरकार को रिपोर्ट भी देते हैं। यदि अब भी सरकार की आंख नहीं खुली तो एक दिन ऐसा आएगा कि बाघ, जंगल सब कुछ सरकार के लिए सपना हो जाएंगे। यहां बता देता हूं संख्या देश की कुल 38 परियोजनाओं में पिछले रिकार्ड के मुताबिक 1411 बाघ थे अबकी बाघिन की मौत के बाद यह संख्या 1409 होगी। कारण इससे पहले भी इसी परियोजना में 2008 में एक और रायल टाइगर तड़प-तड़प कर मर गया था। ऐसे में सरकार को अब देखना चाहिए आखिर कबतक यूं ही मरेंगे बाघ।
संजय उपाध्याय का ब्लॉग है

पिता और नी रिप्लेसमेंट

अभी अभी

लौटे हैं पिता एम्स से

डॉक्टर की हिदायतें और सुझाव

टटका हैं अभी

आँखों में छायी उदासी

और दर्द का मिला जुला भाव

माँ के चहरे का साझीदार है

नी रिप्लेसमेंट शब्द एकदम

अजनबी तो नहीं वजनी जरूर है

'किसके साथ बांटा जाए इसे'

धीरे से फुसफुसाती है माँ

'सीढियां चढ़ने की सख्त मनाही है

नीचे ही बंदोबस्त करना होगा'

कैसी बिडम्बना है ये

जिनके बदलौत चढ़े हैं कोई

सफलता की सीढियाँ

आज उन्हें सीढियों पर चढ़ने तक की मनाही है

उठाया जिसने आज तक

पूरे परिवार का बोझ

आज उनका बोझ

उनके घुटनों को भारी पड़ रहा है
अपने सपनो को

हाशिये पे रख

अपनों के सपनों को मनचाहा आकार देन के क्रम में

उन्होंने कब सोचा होगा भला

कि अपनों के सपने सगे तो होते हैं

नितांत अपने नहीं

मसलन बेटे के सपनों की सहभागी बहू

बेटी के सपनों का वो अनजाना

सहोदर होने के बावजूद

भाई के सपनों की मंजिल में भी

कोई हिस्सेदारी नहीं होती

सच पूछा जाये तो सपने बेवफा होते हैं

खासी हिम्मत और धैर्य की

जरूरत होती है

दूसरों के सपने पालने में

हाँ सपने गर अपने होते

पूरा होने पर अंत तक साथ निभाते हैं

काफी हताश हैं पिता

जानती हूँ

ये हताशा महज घुटनों की बेवफाई नही

वरन कहीं न कहीं

भौतिकता की इस अंधी दौड़

में टूटते विशवास और दरकते सपनों

का दर्द भी है।

- सीमा स्वधा

बुधवार, जून 02, 2010

पत्रकार का दुधारू होना!

ब्लॉग पर यह मेरा पहला लेख था। जोकि 11 अप्रैल'2008को रिजेक्ट माल ब्लॉग पर प्रणव प्रियदर्शी जी के मार्गदर्शन में पोस्ट किया गया था. आज विचर रहा था उसी ब्लॉग पर. सोचा पुरानी यादें ताज़ा कर ली जाये...गौर फरमाइए....

पत्रकार का दुधारू होना!


दुधारू पशुओं की फेहरिस्त काफी लम्बी है. चूंकि, मनुष्य भी पशु (सामाजिक) है. सो, उसका भी दुधारू होना लाजिमी है. हाँ, ये बात अलग है कि कोई उन्नत नस्ल का है और कोई बाँझ टाइप. चूंकि मैं एक पत्रकार हूँ. सो, पत्रकारों के दुधारू होने पर चर्चा करना मेरा कर्तव्य बनता है. पत्रकार शब्द जब भी सुनने को मिलता है तो मुझे वह दुधारू गाय नजर आने लगती है, जो खाती तो है अपने बछड़े को दूध पिलाने के लिए . पर उसे दुह कोई और लेता है. बेचारी वह चाहकर भी कुछ नही कर पाती सिवाय हाथ-पांव पटकने के.

आजकल पत्रकार बंधुओ को भी गजब दुहा जा रहा है. एकदम रेलवे के माफिक. शायद यह सोंचकर कि उन्हें कम दुहेंगे तो अख़बार या चैनल बीमार पड़ सकते हैं. पत्रकारों के दुहने की बात थोड़ा विस्मय पैदा करती है. पर आजकल पत्रकार पैदा करने वाले इतने सारे केन्द्र खुल गए हैं. जहाँ से हजारो-हज़ार की संख्या में किसिम-किसिम के पत्रकार निकल रहे हैं. लिहाजा, स्थिति यह हो गई है कि हर चैनल और अख़बार के पास अनेकानेक विकल्प हो गए हैं. अगर, आप सही तरीके से दूध नही देते हैं तो समझिए आपकी छुट्टी तय है. मतलब आपको इस लाइन में जगह बनानी है तो अपने आप को खूब दुहवाइये . चाहे आप कितने भी बड़े ओहदे पर क्यो न पहुँच जाए आपके ऊपर भी कोई आपको दुहने वाला है.
एक माह पहले इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के ऑडिटोरियम मे बैठा था. जहाँ पत्रकारिता की शिक्षा के मानकीकरण पर चर्चा हो रही थी. जिसमे अच्युतानंदजी, आनंद प्रधानजी, राहुल देवजी, आलोक मेहताजी जैसे वरिष्ठ हस्ताक्षर पत्रकारिता के भविष्य को लेकर अपनी चिंता व्यक्त कर रहे थे. आलोक मेहता जी ने कहा कि इस दौर में संपादक के सत्ता का क्षरण हो रहा है. मैं काफी सोंच मे पड़ गया कि जब पत्रकारिता के शीर्ष पर बैठे लोग ऐसी बात करते हैं तो हमारी क्या बिसात.... हो सकता है संपादक भी अपने आप को दुहा हुआ महसूस करता हो.

