सच हम नहीं, सच तुम नहीं, सच है महज संघर्ष ही!

सोमवार, मई 31, 2010

मनोज बाजपेयी की पीड़ा

मनोज बाजपेयी...कला के धनी अभिनेता....उनका एक ब्लॉग है॥आज विचरते हुए पहुँच गया उनके ब्लॉग पर..कई पोस्ट पढ़े...पोस्ट का पोस्टमार्टम भी किया...उनके एक लेख ने मुझे काफी प्रभावित किया.....चर्चा का विषय था उनकी ही की फिल्म स्वामी और 1971(आप कही यह नाम सुनकर चौंक गए हो). मैंने ये दोनों फिल्मे देखी थी...सो सारा माजरा क्लियर हो गया..दरअसल, इतनी बेहतरीन फिल्म आम लोगो के पास नहीं पहुँच पाई..इसका दुःख मनोज को भी है और उनके पोस्ट को पढने के बाद मुझे भी...उनके इस लाइन ने तो हृदय को रुला दिया..

"मैं अपने करियर की सर्वश्रेष्ठ फिल्म ‘1971’ को मानता हूं। इसी फिल्म को इस साल बेस्ट हिन्दी फीचर फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार दिया गया है। लेकिन, इस फिल्म की खराब पब्लिसिटी का ही नतीजा था कि दर्शकों को इस फिल्म के बारे में पता नहीं चला। टेलीविजन पर लोग फिल्म देखकर अब फोन करते हैं और पूछते हैं कि ये कौन सी फिल्म है, जिसमें मैंने इतना बढ़िया अभिनय किया है। "

मेरा माननाहै किप्रचार तंत्र ने इस फिल्म की सफलता पर रंदा मार दिया...

पढ़िए मनोज का ही आलेख उन्ही के ब्लॉग से..
प्रचार बिन सब सून

अपनी नयी फिल्म ‘जेल’ के प्रमोशन के लिए मैं फैशन वीक में रैंप पर उतरा तो कई लोगों ने मुझसे एक सवाल किया कि क्या रैंप पर उतरना फिल्म कलाकारों के लिए अब फैशन हो गया है? या इस हथकंडे से फिल्म के सफल होने की गारंटी मिल जाती है? ये सवाल शायद इसलिए भी बार बार पूछा गया क्योंकि रैंप पर ‘जेल’ के सभी सदस्य यानी मैं, नील, मुग्धा और डायरेक्टर मधुर भंडारकर साथ-साथ उतरे और मैंने और नील ने तो कैदी की यूनिफॉर्म पहनी थी, और हाथ में हथकड़ी लगायी हुई थी। लेकिन, बात रैंप पर चलने की नहीं, इस बारे में पूछे गए सवालों की है।

फिल्म के प्रमोशन के लिए रैंप पर चलना इन दिनों आम हो गया है-इसमें कोई शक नहीं है। दरअसल, कंज्यूमरिज़्म के इस दौर में फिल्म भी एक प्रोडक्ट है और बॉलीवुड को यह बात अब अच्छी तरह समझ आ चुकी है। एक प्रोडक्ट को बेचने के लिए जिस तरह एडवरटाइजिंग की जरुरत होती है,उसी तरह फिल्म को बेचने के लिए भी एडवरटाइजिंग की जरुरत होती है। लेकिन, फिल्म और दूसरे प्रोड्क्ट में एक बड़ा अंतर यह है कि फिल्म का हश्र रिलीज के तीन दिनों के भीतर तय हो जाता है। ऐसे में, फिल्म को दर्शकों तक पहुंचाने के लिए जिन जिन तरीकों या कभी कभार हथकंडों की जरुरत होती है, उनका सहारा लिया जाता है। रैंप पर चलना सबसे सस्ते तरीकों में हैं,जहां आप कोई रकम खर्च नहीं कर रहे अलबत्ता पब्लिसिटी बटोर रहे हैं।
बहुत से लोग इस बारे में सवाल कर सकते हैं कि क्या पब्लिसिटी से फिल्म हिट हो सकती है? क्योंकि कई बड़े बजट की फिल्मों को धुआंधार पब्लिसिटी के बावजूद औंधे मुंह गिरते लोगों ने देखा है। जी हां, इसमें कोई दो राय नहीं है कि सिर्फ पब्लिसिटी ही सब कुछ नहीं होती। लेकिन,माफ कीजिए बहुत कुछ होती भी है। आखिर,दर्शकों को रिलीज हुई फिल्म के बारे में पता तो चलना चाहिए। उस फिल्म की कहानी-कलाकार आदि के बारे में कुछ तो पता होना चाहिए, तभी तो वो थिएटर तक फिल्म देखने की मशक्कत करेगा।
करियर के शुरुआती दौर में मैं पब्लिसिटी को अहम नहीं मानता था। लेकिन, अब मुझे लगता है कि मैं गलत था। दरअसल, अपनी फिल्मों की खराब पब्लिसिटी का हश्र मैंने कई बार भुगता है। मेरी फिल्म ‘स्वामी’ को आलोचकों ने बहुत सराहा, लेकिन फिल्म पिट गई क्योंकि दर्शकों को इसके बारे में पता ही नहीं चला कि फिल्म कब आई और कब गई। मैं अपने करियर की सर्वश्रेष्ठ फिल्म ‘1971’ को मानता हूं। इसी फिल्म को इस साल बेस्ट हिन्दी फीचर फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार दिया गया है। लेकिन, इस फिल्म की खराब पब्लिसिटी का ही नतीजा था कि दर्शकों को इस फिल्म के बारे में पता नहीं चला। टेलीविजन पर लोग फिल्म देखकर अब फोन करते हैं और पूछते हैं कि ये कौन सी फिल्म है, जिसमें मैंने इतना बढ़िया अभिनय किया है। हाल में प्रदर्शित हुई एसिड फैक्ट्री के बारे में भी मेरा यही मानना है कि फिल्म की पब्लिसिटी ठीक नहीं हुई।
आज के युग में फिल्मों के प्रचार प्रसार के लिए जरुरी है कि आप यानी कलाकार और फिल्म से जुड़े लोग हर संभव मंच से चिल्ला चिल्लाकर बताएं कि अमुक फिल्म रिलीज हो रही है। लोग कहते हैं कि क्या अब माउथ पब्लिसिटी के लिए कोई जगह नहीं है। तो मेरा यही मानना है कि नहीं है। वो इसलिए क्योंकि फिल्म का धंधा सिर्फ तीन दिनों का है,क्योंकि अगर तीन दिनों के भीतर लोग थिएटर तक नहीं पहुंचे तो फिर अगले हफ्ते तीन-चार फिल्में रिलीज के लिए तैयार होती हैं।
निश्चित तौर पर छोटे निर्माताओं को अपनी फिल्म के प्रचार में अब खासी मुश्किलें आती हैं, और उनके लिए यही रास्ता है कि वो सभी मुमकिन मंच से फिल्म का प्रचार करें। रिएलिटी शो में जाएं, रैंप पर कलाकारों को उतारें, वेबसाइट पर चैट करें वगैरह वगैरह। कुल मिलाकर सच्ची बात यही है कि बिन प्रचार सब सून है। दर्शकों द्वारा फिल्म पसंद या खारिज तो तब की जाएगा,जब बड़ी संख्या में लोग फिल्म को देखें और बिना पब्लिसिटी यह मुमकिन नहीं है। इसलिए ‘जेल’ या अपनी किसी दूसरी फिल्म के लिए जब मैं रैंप पर उतरता हूं तो सिर्फ इसलिए क्योंकि मैं चाहता हूं कि लोग फिल्म को देखने के बाद अपना फैसला दें।
इसी के साथ
आपका और सिर्फ आपका
मनोज बाजपेयी
इस लेख को पढने के बाद स्वामी और 1971जरूर देखे..

रविवार, मई 30, 2010

एस.एन.विनोद की "बिहार के पत्रकारों और सरकार को गरियाते एक संपादक" पर प्रतिक्रिया

"बिहार के पत्रकारों और सरकार को गरियाते एक संपादक" पोस्ट में संपादक की भूमिका में एस.एन.विनोद ही थे...उन्होंने इस बहस में शामिल होने की हामी भी भरी है...उनके द्वारा उसका सच पर जारी की गयी प्रतिक्रिया...आप भी शामिल हो इस बहस में कि बिहार के पत्रकारों की नीतीश राज में क्या स्तिथी है..

नीतीश और बिहार पर सार्थक बहस

- एस.एन.विनोद

'नीतीश का बिहार , नीतीश के पत्रकार' में बिहार की वर्तमान पत्रकारिता पर की गई मेरी टिप्पणी पर अनेक प्रतिक्रियाएं मिली हैं। विभिन्न ब्लॉग्स पर भी टिप्पणियां की जा रहीं हैं। कुछ सहमत हैं, कुछ असहमत हैं। एक स्वस्थ- जागरूक समाज में ऐसी बहस सुखद है। लेकिन मेरी टिप्पणी से उत्पन्न भ्रम को मैं दूर करना चाहूंगा।अव्वल तो मैं यह बता दूं कि अपने आलेख में मैंने कहीं भी बिहार अथवा नीतीश कुमार की आलोचना विकास के मुद्दे पर नहीं की है। मेरी आपत्ति उन पत्रकारों के आचरण पर है जो कथित रुप से सच पर पर्दा डाल एकपक्षीय समाचार दे रहें हैं या विश्लेषण कर रहें हैं। कथित इसलिए कि मेरा पूरा का पूरा आलेख एक पत्रकार मित्र द्वारा दी गई जानकारी पर आधारित था । अगर वह जानकारी गलत है तो मैं अपने पूरे शब्द वापस लेने को तैयार हूं। और अगर सच है तब पत्रकारिता के उक्त कथित पतन पर व्यापक बहस चाहूंगा। उक्त मित्र के अलावा अनेक पत्रकारों सहित विभिन्न क्षेत्रों के लोगों ने भी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार द्वारा पत्रकारों को प्रलोभन के जाल में फांस लेने की जानकारियां दी हैं। मेरे आलेख पर विभिन्न ब्लॉग्स में ऐसी टिप्पणियां भी आ रहीं हैं। फिर दोहरा दूं, अगर पत्रकारों के संबंध में आरोप सही हैं तब उनकी आलोचना होनी ही चाहिए। 'उसका सच' ब्लॉग पर भाई सुरेंद्र किशोरजी का साक्षात्कार पढ़ा। सुरेंद्र किशोरजी मेरे पुराने मित्र हैं। उनकी पत्रकारीय ईमानदारी को कोई चुनौती नहीं दे सकता। ठीक उसी प्रकार जैसे नीतीश कुमार की व्यक्तिगत ईमानदारी पर कोई सवाल खड़ा नहीं किया जा सकता। सुरेंद्रजी की बातों पर अविश्वास नहीं किया जा सकता लेकिन अगर पत्रकारों को प्रलोभन और प्रताडि़त किए जाने की बात प्रमाणित होती हैं तब निश्चय मानिए, सुरेंद्र किशोरजी उनका समर्थन नहीं करेंगे।किसी ने टिप्पणी की है कि मैं नागपुर में रहकर राज ठाकरे की भाषा बोलने लगा हूं। उन्हें मैं क्षमा करता हूं कि निश्चय ही मेरे पाश्र्व की जानकारी नहीं होने के कारण उन्होंने टिप्पणी की होगी। मेरे ब्लॉग के आलेख पढ़ लें तो उन्हें मालूम हो जाएगा कि राज ठाकरे सहित ठाकरे परिवार पर मैं क्या लिखता आया हूं। 1991 में, जब उन दिनों बाल ठाकरे के खिलाफ लिखने की हिम्मत शायद ही कोई करता था, मैंने अपने स्तंभ में 'नामर्द' शीर्षक के अंतर्गत उनकी तीखी आलोचना की थी। क्योंकि तब शिवसैनिकों ने मुंबई में पत्रकारों के मोर्चे पर हथियारों के साथ हमला बोला था। पत्रकार मणिमाला पर घातक हथियार से हमला बोला गया था। मेरी टिप्पणी से क्रोधित दर्जनों शिवसैनिकों ने मेरे आवास पर हमला बोल दिया था। आज भी उत्तर भारतीयों के खिलाफ राज ठाकरे के घृणित अभियान पर कड़ी टिप्पणियों के लिए मुझे जाना जाता है।सभी जान लें, बिहार की छवि और विकास की चिंता मुझे किसी और से कम नहीं है। हां, अगर अपनी बिरादरी अर्थात पत्रकार बिकाऊ दिखेंगे तब उन पर भी मेरी कलम विरोध स्वरुप चलेगी ही। लालूप्रसाद यादव का उल्लेख मैंने जिस संदर्भ में किया है उस पर बहस जरूरी है। लालू ने पत्रकारीय मूल्य को चुनौती दी है। उन्हें जवाब तो देना ही होगा।

