स्त्री हूं मैं
इसीलिये शापित होना भी
मेरी ही नियति है,
एक बार फिर
मूर्तिमान हो डटी है
अहिल्या मुझमें
अपनी तमाम वंचनाओं सहित
और तुम तो
निस्पृह गौतम हीं बने रहे,
उपेक्षा और अपमान की
प्रतीक वह
तिरस्कृत शिला
जाने कब तक
प्रतीक्षा करती रही
जो राम का,
पर मुझे इंतजार नहीं
किसी राम का
तुम्हीं तो हो
मेरे अभिशाप भी/
उद्धार भी।
- सीमा स्वधा
kab tak naari raam ka intzaar karegi apne uddhaar ke liye...sundar kavita
जवाब देंहटाएंnice poem
जवाब देंहटाएंapna uddhar khud karna padega.
जवाब देंहटाएंwow !!!!!!!!!
जवाब देंहटाएंbahut khub
वाह! कमाल कि रचना है!
जवाब देंहटाएं