हंस पत्रिका के एक मीडिया विशेषांक मे मैंने पढ़ा था कि संपादक को भी अपने ग्रुप चेयरमैन की बातें सुननी पड़ती हैं. उनके सवालो का जवाब देना पड़ता है. जैसे टीआरपी को... खबरों के एंगल को ले कर जवाबदेही ... ख़बर छूट जाने पर भी जवाब देना पड़ता है. वगैरह..वगैरह..

लिहाजा संपादक भी दुहा जाते हैं. और दबाव मे आकर अपने अंडर में काम करने वालो को उन्हें दुहना पड़ता है. अपने बॉस के मार्गदर्शन पर न चाहते हुए भी उन्हें चलना पड़ता है. और जूनियरों को दुहना पड़ता है. वही जूनियर न्यू कमर्स की दुहाई गुस्से मे आकर करते हैं..थोड़ा भी चूं..चा किया कि छुट्टी तय. सो, अपने आपको दुह्वाना ही अपनी नियति मन लेना श्रेयस्कर है.

लोहे का स्वाद लोहार से मत पूछो, उस घोडे से पूछो जिसके मुंह में लगाम है। यह मैं नही कह रहा हूँ. बल्कि धूमिल ने कहा है. अब जब लगाम की बात आती है तो स्वतंत्र पत्रकार भाई लोग के मुह मे लगाम तो नही है. पर अगर शब्दों के बीच गिरे खून को पहचाने तो जाहिर हो जाएगा कि स्वतंत्र पत्रकार भी दुधारू जमात मे उन्नत नस्ल से सम्बन्ध रखते हैं. दरअसल, उनके अन्दर छपास का रोग होता है. सो, विभिन्न पत्र-पत्रिकाओ में लेख दीजिये , नाम कमाइये , और भूखे सोयिये. यदि कही से सात-आठ माह में चेक आ भी जाए तो उसे लेखन सामग्री खरीदने मे लगा दीजिये , इंटरनेट व कंप्यूटर आदि के चार्ज भर दीजिये. और सूखी अंतडियों से निर्बाध लेख निकालिए. यदि नही निकालते हैं तो आप उन्नत किस्म के दुधारू पत्रकार नही हैं. पारिश्रमिक के लिए सम्पादकजी को फ़ोन घुमाइये तो एहसान फरामोशी का तमगा पाइए. मतलब स्वतंत्र पत्रकार का भी कमोबेश वही हालत है. पर अन्य पत्रकारों से थोड़ा इतर .

मैं जानता हूँ कि पत्रकारों को दुधारू पशु के रूप मे निरुपित करना कितने शूरमाओं को नागवार गुजरेगा...पर क्या करें..कलम है कि रूकती नही।

रिजेक्ट माल को आभार.

स्त्री

स्त्री हूं मैं
इसीलिये शापित होना भी
मेरी ही नियति है,
एक बार फिर
मूर्तिमान हो डटी है
अहिल्या मुझमें
अपनी तमाम वंचनाओं सहित
और तुम तो
निस्पृह गौतम हीं बने रहे,
उपेक्षा और अपमान की
प्रतीक वह
तिरस्कृत शिला
जाने कब तक
प्रतीक्षा करती रही
जो राम का,
पर मुझे इंतजार नहीं
किसी राम का
तुम्हीं तो हो
मेरे अभिशाप भी/
उद्धार भी।


- सीमा स्वधा

मंगलवार, जून 01, 2010

ब्लॉग लेखन : हिंदी का अहित करने वाला अश्लील रचनाकर्म नही..एक गंभीर रचनाकर्म..शैलेन्द्र सागर का कबूलनामा

जब कथाक्रम पत्रिका पढने के बाद मैंने संपादक शैलेन्द्र सागर के सम्पादकीय पर बहस छेड़ी थी तो काफी प्रतिक्रियाएं मिली। पर मुझे लगा कि यह पोस्ट ( पूर्व में इस बहस में शामिल नही होने वाले ब्लोगर्स नीचे के पोस्ट में जाकर पढ़े) शैलेन्द्र सागर को भी पढना चाहिए...मैंने उन्हें वाया मेल उस पोस्ट का लिंक उनके रिसाले में पहुंचा दिया..आज उन्होंने उस पोस्ट और तमाम प्रतिक्रियाओं को पढने के बाद पुनः यह कबूल किया कि ब्लॉग लेखन एक गंभीर रचना कर्म है॥ यह ब्लॉग लेखको के लिए एक सुखद बात है....

प्रिय भाई,
आपकी मेल के लिए शुक्रिया
मैंने ब्लॉग पर कमेन्ट पढ़े. मैंने अपनी अज्ञानता पहले ही स्वीकारी है. आज भी मै ब्लॉग को गंभीर रचना कर्म मानता हू..पर हमे ऐसे विकृतियों से सावधान रहने की जरूरत है.इसी मकसद से ये सम्पादकीय लिखा था. मुझे ख़ुशी है कि दोस्तों का ध्यान इस मुद्दे पर गया.

शैलेन्द्र सागर