शनिवार, मई 29, 2010

बिहार के पत्रकारों और सरकार को गरियाते एक संपादक

एक पत्रकार नागपुर में रहते हैं और एक बिहार में.. नागपुर में रहने वाले पत्रकार महोदय एस.एन.विनोद हैं वही बिहार में रहने वाले पत्रकार सुरेन्द्र किशोर जी हैं...एस.एन.विनोद की माने तो बिहार में कोई विकास या काम नहीं हो रहा (क्योंकि उनके किसी मित्र ने उन्हें फ़ोन पर बताया है)...वे इसी आधार पर बिहार के पत्रकारों पर आरोप लगा कर कहते हैं कि बिहार के पत्रकार बिके हुए है..जो पैसो के बल पर विकास का भ्रम मात्र पैदा कर रहे हैं...विनोद जी ने अपने ब्लॉग चीर फाड़ पर पत्रकारों को गरियाने के लिए लालू प्रसाद का हवाला भी दिया है.


वही हमेशा से मुख्यमंत्रियों की आलोचना करते रहने वाले वरिष्ठ पत्रकार सुरेन्द्र किशोर जी की माने तो बिहार में वाकई काम हो रहा है और उन्हें कोई सरकारी परसादी लेनी होती तो नीतीश कुमार के शासन आने की प्रतीक्षा क्यों करते.. ?


अब सवाल यह उठता है कि क्या वाकई नीतीश ने पत्रकारिता का उपयोग करके विकास का भ्रम पैदा कर रखा है या एस.एन.विनोद (नागपुर) और बिहार के बीच फासला और एक संपादक मित्र के फ़ोन कॉल ने नीतीश के सारे विकास कार्यो पर पर्दा दाल दिया है..


पहले पढ़ते हैं एस.एन.विनोद का आलेख उन्ही के ब्लॉग चीर फाड़ से...

नीतीश का बिहार, नीतीश के पत्रकार!
अब इस विडंबना पर हंसूं या रोऊं? एक समय था जब पत्रकार राजनेताओं अर्थात्ï पॉलिटिशियन्स को भ्रष्ट, चोर, दलाल निरूपित किया करते थे। वैसे करते तो आज भी हैं, किंतु अब राजनेता पत्रकारों को भ्रष्ट, चोर, दलाल, निरूपित करने लगे हैं। क्यों और कैसे पैदा हुई ऐसी स्थिति? तथ्य बतात हैं कि स्वयं पत्रकार ऐसे अवसर उपलब्ध करवा रहे हैं। इस संदर्भ में बिहार से कुछ विस्फोटक जानकारियां प्राप्त हुईं। प्रचार तंत्रों को दागदार-कलंकित-पिछड़े बिहार की जगह स्वच्छ, समृद्ध और विकासशील बिहार दिख रहा है! बिहार से बाहर रहने वाले बिहारीजन प्रदेश की इस नई छवि से स्वाभाविक रूप से पुलकित हैं। किंतु परदे के पीछे का सच पत्रकार बिरादरी के लिए भयावह है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के कार्यकाल के लगभग साढ़े चार वर्ष पूर्ण हो चुके हैं। इस अवधि में बिहार के अखबार, वहां कार्यरत पत्रकार और विभिन्न टीवी चैनल नीतीश कुमार और बिहार का ऐसा चेहरा प्रस्तुत करते रहे मानो बिहार विकास के पायदान पर निरंतर छलांगें लगाता जा रहा है! जबकि साक्ष्य मौजूद हैं कि इसके पूर्व यही पत्रकार बिरादरी अन्य मुख्यमंत्रियों और बिहार को पिछड़ा, निकम्मा और एक अपराधी राज्य निरूपित करती रही थी। फिर अचानक क्या हो गया? क्या सचमुच नीतीश कुमार ने बिहार की तस्वीर बदल डाली है? बिहार अपराध मुक्त और बिहारी भयमुक्त हो चुके हैं? अब जातीय संघर्ष से दूर बिहार एक विकसित प्रदेश का दर्जा प्राप्त करने की ओर अग्रसर है? इस जिज्ञासा का जवाब लगभग 15 वर्ष पूर्व संपादक के पद से अवकाश प्राप्त कर चुके एक वरिष्ठ पत्रकार ने विगत कल सुबह दिया। जवाब से मैं स्तब्ध रह गया! उन्होंने कहा कि, ''नीतीश कुमार का बिहार विकास के लिए नहीं अपितु पत्रकारों के विनाश के लिए जाना जाएगा।'' नीतीश कुमार ने अपने कार्यकाल में अखबारों, चैनलों और पत्रकारों का मुंह बंद रखने के लिए अपनी ओर से कोई कसर नहीं छोड़ी है। बिल्कुल बंधुआ मजदूर बना रखा है उन्हें। नीतीश और बिहार का गुणगान करने पर बिरादरी खुश है- सुखी है। आरोप है कि वे सबकुछ कर रहे हैं सिवाय पत्रकारीय ईमानदारी के। कोई आश्चर्य नहीं कि इस तथ्य पर परदा डाल दिया गया है कि बिहारवासी नीतीश कुमार से क्रोधित हैं और अगले विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार की पार्टी (जदयू) की खटिया खड़ी होने वाली है।कहते हैं यदाकदा जिन पत्रकारों ने सच को उजागर करने की कोशिश की, या तो उनका तबादला हो गया या तो फिर प्रबंधन की ओर से उन्हें शांत कर दिया गया। अखबारों, चैनलों को विज्ञापन के अलावा निजी तौर पर पत्रकारों को खुश रखने के लिए धन पानी की तरह बहाया गया। लेकिन कैसे? एक वरिष्ठ पत्रकार मित्र की जुबान में सुन लें- ''....पांच लाख का विज्ञापन तो दिया जाता है किंतु साथ में पांच जूतों का बोनस भी।'' और तुर्रा यह कि पत्रकार खुशी-खुशी सह रहे हैं, स्वीकार कर रहे हैं।बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष लालूप्रसाद यादव ने बिहार के विकास के मुद्दे पर पत्रकारों को चुनौती दी है। लेकिन उनकी चुनौती को कोई स्वीकार नहीं कर रहा है। कारण स्पष्ट है। बंद मुंह खोलें तो कैसे? लालू ने एक वरिष्ठ पत्रकार के नवनिर्मित बंगले पर निर्माण खर्च का ब्यौरा सार्वजनिक रूप से मांगा है। स्वीमिंग पुल की सुविधायुक्त बंगला उस पत्रकार की माली हैसियत के दायरे में तो नहीं ही आता है। इसी प्रकार एक दैनिक में छपी उस रिपोर्ट को लालू ने चुनौती दी है जिसमें छोटे से शहर की एक लड़की को बिहार की कथित उपलब्धियों पर गर्व करते प्रस्तुत किया गया था। लालू ने चुनौती दी है कि संपादक उक्त लड़की को प्रस्तुत करें। लालू के अनुसार पूरी की पूरी यह 'स्टोरी' कपोलकल्पित है और लड़की एक काल्पनिक पात्र! उसका कोई वजूद ही नहीं है। अगर लालू का आरोप सही है तो निश्चय ही वह अखबार और संपादक नीतीश कुमार की दलाली कर रहा है। अविश्वसनीय तो लगता है जब सुनता हंू कि नीतीश कुमार सरकारी खजाने से सैकड़ों करोड़ रुपये समाचारपत्रों, टी.वी. चैनलों और पत्रकारों को उपकृत करने के लिए खर्च कर चुके हैं। क्या इस आरोप की जांच के लिए कभी कोई पहल होगी? उपकृत पत्रकार तो नहीं ही करेंगे, लेकिन अपवाद की श्रेणी में मौजूद ईमानदार पवित्र हाथ तो पहल कर ही सकते हैं।

अब पढ़ते हैं सुरेन्द्र किशोर जी की नीतीश कुमार और बिहार की पत्राकारिता पर राय.

कोई सरकारी परसादी लेनी होती तो नीतीश कुमार का शासन आने की प्रतीक्षा क्यों करता ?

प्रश्न - आपके बारे में यह कहा जाता है कि अपने पत्रकारिता जीवन में आपने कभी किसी मुख्यमंत्री की तारीफ नहीं की । क्या कारण है कि आप इन दिनों नीतीश कुमार के प्रशंसक बने हुए हैं ? इस अति प्रशंसा के कारण आपकी पुरानी छवि को धक्का लग रहा है?

उत्तर - आपने बिलकुल सही कहा। कुछ लोग तो नेट पर यह भी लिख रहे हैं कि मैं किसी तरह की ‘परसादी’ पाने के लिए नीतीश कुमार की चापलूसी कर रहा हूं। दरअसल ऐसे लोग न तो मुझे जानते हैं और न ही बिहार व देश के सामने आज जो गंभीर समस्याएं हैं, उनका उन्हें कोई अनुमान है। यदि किसी को अनुमान है भी तो वे स्वार्थ या किसी अन्य कारणवश उन्हें देख नहीं पा रहे हैं।यह बात सही नहीं है कि मैंने किसी मुख्यमंत्री की अपने लेखन में आम तौर पर कभी कोई सराहना ही नहीं की। जिस नेता के बारे में मुझे सबसे अधिक लिखने का मौका मिला, वे हैं लालू प्रसाद यादव। उन्होंने भी अपना काम किया और मेरे खिलाफ कुछ ऐसे कदम उठाए जो अभूतपूर्व रहे। इसके बावजूद 1990 में मंडल आरक्षण आंदोलन के दौरान मैंने लालू प्रसाद के पक्ष में और आरक्षण विरोधियों के खिलाफ लगातार जोरदार लेखन किया।इस लेखन के कारण मुझे अपने स्वजातीय, सवर्णों और यहां तक कि अपने परिजनों से भी आलोचनाएं सुननी पड़ी थीं। अनेक मुख्यमंत्रियों को देखने के बाद मैं यह कह सकता हूं कि नीतीश कुमार जैसा मुख्यमंत्री कुल मिलाकर इससे पहले मैंेने तो नहीं देखा। यदि यह बात मैं किसी लाभ की प्राप्ति के लिए कहूं तो मेरी इस बात पर किसी को ध्यान देने की जरूरत नहीं है। पर यदि राज्यहित में कह रहा हूं तो मेरी बात सुनी जानी चाहिए अन्यथा बाद में राज्य का नुकसान होगा। मंडल आरक्षण विवाद के समय मेरी बातें नहीं सुनी गईं जिसका नुकसान खुद उनको अधिक हुआ जो आरक्षण के खिलाफ आंदोलनरत थे। बाद में वे थान हार गये, पर पहले वे गज फाड़ने को तैयार नहीं थे। यदि 1990 में बिहार में आरक्षण का उस तरह अतार्किक विरोध नहीं हुआ होता तो लालू प्रसाद का दल 15 साल तक सत्ता में नहीं बना रहता। कांग्रेस के पूर्व विधायक हरखू झा अब भी यह कहते हैं कि ‘सुरेंद्र जी तब आरक्षण विरोधियों से कहा करते थे कि गज नहीं फाड़ोगे तो थान हारना पड़ेगा।’

प्रश्न - आपका लेखन इन दिनों नीतीश सरकार के पक्ष में एकतरफा लगता है। यह किसी पत्रकार के लिए अच्छा नहीं माना जाता। इस पर आपकी क्या राय है ? क्या नीतीश जी सारे काम ठीक ही कर रहे हैं ?

उत्तर - इस आरोप को एक हद तक में स्वीकरता हूं। हालांकि यह पूरी तरह सच नहीं है। नीतीश कुमार की सरकार की कुछ गलत नीतियों की मैंेने लिखकर समय-समय पर आलोचना की है। आगे भी यह स्वतंत्रता मैं अपने पास रिजर्व रखता हूं क्योंकि न तो मैंने खुद को कभी किसी के यहां गिरवी रखा है और न ही ऐसा कोई इरादा है। जब जीवन के कष्टपूर्ण क्षण मैंेने काट लिए तो अब किसी से किसी तरह के समझौते की जरूरत ही कहां है?यदि मैं किसी लाभ या लोभ के चक्कर में किसी सरकार या नेता का विरोध या समर्थन करूं तो जरूर मेरे नाम पर थूक दीजिएगा। पर यदि देश और प्रदेश के व्यापक हित में ऐसा करता हूं तो उसे उसी संदर्भ में देखनेे की जरूरत है।मैं पूछता हूं कि आजादी की लड़ाई के दिनों में क्या भारतीय पत्रकारों से यह सवाल पूछा जाता था कि आप आजादी की लड़ाई के पक्ष में एकतरफा क्यों हैं ? आज देश व प्रदेश में उससे मिलती-जुलती स्थिति है।खतरे उससे कई मामलों में अधिक गंभीर हैं। खतरा लोकतांत्रिक व्यवस्था की समाप्ति का है। खतरा अलोकतांत्रिक अतिवाद व आतंकवाद के काबिज हो जाने का है। इन दोनों खतरों को हमारे देश व प्रदेश के कुछ खास नेतागण अपने स्वार्थ में अंधा होकर जाने अनजाने आमंत्रित कर रहे हैं। इस स्थिति में जो नेता सुशासन लाने की कोशिश कर रहा है, जो नेता भ्रष्टाचार के खिलाफ कड़े कदम उठाना चाहता है और भरसक उठा भी रहा है। और जो नेता सांप्रदायिक मसलों पर संतुलित रवैया अपनाता है, वही इन खतरों से सफलतापूर्वक लड़ भी सकता है। वैसे नेताओं के प्रति पक्षधरता दिखाना ही आज देशहित व राज्यहित है। लोकतंत्र बना रहेगा तभी तो स्वतंत्र प्रेस भी रहेगा।

सुरेन्द्र जी से पूरी बातचीत के लिए इस लिंक पर जाएँ..

पत्रकारिता के 40 साल पूरे कर चुके वरिष्ठ पत्रकार सुरेंद्र किशोर से ‘ ‘प्रभात खबर ’ की बातचीत

अब फैसला आप सभी को सुनाना है..क्या बिहार के पत्रकार वाकई बिक गए हैं...क्या नीतीश ने बिहार में विकास नहीं किया...क्या बिहार की छवि उभरी नहीं है?

शुक्रवार, मई 28, 2010

वेद प्रताप वैदिक को दिलीप मंडल की चुनौती

डॉ. वेदप्रताप वैदिक 'जनगणना से जात हटाओ' आंदोलन' चला रहे हैं..इस लिहाज से वे अपने लेख के माध्यम से जनगणना से जात हटाने के लिए कई ऐसे तर्क दे रहे हैं..जिस कुछ मानुष सहमती जता रहे हैं तो कुछ उन्हें चुनौती दे रहे हैं..बीते दिन वैदिक जी ने एक लेख मेल पर भेजा था जिसे हमने अपने बहस जातिवाद का जहर में शामिल किया था..शायद इसी तरह का एक लेख विस्‍फोट डॉट कॉम पर भी पोस्ट किया गया था...जिसे लेकर पत्रकार दिलीप मंडल मोहल्ला लाइव पर वेद प्रताप जी को जेनरल नॉलेज सुधारने की नसीहत दे रहे हैं

आपकी सुविधा के लिए लिंक दिया जा रहा है..

Link http://mohallalive.com/2010/05/29/please-update-your-general-knowledge/

जनगणना से जात क्यों हटायें?

पिछले पोस्ट में प्रो डी प्रेमपति, मस्तराम कपूर, राजकिशोर, उर्मिलेश, प्रो चमनलाल, नागेंदर शर्मा, जयशंकर गुप्ता, डा निशात कैसर, श्रीकांत और दिलीप मंडल द्वारा सयुंक्त रूप से जारी किये गए लेख में जाति आधारित जनगणना के पक्ष में बहस छिड़ी थी. अब वेदप्रताप जी के तर्क को जानते हैं कि क्यों जनगणना में जाति शब्द हटा दिया जाए...

जनगणना से जात हटाओ
- डॉ. वेदप्रताप वैदिक
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तर्क यह दिया जाता है कि अगर हम दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों को आरक्षण देते रहना चाहते हैं तो जन-गणना में जाति का हिसाब तो रखना ही होगा उसके बिना सही आरक्षण की व्यवस्था कैसे बनेगी ? हॉं, यह हो सकता है कि जिन्हें आरक्षण नहीं देना है, उन सवर्णों से उनकी जात न पूछी जाए लेकिन इस देश में मेरे जैसे भी कई लोग हैं, जो कहते हैं कि मेरी जात सिर्फ हिंदुस्तानी है और जो जन्म के आधार पर दिए जानेवाले हर आरक्षण के घोर विरोधी हैं उनकी मान्यता है कि जन्म याने जाति के आधार पर दिया जानेवाला आरक्षण न केवल राष्ट्र-विरोधी है बल्कि जिन्हें वह दिया जाता है, उन व्यक्तियों और जातियों के लिए भी विनाशकारी है इसीलिए जन-गणना में से जाति को बिल्कुल उड़ा दिया जाना चाहिए यदि 2010 की इस जनगणना में जाति को जोड़ा जाएगा तो वह बिल्कुल निरर्थक होगा क्योंकि आरक्षण की सीमा उच्चतम न्यायालय ने पहले ही बांध रखी है 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण किसी भी हालत में नहीं दिया जा सकता यदि आरक्षितों की संख्या 1931 के मुकाबले अब बढ़ गई हो तो भी उनको कोई फायदा नहीं मिलेगा और कुल जनसंख्या के अनुपात में अगर वह घट गई हो तो हमारे देश के नेताओं में इतनी हिम्मत नहीं कि आरक्षण के प्रतिशत को वे घटवा सकें इसलिए प्रश्न उठता है कि जनगणना में जाति को घसीट कर लाने से किसको क्या फायदा होनेवाला है ?
जाति पर आधारित आरक्षण ने गरीबों और वंचितों का सबसे अधिक नुकसान किया है आदिवासियों, दलितों और पिछड़ों को आरक्षण से क्या मिलता है ? सिर्फ नौकरियाँ ! 5-7 हजार लोगों के मुंह में सरकारी नौकरियों की चूसनी (लॉलीपॉप) रखकर देश के 60 करोड़ से ज्यादा वंचितों के मुंह पर ताले जड़ दिए गए हैं उनके विशेष अवसर, विशेष सुविधा और विशेष सहायता के द्वार बंद कर दिए गए हैं उन्हें खोलना बहुत जरूरी है क्या 5 हजार रेवडि़याँ बांट देने से 60-70 करोड़ वंचितों के पेट भर जाएंगे? आरक्षण न सिर्फ उनके पेट पर लात मारता है बल्कि उनके सम्मान को भी चोट पहुंचाता है जो अपनी योग्यता से भी चुनकर आते हैं, उनके बारे में भी मान लिया जाता है कि वे आरक्षण (कोटे) के चोर दरवाज़े से घुस आए हैं हमारे नेताओं ने जाति को आरक्षण का सबसे सरल आधार मान लिया था लेकिन अब वह सबसे जटिल आधार बन गया है अभी आरक्षण का आधार बहुत संकरा है, उसे बहुत चौड़ा करना जरूरी है जाति का आधार सिर्फ हिन्दुओं पर लागू होता है इसके कारण हमारे देश के मुसलमानों और ईसाइयों में जो वंचित लोग हैं, उनको भी बड़ा नुकसान हुआ है जिसे जरूरत थी, उसे रोटी नहीं मिली और जिसके पास जात थी, वह मलाई ले उड़ा
जन-गणना में जाति का समावेश किसने किया, कब से किया, क्यों किया, क्या यह हमें पता है ? यह अंग्रेज ने किया, 1871 में किया और इसलिए किया कि हिंदुस्तान को लगातार तोड़े रखा जा सके 1857 की क्रांति ने भारत में जो राष्ट्रवादी एकता पैदा की थी, उसकी काट का यह सर्वश्रेष्ठ उपाय था कि भारत के लोगों को जातियों, मजहबों और भाषाओं में बांट दो मज़हबों और भाषाओं की बात कभी और करेंगे, फिलहाल जाति की बात लें अंग्रेज के आने के पहले भारत में जाति का कितना महत्व था ? क्या जाति का निर्णय जन्म से होता था ? यदि ऐसा होता तो दो सौ साल पहले तक के नामों में कोई जातिसूचक उपनाम या 'सरनेम' क्यों नहीं मिलते ? राम, कृष्ण, शिव, विष्णु, महेश, बुद्घ, महावीर किसी के भी नाम के बाद शर्मा, वर्मा, सिंह या गुप्ता क्यों नहीं लगता ? कालिदास, कौटिल्य, बाणभट्रट, भवभूति और सूर, तुलसी, केशव, कबीर, बिहारी, भूषण आदि सिर्फ अपना नाम क्यों लिखते रहे ? इनके जातिगत उपनामों का क्या हुआ ? वर्णाश्रम धर्म का भ्रष्ट होना कुछ सदियों पहले शुरू जरूर हो गया था लेकिन उसमें जातियों की सामूहिक राजनीतिक चेतना का ज़हर अंग्रेजों ने ही घोला अंग्रेजों के इस ज़हर को हम अब भी क्यों पीते रहना चाहते हैं ? मज़हब के ज़हर ने 1947 में देश तोड़ा, भाषाओं का जहर 1964-65 में कंठ तक आ पहुंचा था और अब जातियों का ज़हर 21 वीं सदी के भारत को नष्ट करके रहेगा जन-गणना में जाति की गिनती इस दिशा में बढ़नेवाला पहला कदम है इसीलिए हमारे संविधान निर्माताओं और आजाद भारत की पहली सरकार ने जनगणना में से जाति को बिल्कुल हटा दिया था
1931 में आखिर अंग्रेज 'सेंसस कमिश्नर' जे.एच. हट्टन ने जनगणना में जाति को घसीटने का विरोध क्यों किया था ? वे कोरे अफसर नहीं थे वे प्रसिद्घ नृतत्वशास्त्री भी थे उन्होंने बताया कि हर प्रांत में हजारों-लाखों लोग अपनी फर्जी जातियॉं लिखवा देते हैं ताकि उनकी जातीय हैसियत ऊँची हो जाए कुछ जातियों के बारे में ऐसा भी है कि एक प्रांत में वे वैश्य है तो दूसरे प्रांत में शूद्र एक प्रांत में वे स्पृश्य हैं तो दूसरे प्रांत में अस्पृश्य ! हर जाति में दर्जनों से लेकर सैकड़ों उप-जातियॉं हैं और उनमें भी ऊँच-नीच का झमेला है 58 प्रतिशत जातियॉ तो ऐसी हैं, जिनमें 1000 से ज्यादा लोग ही नहीं हैं उन्हें ब्राह्रमण कहें कि शूद्र, अगड़ा कहें कि पिछड़ा, स्पृश्य कहें कि अस्पृश्य - कुछ पता नहीं आज यह स्थिति पहले से भी बदतर हो गई है, क्योंकि अब जाति के नाम पर नौकरियॉं, संसदीय सीटें, मंत्री और मुख्यमंत्री पद, नेतागीरी और सामाजिक वर्चस्व आदि आसानी से हथियाएं जा सकते हैं लालच बुरी बलाय ! लोग लालच में फंसकर अपनी जात बदलने में भी संकोच नहीं करते सिर्फ गूजर ही नहीं हैं, जो 'अति पिछड़े' से 'अनुसूचित' बनने के लिए लार टपका रहे हैं, उनके पहले 1921 और 1931 की जन-गणना में अनेक राजपूतों ने खुद को ब्राह्रमण, वैश्यों ने राजपूत और कुछ शूद्रों ने अपने आप को वैश्य और ब्राह्रमण लिखवा दिया जिन स्त्री और पुरूषों ने अंतरजातीय विवाह किया है, उनकी संतानें अपनी जात क्या लिखेगी ? जनगणना करने वाले कर्मचारियों के पास किसी की भी जात की जाँच-परख करने का कोई पैमाना नहीं है हर व्यक्ति अपनी जात जो भी लिखाएगा, उसे वही लिखनी पड़ेगी वह कानूनी प्रमाण भी बनेगी कोई आश्चर्य नहीं कि जब आरक्षणवाले आज़ाद भारत में कुछ ब्राह्रमण अपने आप को दलित लिखवाना पसंद करें बिल्कुल वैसे ही जैसे कि जिन दलितों ने अपने आप को बौद्घ लिखवाया था, आरक्षण से वंचित हो जाने के डर से उन्होंने अपने आप को दुबारा दलित लिखवा दिया यह बीमारी अब मुसलमानों और ईसाइयों में भी फैल सकती है आरक्षण के लालच में फंसकर वे इस्लाम और ईसाइयत के सिद्घांतों की धज्जियां उड़ाने पर उतारू हो सकते हैं जाति की शराब राष्ट्र और मज़हब से भी ज्यादा नशीली सिद्घ हो सकती है
आश्चर्य है कि जिस कांग्रेस के विरोध के कारण 1931 के बाद अंग्रेजों ने जन-गणना से जाति को हटा दिया था और जिस सिद्घांत पर आज़ाद भारत में अभी तक अमल हो रहा था, उसी सिद्घांत को कांग्रेस ने सिर के बल खड़ा कर दिया है कांग्रेस जैसी महान पार्टी का कैसा दुर्भाग्य है कि आज उसके पास न तो इतना सक्षम नेतृत्व है और न ही इतनी शक्ति कि वह इस राष्ट्रभंजक मांग को रद्द कर दे उसे अपनी सरकार चलाने के लिए तरह-तरह के समझौते करने पड़ते हैं भाजपा ने अपने बौद्घिक दिग्भ्रम के ऐसे अकाट्य प्रमाण पिछले दिनों पेश किए हैं कि जाति के सवाल पर वह कोई राष्ट्रवादी स्वर कैसे उठाएगी आश्चर्य तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मौन पर है, जो हिंदुत्व की ध्वजा उठाए हुए है लेकिन हिंदुत्व को ध्वस्त करनेवाले जातिवाद के विरूद्घ वह खड़गहस्त होने को तैयार नहीं है समझ मे नहीं आता कि वर्ग चेतना की अलमबरदार कम्युनिस्ट पार्टियों को हुआ क्या है ? उन्हें लकवा क्यों मार गया है ? सबसे बड़ी विडंबना हमारे तथाकथित समाजवादियों की है कार्ल मार्क्स कहा करते थे कि मेरा गुरू हीगल सिर के बल खड़ा था मैंने उसे पाव के बल खड़ा कर दिया है लेकिन जातिवाद का सहारा लेकर लोहिया के चेलों ने लोहियाजी को सिर के बल खड़ा कर दिया है लोहियाजी कहते थे, जात तोड़ो उनके चेले कहते हैं, जात जोड़ो नहीं जोड़ेंगे तो कुर्सी कैसे जुड़ेगी ? लोहिया ने पिछड़ों को आगे बढ़ाने की बात इसीलिए कही थी कि समता लाओ और समता से जात तोड़ो रोटी-बेटी के संबंध खोलो जन-गणना में जात गिनाने से जात टूटेगी या मजबूत होगी ? जो अभी अपनी जात गिनाएंगे, वे फिर अपनी जात दिखाएंगे कुर्सियों की नई बंदर-बांट का महाभारत शुरू हो जाएगा जातीय ईर्ष्या का समुद्र फट पड़ेगा आजाद भारत के इतिहास में यह पहला मौका है कि जब सारे राजनीतिक दल एक तरफ हैं और भारत की जनता दूसरी तरफ ! इस मुद्दे पर भारत के करोड़ों नागरिक जब तक बगावत की मुद्रा धारण नहीं करेंगे, हमारे नेता निहित स्वार्थों में डूबे रहेंगे जो लोग अपने व्यक्तिगत और पारिवारिक जीवन में जाति के जाल में फंसे रहना चाहते हैं, फंसे रहें लेकिन राष्ट्र के राजनीतिक जीवन में से जाति का पूर्ण बहिष्कार होना चाहिए
दलितों , आदिवासियों, पिछड़ों, ग्रामीणों, गरीबों को आगे बढ़ाने का अब एक ही तरीका है सिर्फ शिक्षा में आरक्षण हो, पहली से 10 वीं कक्षा तक आरक्षण का आधार सिर्फ आर्थिक हो जन्म नहीं, कर्म ! आरक्षण याने सिर्फ शिक्षा ही नहीं, भोजन, वस्त्र्, आवास और चिकित्सा भी मुफ्त हो प्रत्येक व्यक्ति शिक्षा के माध्यम से सक्षम बने और जीवन में जो कुछ भी प्राप्त करे, वह अपने दम-खम से प्राप्त करे यह विशेष अवसर के सिद्घांत का सर्वश्रेष्ठ अमल है इस व्यवस्था में जिसको जरूरत है, वह छूटेगा नहीं और जिसको जरूरत नहीं है, वह घुस नहीं पाएगा, उसकी जात चाहे जो हो जात पर आधरित नौकरियों का आरक्षण चाहे तो अभी कुछ साल और चला लें लेकिन उसे समाप्त तो करना ही है जात घटेगी तो देश बढ़ेगा वोट-बैंक की राजनीति को बेअसर करने का एक महत्वपूर्ण तरीका यह भी है कि देश में मतदान को अनिवार्य बना दिया जाए जन-गणना से जाति को हटाना काफी नहीं है, जातिसूचक नामों और उपनामों को हटाना भी जरूरी है जातिसूचक नाम लिखनेवालों के चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध होना चाहिए उन्हें सरकारी पदों और नौकरियों से वंचित किया जाना चाहिए यदि मजबूर सरकार के गणक लोगों से उनकी जाति पूछें तो वे या तो मौन रहें या लिखवाऍं – ‘मैं हिंदुस्तानी हूं’ हिंदुस्तानी के अलावा मेरी कोई जात नहीं है
(लेखक, 'जनगणना से जात हटाओ' आंदोलन के सूत्रधार हैं)

गुरुवार, मई 27, 2010

ब्लॉग लेखन : हिंदी का अहित करने वाला अश्लील कर्म ?

आज कथाक्रम पत्रिका का अप्रैल-जून अंक पढ़ रहा था..पत्रिका के संपादक शैलेन्द्र सागर जी ने वर्तमान अंक में ब्लॉग की विसंगतियों पर "ब्लॉग पर कुछ ट्वीटिंग" शीर्षक से सम्पादकीय लिखा है. सम्पादकीय पढने से यही मालूम होता है कि ब्लॉग लेखन सागर जी के लिए पहले एक गंभीर रचनाकर्म था..पर अब कतिपय ब्लॉग पर विचरने के बाद यह उनके लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आढ़ में हिंदी का अहित करने वाला अश्लील कर्म है. आपकी सुविधा के लिए नीचे लिंक दिया जा रहा है आप कथाक्रम के साईट पर जाकर सीधा इस लेख को पढ़ सकते है...
http://www.kathakram.in/may/sampadakiya.pdf

बुधवार, मई 26, 2010

जनगणना में जातियों की गिनती के पक्ष में हम क्यों हैं?

मोहल्ला लाइव पर संयुक्त रूप से जारी किये गए इस लेख पर लाइव बहस छिड़ी हुई है. चुकी अभी देश में हाऊसिंग सेन्सस किया जा रहा है और फिर तुरंत बाद जनगणना किया जायेगा... लिहाजा सवाल यह उठाया जा रहा है कि जनगणना में हम जातियों की गिनती के पक्ष में क्यों हैं..? इस पर तमाम ज्ञानियों और बुद्धिजीवियों ने बहस छेड़ रखी...बता दे कि उसका सच ने भी जातिवाद का जहर नाम से एक बहस छेड़ रखी है... सो पेश है देश के कुछ जमीन से जुड़े पत्रकारों की राय और हम आभारी हैं मोहल्ला लाइव के..
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देश में 80 साल बाद एक बार फिर से जाति-आधारित जनगणना की संभावना बन रही है। संसद के बजट सत्र के दूसरे चरण की अंतिम बैठकों में जनगणना में अनुसूचित जाति-जनजाति और धार्मिक समुदायों की तरह अन्य जातियों की भी गणना किये जाने की पुरजोर ढंग से मांग उठी। बहस के दौरान इस पर सदन में लगभग सर्वानुमति सी बन गयी, जिसकी सरकार ने कल्पना तक नहीं की थी। सभी प्रमुख दलों के सांसदों ने माना कि जाति भारतीय समाज की एक ऐसी सच्चाई है, जिससे भागकर या नजरें चुराकर जातिवाद जैसी बुराई का खात्मा नहीं किया जा सकता है। सामाजिक न्‍याय, एफर्मेटिव एक्शन और सामाजिक समरसता के लिए जाति-समुदायों से जुड़े ठोस आंकड़ों और सही कार्यक्रमों की जरूरत है। यह तभी संभव होगा, जब जनगणना के दौरान जातियों की स्थिति के सही और अद्यतन आंकड़े सामने आएं।

पता नहीं क्यों, ससंद और उसके बाहर सरकार द्वारा इस बाबत दिये सकारात्मक आश्वासन और संकेतों के बाद कुछ लोगों, समूहों और मीडिया के एक हिस्से में जाति-आधारित जनगणना की धारणा का विरोध शुरू हो गया। हम ऐसे लोगों और समूहों के विरोध-आलोचना का निरादर नहीं करते। लोकतंत्र में सबको अपनी आवाज रखने का अधिकार है। पर ऐसे मसलों पर सार्थक बहस होनी चाहिए, ठोस तर्क आने चाहिए। किसी संभावित प्रक्रिया के बारे में जल्दबाजी में निष्कर्ष निकालने और फतवे देने का सिलसिला हमारे लोकतंत्र को मजबूत नहीं करेगा। सरकार पर एकतरफा ढंग से दबाव बनाने की ऐसी कोशिश जनता के व्यापक हिस्से और संसद में उभरी सर्वानुमति का भी निषेध करती है। बहरहाल, हम जाति-आधारित जनगणना पर हर बहस के लिए तैयार हैं। अब तक उठे सवालों की रोशनी में जाति-गणना से जुड़े कुछ उलझे सवालों पर हम संक्षेप में अपनी बात रख रहे हैं -
(1) जनगणना में अनुसूचित जाति-जनजाति और धार्मिक-समूहों की गिनती हमेशा से होती आ रही है। सन 1931 और उससे पहले की जनगणनाओं में हर जाति-समुदाय की गिनती होती थी। सन 1941 में दूसरे विश्वयुद्ध के चलते भारतीय जनगणना व्यापक पैमाने पर नहीं करायी जा सकी और इस तरह जातियों की व्यापक-गणना का सिलसिला टूट गया। आजादी के बाद भारत सरकार ने तय किया कि अनुसूजित जाति-जनजाति के अलावा अन्य जातियों की गणना न करायी जाए। पिछली जनगणना में भी ऐसा ही हुआ, सिर्फ एससी-एसटी और प्रमुख धार्मिक समुदायों की गणना की गयी थी। पर इसके लिए कोई ठोस तर्क नहीं दिया गया कि अनुसूचित जाति-जनजाति और धार्मिक समूहों की गणना के साथ अन्य जातियों की गिनती कराने में क्या समस्या है। हमें लगता है कि आज संसद में बनी व्यापक सहमति के बाद वह वक्त आ गया है, जब जनगणना के दौरान फिर से सभी जातियों-समुदायों की गिनती करायी जाए। सिर्फ ओबीसी नहीं, अन्य सभी समुदायों को भी इस गणना में शामिल किया जाए। भारतीय समाज के समाजशास्त्रीय-नृतत्वशास्त्रीय अध्ययन के सिलसिले में भी जनगणना से उभरी सूचनाएं बेहद कारगर और मददगार साबित होंगी।
(2) समाज को बेहतर, सामाजिक-आर्थिक रूप से उन्नत और खुशहाल बनाने के लिए शासन की तरफ से सामाजिक न्याय, समरसता और एफर्मेटिव-एक्शन की जरूरत पर लगातार बल दिया जा रहा है। ऐसे में सामाजिक समूहों, जातियों और विभिन्न समुदायों के बारे में अद्यतन आंकड़े और अन्य सूचनाएं भी जरूरी हैं। जातियों की स्थिति को भुलाने या उनके मौजूदा सामाजिक-अस्तित्व को इंकार करने से किसी मसले का समाधान नहीं होने वाला है।
(3) कुछेक लोगों और टिप्पणीकारों ने आशंका प्रकट की है कि जाति-गणना से समाज में जातिवाद और समुदायों के बीच परस्पर विद्वेष बढ़ जाएगा। यह आशंका इसलिए निराधार है कि अब तक अनुसूचित जाति-जनजाति और धार्मिक समूहों की गिनती होती आ रही है, पर इस वजह से देश के किसी भी कोने में जातिगत-विद्वेष या धार्मिक-सांप्रदायिक दंगे भड़कने का कोई मामला सामने नहीं आया। जातिवाद और सांप्रदायिक दंगों के लिए अन्य कारण और कारक जिम्मेदार रहे हैं, जिसकी समाजशास्त्रियों, मीडिया और अन्य संस्थानों से जुड़े विशेषज्ञों ने लगातार शिनाख्त की है।
(4) जनगणना की प्रक्रिया और पद्धति पर सवाल उठाते हुए कुछेक क्षेत्रों में सवाल उठाये गये हैं कि आमतौर पर जनगणना में शिक्षक भाग लेते हैं। ऐसे में वे जाति की गणना में गलतियां कर सकते हैं। यह बेहद लचर तर्क है। जनगणना में आमतौर पर जो शिक्षक भाग लेते हैं, वे स्थानीय होते हैं। जाति-समाज के बारे में उनसे बेहतर कौन जानेगा।
(5) कुछेक टिप्पणीकारों ने यह तक कह दिया कि दुनिया के किसी भी विकसित या विकासशील देश में जाति, समुदाय, नस्ल या सामाजिक-धार्मिक समूहों की गणना नहीं की जाती। अब इस अज्ञानता पर क्या कहें। पहली बात तो यह कि भारत जैसी जाति-व्यवस्था दुनिया के अन्य विकसित देशों में नहीं है। पर अलग-अलग ढंग के सामाजिक समूह, एथनिक ग्रुप और धार्मिक भाषाई आधार पर बने जातीय-समूह दुनिया भर में हैं। ज्यादातर देशों की जनगणना में बाकायदा उनकी गिनती की जाती है। अमेरिका की जनगणना में अश्वेत, हिस्पैनिक, नैटिव इंडियन और एशियन जैसे समूहों की गणना की जाती है। विकास कार्यक्रमों के लिए इन आंकड़ों का इस्तेमाल भी कियाजाता है। यूरोप के भी अनेक देशों में ऐसा होता है।
(6) एक तर्क यह भी दिया जा रहा है कि जनगणना तो अब शुरू हो गयी है, ऐसे में जाति की गणना इस बार संभव नहीं हो सकेगी। मीडिया के एक हिस्से में भी इस तरह की बातें कही गयीं। पर इस तरह के तर्क जनगणना संबंधी बुनियादी सूचना के अभाव में या लोगों के बीच भ्रम फैलाने के मकसद से दिये जा रहे हैं। जनगणना कार्यक्रम के मौजूदा दौर में अभी मकानों-भवनों आदि के बारे में सूचना एकत्र की जा रही है। आबादी के स्वरूप और संख्या आदि की गणना तो अगले साल यानी 2011 के पहले तिमाही में पूरी की जानी है। इसके लिए फरवरी-मार्च के बीच का समय तय किया गया है। ऐसे में जाति-गणना की तैयारी के लिए अभी पर्याप्त वक्त है।
(7) जनगणना में अनुसूचित जाति-जनजाति और धार्मिक समुदायों की गणना पहले से होती आ रही है। इस बार से अन्य सभी जातियों, समुदायों और धार्मिक समूहों की गणना हो। इससे जरूरी आंकड़े सामने आएंगे। इन सूचनाओं से समाज को बेहतर, संतुलित और समरस बनाने के प्रयासों को मदद मिलेगी।
(प्रो डी प्रेमपति, मस्तराम कपूर, राजकिशोर, उर्मिलेश, प्रो चमनलाल, नागेंदर शर्मा, जयशंकर गुप्ता, डा निशात कैसर, श्रीकांत और दिलीप मंडल द्वारा जारी आलेख)

जातिवाद

सत्रह तारीख़ को
इसी बगीचे में
फिरंगियों की गोलियों से
गणेश और सलीम
एक साथ शहीद हुए
तब उनकी जाति
शहीदों की थी
उनका धर्म आज़ादी था
मरने पर हमने बनाई
एक समाधि
और एक क़ब्र
और शहीदों को तब्दील कर दिया
हिन्दू और मुसलमान में .

- मनोहर बाथम

शनिवार, मई 22, 2010

जातिवाद का जहर - जनगणना और जाति की जटिलताएं

- श्रीकांत
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'कहत भिखारी नाई,
कवन करीं उपाई।
मुंहवा के तोहरे दुलरवा हो बबुआ,
कुतुबपुर हउवे ग्राम, रामजी संवार काम,
जाति के हजाम जिला छपरा हो बबुआ।’


इस गीत में भिखारी ठाकुर ने अपने नाम के साथ जाति और गांव को भी बताया है। लोकगायकों द्वारा लोकगीतों के माध्यम से अपना परिचय देना एक लोकप्रिय विधि रही है। सिर्फ यही नहीं कि यह पहचान के साथ जुड़ा हुआ है।
जाति की पहचान तो भाषा की पहचान। ज्ञान की बात होगी तो वर्चस्व की बात होगी। आरक्षण की बात होगी तो उसके विरोध की बात होगी। जाति की बात होगी तो जाति तोड़ने की बात होगी। यह एक जागृत और खुले समाज को रेखांकित करता है। जातियां जन समुदायों को संगठित भी करती हैं और मौका पड़ने पर जातियों के खोल से बाहर निकलकर उसे तोड़ती भी है। विविध और बहुलता वाले समाज में दोनों साथ-साथ चलते रहते हैं।
लालू प्रसाद यादव जैसे बड़े समुदाय वाले नेता को तीन-चार प्रतिशत आबादी वाले समुदाय के नेता नीतीश कुमार ने मात दी । मायावती ने मुलायम सिंह यादव को सत्ता से बेदखल किया। यह किसी खास समुदाय के आरक्षण के कारण नहीं हुआ। वास्तव में जातियां समाज की जड़ ईकाई नहीं, गतिशील ईकाई होती हैं। अन्यथा आज बिहार और उत्तर प्रदेश की राजनीति में लालू-मुलायम को सत्ता में होना चाहिए था।
जातियों की भूमिका राजनीतिक गोलबंदी में होती है, साथ ही साथ इससे अन्य जातियों के बीच समानता और सम्मान का संबंध भी विकसित होता है। निश्चय ही ब्राह्माण और दलित का एक साथ मिलकर वोट देना या उनका राज करना यही बताता है। यह सत्ता के संघर्ष को तीखा करता है तो समाज के जनतंत्रीकरण में भूमिका भी अदा करता है।
जाति आधार पर जनगणना 1931 के बाद पहली बार 2011 में होगी। इस पर बहस का दौर भी शुरू हो गया है। जाति उन्मूलन की बात होगी, तो भारतीयता का बोध कराया जाएगा। कोई इस फैसले को पुरातनपंथी करार करेगा। पर यह सच है कि जाति है। और यह भी सच है कि जातियां टूट भी रही हैं।
दोनों ही सच है और इससे मुंह चुराने और भागने से काम शायद ही चले। देश के सोलह मेट्रो की तरह तो नहीं, लेकिन बिहार जैसे सामंती व पिछड़े राज्य में आपको पचासों यूक्रेनी बहुएं मिल जाएंगी और अन्तरजातीय शादियां आराम से होती हैं, पर शादी पर बवाल की हजारों घटनाएं भी मिल जाएंगी। इसका अर्थ यह नहीं कि जातियों और समुदायों के बारे में उनकी शिक्षा-दीक्षा के बारे में, रहन-सहन के बारे में नई जानकारियां नहीं चाहिएं। समाजशास्त्रीय अध्ययन नहीं होना चाहिए। यह जनगणना से संभव हो पाएगा।
नई अस्मिताओं का नया दावा होगा। छोटी उपजातियों की अपनी मांग होगी। भारत की यही खूबी है कि कोई मांग करेगा कि इसमें जो भारतीय लिखना चाहते हैं उनके लिए भारतीय कॉलम होना चाहिए। कोई यह कह सकता है कि वह जाति को नहीं मानता है। इसका सम्मान किया जाना चाहिए।
भारत में जाति जनगणना 1871 में शुरू हुई थी, लेकिन इसके करीब 500 वर्ष पहले मिथिला के कवि शेखराचार्य ज्योतिरीश्वर ठाकुर रचित वर्ण रत्नाकर में 205 समुदायों का वर्णन मिलता है। वैसे भारत में वैदिक काल से लेकर आज के पीपुल्स ऑफ इंडिया प्रोजेक्ट तक जातियों का श्रेणीकरण होता रहा है। ऋग्वेद में वर्णों के अतिरिक्त कम से कम छह व्यवसाय और शिल्प से संबंधित छह समुदायों का जिक्र मिलता है।
मनु ने छह अनुलोम, छह प्रतिलोम और 20 मिश्रित जातियों के साथ 23 व्यवसायों की, याज्ञवलक्य ने चार वर्णों के अतिरक्ति 13 अन्य जातियों की तथा उशना ने 40 जातियों और उनके व्यवसायों की चर्चा की है। सभी स्मृतियों की तालिका में कम से कम 100 जातियों के नाम सामने आते हैं। डॉ. पांडुरंग वामण काणे ने ईसा पूर्व 500 से 1000 ई. के बीच स्मृतियों तथा अन्य धर्मशास्त्र ग्रंथों में वर्णित 155 जातियों की सूची दी है।
वैसे 1871 के जनगणना के समय ही क्षत्रिय होने के सबसे अधिक दावे होने लगे। इस दावे में विभिन्न जातियां अपने को अपने सामाजिक सोपान से ऊपर दिखाना चाहती थीं। यादव, कुर्मी, दुसाध, कहार समुदाय के लोग अपने को क्षत्रिय घोषित करने लगे थे। कुछ जाति समुदायों ने अपने नाम के आगे शर्मा लगाया। कुछ जातियों को अपराधी जाति घोषित कर दिया गया था।
बिहार और उत्तर प्रदेश में तो जनेऊ पहनने का आंदोलन और नाम के आगे सिंह लगाने का आंदोलन चला। श्रेष्ठ जाति की सूची में शामिल करने के लिए आवेदन पर आवेदन दिए जाने लगे। जनगणना से जातियों की संख्या का पता चला तो विभिन्न क्षेत्रों में नौकरियों की मांग जोर पकड़ने लगी। जातियों की पहचान और उनके श्रेणीकरण की समय-समय पर जरूरत भी इसीलिए भी पड़ी कि जातियां भारतीय समाज में जड़ श्रेणियां नहीं रही हैं। नई-नई जतियां, उपजातियां बनती रहीं और नई पुरानी जातियों की सामाजिक सोपान में स्थिति भी बदलती रही।
तब का समाज कृषि समाज था और पिछड़ों से जाति लगान लिया जाता था। बेगार खटाया जाता था। तरह-तरह के जुल्म होते थे। यह गरीब पिछड़े हुए समुदायों की आर्थिक मांग भी थी। ऐसे में सिंह का लगाना और अपने को क्षत्रिय घोषित करना प्रतिकार भी था। सतीनाथ भादुड़ी के उपन्यास ‘ ढ़ोढाय चरित्र मानस’ में उनका एक पात्र कहता है- इसी जिले के चार कोस दूरी के ततमा लोग के माथे पर जनेऊ लेने से बज्जर नहीं गिरा है, तब हम क्यों नहीं जनेऊ लेंगे?
लेकिन आज जनेऊ की बात नहीं होती है। आज बात होती है कि अमुक जाति को निम्न श्रेणी में शामिल किया जाए। 2011 की जनगणना में कुछ जाति समुदाय यह मांग करने लगे कि वे अमुक जाति में नहीं हैं, उन्हें तो शूद्र में शुमार किया जाना चाहिए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। आरक्षण का लाभ भी तो है।
बिहार जैसे राज्य में तो पिछड़ा वर्ग आयोग और अति पिछड़ी जाति आयोगों से लगातार इस तरह की मांग होती रही है और अनेकों जातियों को एनेक्सर दो से निकाल कर एनेक्सर एक में शामिल किया गया है। खरवार और लोहार जाति को आदिवासी में शामिल करने की मांग हो रही है तो झारखंड के घटवाल समुदाय के लोग भी यही मांग कर रहे हैं। कुछ जातियां तो खुद को आदिवासी होने का दावा कर रही हैं। गुज्जर समुदायों को एसटी में शामिल गया। पसमांदा तबके के लिए आरक्षण की व्यवस्था हो रही है। कहने की जरूरत नहीं है कि नई जनगणना में नई अंस्मिताओं का नया दावा होगा और नयी हलचल पैदा होगी।

लेखक हिंदुस्तान, पटना में विशेष संवाददाता हैं

(Source: live Hindustan.com)

शुक्रवार, मई 21, 2010

जातिवाद का जहर : दुनिया के जातिवादी एक हों

जातिवाद पर विवाद कोई नया नहीं है..मंडल के कमंडल से लेकर अब तक, जाति आधारित राजनीति खूब हुई..कईयों ने तो इस राजनीति का जमकर फायदा उठाया और आज नेताजी बन बैठे हैं..या उनके शब्दों में कह लीजिये जनता के सेवक बन बैठे हैं..उसका सच "जातिवाद का जहर" सीरिज से एक बहस शुरू करने जा रहा है..हो सकता है इस बहस से कुछ सार्थक विचार निकले. इस सीरिज में देश के सभी पत्रकारों और लेखकों के लेख आमंत्रित है...आप अपना बेबाक लेख saurabh.swatantra@gmail.com पर सीधा मेल कर सकते हैं...पेश है जातिवाद का जहर-1 में आई.बी.एन. 7 के प्रबंध संपादक आशुतोष के विचार:
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दुनिया के जातिवादी एक हों

मंडल कमीशन लागू ही हुआ था। अचानक मुझे अपने दोस्तों में कुछ बदलाव दिखाई पड़े। दोस्तों के नाम के आगे कुछ नए नाम चस्पा होने लगे। किसी के आगे 'यादव' जुड़ गया तो किसी के आगे 'मिश्रा'। जोरशोर से प्रचार भी होने लगा कि वो अमुक जाति के हैं। मुझे भी अपनी जाति पता थी। लेकिन ये वो लोग थे जो काफी समय से कैंपस में रह रहे थे और हमेशा प्रगतिशील राजनीति के बारे में ही बातें किया करते थे। इन लोगों के लिये जाति समाज को तोड़ने वाली चीज थी। इनकी नजर में 'क्लास' यानी 'वर्ग' ही महत्वपूर्ण था। ये अपने आप को मार्क्सवादी कहते थे और सीपीएम, सीपीआई और कुछ दूसरी रेडिकल लेफ्टवादी पार्टियों की छात्र शाखा के सक्रिय सदस्य थे।
मुझ में जितनी समझ थी उसके मुताबिक मैंने मंडल कमीशन का विरोध करने की ठानी। बहुत सारे उच्च जाति के साथी साथ हो लिये। मैं कहता था कि ये जाति व्यवस्था ही गड़बड़ है इसलिये हमें मंडल का नहीं पूरी जाति आधारित राजनीति का विरोध करना चाहिये क्योंकि मंडल से जातिवाद का जहर और फैलेगा। आरक्षण की जगह सबको सरकार की तरफ से बराबर का मौका मिलना चाहिये और बराबर की सुविधाएं दी जानी चाहिये और जो पिछड़े हैं उनकी पढ़ाई-लिखाई के लिये विशेष इंतजाम होने चाहिये ताकि वो दूसरों के साथ बराबरी से कंपीट कर सके। इस बीच मैंने अपने आंदोलनकारियों के सामने एक प्रस्ताव रखा कि हमें जाति सूचक शब्दों का त्याग कर एक नयी शुरुआत करनी चाहिये। जातिवादी सरनेम हमेशा के लिये छोड़ देने चाहिये। अगले दिन मैं तय समय पर पंहुचा। काफी देर तक इंतजार किया कोई नहीं आया। मैं अकेला ही था। मैंने अपने नाम के आगे जातिवादी सरनेम हटा लिया। बाद में मित्रों से पूछा कि उस संकल्प का क्या हुआ जो हमने कल लिया था। सबने एक स्वर में कहा 'पागल हो कोई अपनी जाति छोड़ता है'।
मुझे एक हफ्ते में दूसरी बार जेएनयू जैसे प्रगतिशील, आधुनिक समाज में जाति की ताकत का एहसास हुआ। इसके बाद फिर कभी मैंने जाति को कम कर आंकने की गुस्ताखी नहीं की। ये वो वक्त था जब देश की राजनीति में मंदिर के साथ-साथ मंडलवादी राजनीति अपने पूरे उफान पर थी। लालू यादव, मुलायम सिंह यादव, शरद यादव, नीतीश कुमार, रामविलास पासवान अचानक देश की राजनीति पर धूमकेतु की तरह उभर आये। हालांकि मंडल कमीशन वी पी सिंह ने लागू किया था, देवीलाल को नीचा दिखाने के लिये। लोगों ने ये सोचा कि वी पी सिंह अब पिछड़ी जाति के नये मसीहा बन कर उभरेंगे और पहले से ज्यादा ताकतवर हो जायेंगे।
लेकिन ऐसा हुआ नहीं। जाति अगर सच्चाई है तो पिछड़ों और दलितों की नुमाइंदगी वी पी सिंह नहीं लालू, मुलायम और पासवान ही करेंगे, ऐसा मेरा सोचना था। और हुआ भी यही जिस शख्स की वजह से पिछड़ों को आरक्षण मिला था उसे इतिहास के कूड़ेदान में फेंक दिया गया और लालू, मुलायम और पासवान नये जननायक बन गये। लालू को सबसे ज्यादा फायदा हुआ। क्योंकि जातिवाद का सबसे अधिक भावनात्मक दोहन उन्होंने किया। लालू ने खुलेआम भूरे बाल यानी ऊंची जातियों को साफ करने का ऐलान किया था। इस जातिवादी राजनीति की लगाम थाम उनकी पार्टी पंद्रह साल तक बिहार में गद्दी पर काबिज रही। उनको हटाया भी तो एक पिछड़ी जाति के नेता नीतीश कुमार ने ही। जगन्नाथ मिश्रा जैसे तपे तपाये ब्राह्मण नेता की जमीन ऐसी गोल हुई कि आज भी कोई ऊंची जाति का नेता मुख्यमंत्री बनने के बारे में नहीं सोच सकता।
पड़ोस के उत्तर प्रदेश में भी सत्ता मुलायम, कल्याण और मायावती के बीच ही डोलती रही। हालांकि कुछ समय के लिये समझौते के तौर पर राम प्रकाश गुप्ता जरूर मुख्यमंत्री बने थे लेकिन वो भी बीजेपी की वजह से अपने कारण से नहीं। आज मंडल के बीस साल बाद, देश की राजनीति पूरी तरह से बदल जाने के बाद भी लालू, मुलायम, मायावती को नकार के कम से कम यूपी बिहार में काम नहीं चल सकता है और न ही उनकी सहमति के बगैर केंद्र में सरकार रह सकती है। ऐसे में सवाल ये उठता है कि जाति के आधार पर होने वाली जनगणना का विरोध क्यों किया जा रहा है? क्यों हम ये दुहाई दे रहे हैं कि इस के बाद देश में जातिवाद और बढ़ेगा? कहीं इसके पीछे भी तो वही ऊंची जाति की सोच काम नहीं कर रही?
हम लालू, मुलायम, मायावती को गाली जरूर देते हैं लेकिन आज भी हम भारतीय बाद में हैं और तिवारी, कुर्मी, बनिया और जाटव पहले हैं। चुनाव में टिकट देना हो या फिर चुनावी रणनीति बनाना हो एक-एक क्षेत्र के मुहल्ले और टोले की जातियों का पोस्टमार्टम किया जाता है। उनकी संख्या का आकलन होता है, फिर चुनाव जीतने की बात की जाती है। इस देश में चुनाव सबसे बड़ा "जातिवादी आयोजन" या मेला है। जाति आधारित जनगणना का विरोध करने के पहले हमें चुनाव पर बैन लगाने की मांग करनी चाहिये? क्या हममें इतना नैतिक साहस है?
चुनाव और नेताओं को क्यों दोष देते हैं? जेएनयू का अनुभव न भी होता तो भी मुझे ये कहने में जरा भी संकोच नहीं होता कि हम भारतीय दुनिया के सबसे बड़े हिप्पोक्रेट हैं। वामपंथी हो या फिर समाजवादी, पिछड़ावादी हो या फिर अगड़वादी, कांग्रेसी हो या फिर बीजेपी वाला, वैज्ञानिक हो या फिर साहित्यकार, इंजीनियर हो या फिर डॉक्टर सभी अपने बेटे-बेटियों की शादी के समय अपनी जाति में वर या वधू की तलाश करते हैं। अगर रिश्तेदारों में नहीं मिलता तो अखबार में बेशर्मी से विज्ञापन देकर अपनी और अपने बेटे-बेटियों की जाति की गोत्र समेत नुमाइश करते हैं और लेकिन जब कहने को आता है तो चौड़े हो कर कहते हैं "आई एम नाट कास्टिस्ट" ।
मैं आज भी ऐसे पढ़े-लिखे परिवारों को जानता हूं जिनके बेटे-बेटियों ने अगर अपनी जाति से अलग निचली जाति में शादी की तो उनके परिवार से संबंध तोड़ लिये गये। तो फिर जाति आधारित जनगणना का विरोध करने के पहले ऐसे समाज पर बैन लगाने की बात हम क्यों नही करते? जातियों में ही शादी करने वालों का क्यों बहिष्कार नहीं करते? अगर नहीं कर सकते तो हमें इस जनगणना का विरोध करने का अधिकार नहीं है? और न सिर्फ लालू, मुलायम, मायावती और पासवान को जातिवादी कहने का हक है। क्योंकि ये इसी जातिवाद का परिणाम है कि कोडरमा की निरुपमा को मौत को गले लगाना पड़ता है। जो ऑनर किलिंग करते हैं वही जातिवादी नहीं हैं। जातिवाद हमारे खून में हैं और इसलिये आओ हम खुल कर बिना संकोच कहें जातिवाद जिंदाबाद।
(from IBN7 blog)

लड़की और सपने

- सीमा स्वधा

मत निहार/ऐ लड़की
उन्मुक्त क्षितिज को,
इस पार से उस पार तक
जो स्वप्निल फैलाव है
मत बाँध/ख़ुद को
उन्मुक्तता के आकर्षण में
कि/ क़तर दिए जायेंगे
तेरे पर/ गर तू
चिडिया होना चाहती है
और / बंद कर दिए जायेंगे
हर सुराख़/ गर तू
हवा होना चाहती है।अल्हड उम्र है तेरी/ ठीक है
देख सपने/ जितना जी चाहे
पर/ मत भूल
कि जन्मी है तू
एक पर्म्पराबध घर की चार दीवारी में
कि / कैद कर दिया जायेगा
रौशनी का हर कतरा
गर तू/दीया होना चाहती है
और पट दिया जाएगा
आसमान/ गर तू
धूप होना चाहती है।
इसलिए / गर तुझे होना है
चिडिया /धूप / हवा/ रौशनी
रोप अपने मन में
आत्म शक्ति का बीज
अंकुरने दे/ स्वाभिमान का पौधा
और भर पांवों में/ संघर्ष की शक्ति
कि आयेंगे जाने कितने अंधड़
परम्पराओं के/ आभावों के
वरना / नाकाम जिंदगी की
अगली कड़ी भी तुझे ही होना है
एक कुंठित और मुखर औरत...!

सिक्वेल : अब नीतीश-2 की जरुरत

संजय उपाध्याय. पेशे से पत्रकार.. एक बड़े अख़बार में. पत्रकारिता से समय निकाल अब ब्लॉग जगत में आखर खाट से कदम रखा है..कल मै उनके ब्लॉग पर विचर रहा था तो मुझे एक बेहतरीन स्क्रिप्ट पढने को मिली...एकदम जीवंत...मुझे लगता है आप सभी को भी यह स्क्रिप्ट पढ़नी चाहिए...सो, पेश है - बिहार, विकास, विश्वास और नीतीश...

स्टार्ट लेता हूं बिहार की एक ऐसी पंचायत से जहां कल तक भूख थी, बेकारी थी, गरीबी थी। इसी खाई को पाटने के लिए बिहार सरकार ने राज्य की कुछ चुनिंदा पंचायतों को आदर्श पंचायत का दर्जा दिया। उन्हीं में से एक है राज्य के पश्चिम चम्पारण जिला के रामनगर प्रखंड की बगही पंचायत। दरअसल यह एक ऐसी पंचायत है, जिसने शायद कभी न तो विकास का रंग देखा और नहीं किसी विश्वास का पात्र बन पाया। वजह अब से एक दशक पहले तक तो यहां सड़क दलदल जमीन पर थी। चाहकर भी कोई कुछ नहीं कर पाता था। गांव में कोई बीमार पड़ता था तो इलाज के चार लोग मिलते थे और खाट पर लादकर सालम आदमी डाक्टर के पास ले जाया जाता था। परंतु, अब फिजा थोड़ी बदली है। यहां तक आने के लिए पक्की सड़क बन गई है। इस सड़क पर जुगाड़ (पटवन की मशीन से बना वाहन) के साथ-साथ माडा योजना के तहत दिए गए वाहन भी सवारी (आदमी) ढोते हैं। गांव के बगल में स्कूल खुले हैं और बच्चे पढऩे लगे हैं। गांव में डीलर राशन व केरोसिन देता है। परंतु, आज भी यहां गरीबी का स्थाई डेरा है। बात विकास के बूते जनता के दिल में उगे विश्वास के पेड़ की थी, सो उसकी हरियाली को मापने का मन बनाया बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने। अंदर ही अंदर तैयारी की और विकास की सड़क पर विश्वास के सफर पर निकल गए। उन्होंने अपनी विश्वासी यात्रा की शुरूआत की इसी पंचायत से। तारीख 29 अप्रैल दिन गुरुवार। लंबी जद्दोजहद कड़ी सुरक्षा और सरकारी तंत्र द्वारा बनाई गई विकास के हेलीपैड (रामबाग, सखुआनी) पर नीतीश का आर्यन (हेलीकाप्टर) उतरा। फिर बांस-बल्ला का बैरियर और नीतीश के विश्वास में द्वंद हुई और वे अचानक एम्बैसडर कार से नीचे उतर गए। फिर हाकिम परेशान। मीडिया परेशान। गांव के लोग भी परेशानी में अपनी समस्या को लेकर। खैर नीतीश का विश्वासी सफर का सीन बड़ा रोमांचक।


सीन वन :- डीलर कृष्णा प्रसाद की दुकान। अंदर घुसे। जांच किया। बाहर निकले पूछा- इहवां राशन-केरोसिन मिलेला। पात्र चंद्रिका महतो। जवाब-मिलेला।

सीन टू:- एक बिना छत का मकान। बड़ेरी पर बांस, पर छप्पर अधूरा। इसी में खड़े हो गए सीएम। लोगों की खचाखच भीड़। पूछा किसका घर है। जवाब मेरा है। पर यहां सिस्टम का लोचा फंसा। दरअसल वह घर इंदिरा आवास था। ललिता देवी के नाम का। पूछा काहे अधूरा है घर। जवाब- बन जाएगा। कार्ड मंगाया कुल निकासी 34,500। दरअसल एक ही परिवार की सास-बहू के नाम से आवंटन था और घर बन रहा था।

सीन थ्री :- टाट से घिरा एक आंगन। अमेरिका साह का। इसे भी इंदिरा आवास मिला था। बिना पास बुक का बस पंद्रह हजार। उसके बाद सब बंद। डीएम व बीडीओ तलब जांच का आदेश।

सीन चार :- गांव से बाहर घोड़हिया टोला उत्क्रमित मध्य विद्यालय। बिना छप्पर के ओसारे में अचानक सीएम खड़े हुए। आवाज दी अंजनी बाबू (शिक्षा विभाग के प्रधान सचिव)। वे आए बात की। इतने में शिक्षक सुभाष काजी से पूछा बच्चे। जवाब-हैं। फिर सीएम शिक्षक के तौर पर बच्चों से मिले। पाकशाला देखी और चले गांव में बने मंच की ओर।

लास्ट सीन :- मंच से सब ठीक करने को कहा। कहा विश्वास जगा है। विकास हो रहा है। बच्चे पढ़ रहे हैं। आगे मौका मिला तो और बेहतर होगा। बहुत बातें कि लोगों से आवेदन भी लिए और फिर चले गए। सच मानिए बगही में आज भी नीतीश की याद है और इंतजार उसी विकास का है, जिसकी सड़क पर नीतीश ने विश्वास का सफर तय किया। अर्थात् अभी कुछ शेष है, जिसे पूरा करने के लिए फिर सत्ता में आना होगा वरना बिहार की जनता...!

वह मारा जाएगा

(निरुपमा कांड के खिलाफ मशहूर संस्कृतिकर्मी अश्विनी कुमार पंकज की कविता)


देहरी लांघो
लेकिन धर्म नहीं
क्योंकि यही सत्य है
पढ़ो
खूब पढ़ो
लेकिन विवेक को मत जागृत होने दो
क्योंकि यही विष (शिव) है
हँसो
जितना जी चाहे
जिसके साथ जी चाहे
पर उसकी आवाज से
देवालयों की मूर्तियों को खलल ना पड़े
क्योंकि यही सुंदर है
याद रखो
देहरी ही सत्य है
अज्ञान ही शिव है
धर्म ही सुंदर है
सत्यं शिवं सुंदरम का अर्थ
प्रेम नहीं है
जो भी इस महान अर्थ को
बदलना चाहेगा
वह मारा जायेगा
चाहे वह मेरा ही अपना लहू क्यों न हो...

(rejectmaal.blogspot.com)


रोमांस की नई उड़ान काइट्स

मुख्य कलाकार : रितिक रोशन, बारबरा मोरी, कंगना रनौत, कबीर बेदी आदि


निर्देशक : अनुराग बसु

तकनीकी टीम : निर्माता- राकेश रोशन, सुनयना रोशन, कथा- अनुराग बसु, आकाश खुराना, रोबिन भट्ट,

गीत - नासिर फराज, आसिफ अली बेग,

संगीत- राजेश रोशन

रितिक रोशन बौर बारबरा मोरी की काइट्स के रोमांस को समझने के लिए कतई जरूरी नहीं है कि आप को हिंदी, अंग्रेजी और स्पेनिश आती हो। यह एक भावपूर्ण फिल्म है। इस फिल्म में तीनों भाषाओं का इस्तेमाल किया गया है और दुनिया के विभिन्न हिस्सों के दर्शकों का खयाल रखते हुए हिंदी और अंग्रेजी में सबटाइटल्स दिए गए हैं। अगर आप उत्तर भारत में हों तो आपको सारे संवाद हिंदी में पढ़ने को मिल जाएंगे। काइट्स न्यू एज हिंदी सिनेमा है। यह हिंदी सिनेमा की नई उड़ान है। फिल्म की कहानी पारंपरिक प्रेम कहानी है, लेकिन उसकी प्रस्तुति में नवीनता है। हीरो-हीरोइन का अबाधित रोमांस सुंदर और सराहनीय है। काइट्स विदेशी परिवेश में विदेशी चरित्रों की प्रेमकहानी है।
जे एक भारतवंशी लड़का है। वह आजीविका के लिए डांस सिखाता है और जल्दी से जल्दी पैसे कमाने के लिए नकली शादी और पायरेटेड डीवीडी बेचने का भी धंधा कर चुका है। उस पर एक स्टूडेंट जिना का दिल आ जाता है। पहले तो वह उसे झटक देता है, लेकिन बाद में जिना की अमीरी का एहसास होने के बाद दोस्ती गांठता है। प्रेम का नाटक करता है। वहीं उसकी मुलाकात नताशा से होती है। नताशा के व्यक्तित्व और सौंदर्य से वह सम्मोहित होता है। नताशा भी पैसों के चक्कर में जिना के भाई टोनी से शादी का फरेब रच रही है। दोनों एक-दूसरे से यह राज जाहिर करते हैं तो उनके बीच का रोमांस और गहरा हो जाता है। जे और नताशा का रोमांस दोनों भाई-बहनों को नागवार गुजरता है। उसके बाद आरंभ होती है चेजिंग, एक्शन और भागदौड़। जे और नताशा साथ होने की हर संभव कोशिश करते हैं। शादी रचाते हैं, लेकिन उनके दुश्मनों को यह सब मंजूर नहीं। वे उनकी जान के पीछे पड़े हैं। फिल्म का क्लाइमेक्स अवसाद पैदा करता है।
अनुराग बसु की गैंगस्टर और मैट्रो देख चुके दर्शकों को इस फिल्म में भी उनकी शैली की झलक मिलेगी। अनुराग बसु की फिल्मों में विशाल दुनिया में दो प्रेमियों की अंतरंगता अनोखे तरीके से चित्रित की जाती है। हर फिल्म में उनका सिग्नेचर शॉट रहता है, जिसमें हीरो-हीरोइन छत पर बैठे अपने प्रेम के भरपूर एहसास में डूब कर दुनिया से बेपरवाह हो जाते हैं। उस क्षण उन्हें भविष्य की चिंता नहीं रहती। रोमांस का यह आवेश कम फिल्मकार चित्रित कर पाते हैं। काइट्स में रितिक रोशन और बारबरा मोरी के केमिस्ट्रिी में रोमांस की शारीरिकता भी व्यक्त हुई है। हिंदी फिल्मों के प्रचलित रोमांस में आलिंगनबद्ध प्रेमी-प्रेमिका भी एक-दूसरे से खिंचे-खिंचे नजर आते हैं। काइट्स के रोमांस में शरीर अड़चन नहीं है। रितिक रोशन की मेहनत और बारबरा मोरी की स्वाभाविकता से हमें काइट्स में नए किस्म का रोमांस दिखता है। रोमांस के साथ ही फिल्म का एक्शन निराला है। रितिक रोशन एक्शन दृश्यों में विश्वसनीय लगते हैं। डांसर रितिक रोशन के प्रशंसकों को इस फिल्म में भी कुछ नए स्टेप्स मिल जाएंगे। नए लोकेशन की खूबसूरती फिल्म की सुंदरता बढ़ाती है। काइट्स में निर्देशक ने स्थानीय प्राकृतिक संपदाओं का प्रासंगिक उपयोग किया है। सिनेमैटोग्राफी फिल्म के प्रभाव में इजाफा करती है। फिल्म का संगीत कमजोर है। अगर परिवेश और आधुनिकता का खयाल रखते हुए संगीत में नई ध्वनियां सुनाई पड़तीं तो ज्यादा मजा आता। काइट्स हिंदी फिल्मों की संक्राति (ट्रांजिशन) के दौर का सिनेमा है। यह नए सिनेमा का स्पष्ट संकेत देती है और पारंपरिक हिंदी फिल्मों की खूबियों को समाहित कर प्रयोग कराती है। फिल्म में मिश्रित भाषा का प्रयोग अनूठा है।
*** तीन स्टार
-अजय ब्रह्मात्मज (www.jagran.com)

गुरुवार, मई 20, 2010

उड़ जा रे पतंगा....काइट्स !



कल काइट्स की रीलीज है.
देखना यह है कि ऋतिक अपने इस पतंग को उड़ाने में सफल हो पते हैं या नहीं.
शुभकामनाये...

स्वयं प्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती

हिमाद्रि तुंग शृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती
स्वयं प्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती
'अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ़- प्रतिज्ञ सोच लो,
प्रशस्त पुण्य पंथ है, बढ़े चलो, बढ़े चलो!'

असंख्य कीर्ति-रश्मियाँ विकीर्ण दिव्य दाह-सी
सपूत मातृभूमि के- रुको न शूर साहसी!
अराति सैन्य सिंधु में, सुवाड़वाग्नि से जलो,
प्रवीर हो जयी बनो - बढ़े चलो, बढ़े चलो!

- जयशंकर प्रसाद की एक रचना

धुपवा में चिल्ड मुर्गा


तीन-चार दिन से इ कार्टून दिमाग में घिरनी कि तरह नाच रहा था।
बर्दाश्त के बहार हुआ तो उड़ेल दिया ब्लोगवा पर...आखिर पवनवा
के कार्टून के ज़माना मुरीद बा। साभार बा: हिंदुस्तान अख़बार से।

हर तरफ धुआं है

हर तरफ धुआं है
हर तरफ कुहासा है
जो दांतों और दलदलों का दलाल है
वही देशभक्त है

अंधकार में सुरक्षित होने का नाम है-
तटस्थता। यहां
कायरता के चेहरे पर
सबसे ज्यादा रक्त है।
जिसके पास थाली है
हर भूखा आदमी
उसके लिए, सबसे भद्दी
गाली है

हर तरफ कुआं है
हर तरफ खाईं है
यहां, सिर्फ, वह आदमी, देश के करीब है
जो या तो मूर्ख है
या फिर गरीब है..


- सुदामा पाण्डेय धूमिल
(09 नवंबर 1936 - 10 फरवरी 1975)

मेरी जात है, सिर्फ हिंदुस्तानी !

- डॉ. वेदप्रताप वैदिक

अगर हम दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों को आरक्षण देत रहना चाहते हैं तो जन-गणना में जाति का हिसाब तो रखना ही होगा उसके बिना सही आरक्षण की व्यवस्था कैसे बनेगी ? हॉं, यह हो सकता है कि जिन्हें आरक्षण नहीं देना है, उन सवर्णों से उनकी जात न पूछी जाए लेकिन इस देश में मेरे जैसे भी कई लोग हैं, जो कहते हैं कि मेरी जात सिर्फ हिंदुस्तानी है और जो जन्म के आधार पर दिए जानेवाले हर आरक्षण के घोर विरोधी है उनकी मान्यता है कि जन्म याने जाति के आधार पर दिया जानेवाला आरक्षण न केवल राष्ट्र-विरोधी है बल्कि जिन्हें वह दिया जाता है, उन व्यक्तियों और जातियों के लिए भी विनाशकारी है इसीलिए जन-गणना में से जाति को बिल्कुल उड़ा दिया जाना चाहिए
जन-गणना में जाति का समावेश किसने किया, कब से किया, क्यों किया, क्या यह हमें पता है ? यह अंग्रेज ने किया, 1871 में किया और इसलिए किया कि हिंदुस्तान को लगातार तोड़े रखा जा सके 1857 की क्रांति ने भारत में जो राष्ट्रवादी एकता पैदा की थी, उसकी काट का यह सर्वश्रेष्ठ उपाय था कि भारत के लोगों को जातियों, मजहबों और भाषाओं में बांट दो मज़हबों और भाषाओं की बात कभी और करेंगे, फिलहाल जाति की बात लें अंग्रेज के आने के पहले भारत में जाति का कितना महत्व था ? क्या जाति का निर्णय जन्म से होता था ? यदि ऐसा होता तो दो सौ साल पहले तक के नामों में कोई जातिसूचक उपनाम या 'सरनेम' क्यों नहीं मिलते ? राम, कृष्ण, शिव, विष्णु, महेश, बुद्घ, महावीर किसी के भी नाम के बाद शर्मा, वर्मा, सिंह या गुप्ता क्यों नहीं लगता ? कालिदास, कौटिल्य, बाणभट्रट, भवभूति और सूर, तुलसी, केशव, कबीर, बिहारी, भूषण आदि सिर्फ अपना नाम क्यों लिखते रहे ? इनके जातिगत उपनामों का क्या हुआ ? वर्णाश्रम धर्म का भ्रष्ट होना कुछ सदियों पहले शुरू जरूर हो गया था लेकिन उसमें जातियों की सामूहिक राजनीतिक चेतना का ज़हर अंग्रेजों ने ही घोला अंग्रेजों के इस ज़हर को हम अब भी क्यों पीते रहना चाहते हैं ? मज़हब के ज़हर ने 1947 में देश तोड़ा, भाषाओं का जहर 1964-65 में कंठ तक आ पहुंचा था और अब जातियों का ज़हर 21 वीं सदी के भारत को नष्ट करके रहेगा जन-गणना में जाति की गिनती इस दिशा में बढ़नेवाला पहला कदम है
1931 में आखिर अंग्रेज 'सेंसस कमिश्नर' जे.एच. हट्टन ने जनगणना में जाति को घसीटने का विरोध क्यों किया था ? वे कोरे अफसर नहीं थे वे प्रसिद्घ नृतत्वशास्त्री भी थे उन्होंने बताया कि हर प्रांत में हजारों-लाखों लोग अपनी फर्जी जातियॉं लिखवा देते हैं ताकि उनकी जातीय हैसियत ऊँची हो जाए हर जाति में दर्जनों से लेकर सैकड़ों उप-जातियॉं हैं और उनमें ऊँच-नीच का झमेला है 58 प्रतिशत जातियॉ तो ऐसी हैं, जिनमें 1000 से ज्यादा लोग ही नहीं हैं उन्हें ब्राह्रमण कहें कि शूद्र, अगड़ा कहें कि पिछड़ा, स्पृश्य कहें कि अस्पृश्य - कुछ पता नहीं आज यह स्थिति पहले से भी बदतर हो गई है, क्योंकि अब जाति के नाम पर नौकरियॉं, संसदीय सीटें, मंत्री और मुख्यमंत्री पद, नेतागीरी और सामाजिक वर्चस्व आदि आसानी से हथियाएं जा सकते हैं लालच बुरी बलाय ! लोग लालच में फंसकर अपनी जात बदलने में भी संकोच नहीं करते सिर्फ गूजर ही नहीं हैं, जो 'अति पिछड़े' से 'अनुसूचित' बनने के लिए लार टपका रहे हैं, उनके पहले 1921 और 1931 की जन-गणना में अनेक राजपूतों ने खुद को ब्राह्रमण, वैश्यों ने राजपूत और कुछ शूद्रों ने अपने आप को वैश्य और ब्राह्रमण लिखवा दिया कोई आश्चर्य नहीं कि जब आरक्षणवाले आज़ाद भारत में कुछ ब्राह्रमण अपने आप को दलित लिखवाना पसंद करें बिल्कुल वैसे ही जैसे कि जिन दलितों ने अपने आप को बौद्घ लिखवाया था, आरक्षण से वंचित हो जाने के डर से उन्होंने अपने आप को दुबारा दलित लिखवा दिया यह बीमारी अब मुसलमानों और ईसाइयों में भी फैल सकती है आरक्षण के लालच में फंसकर वे इस्लाम और ईसाइयत के सिद्घांतों की धज्जियां उड़ाने पर उतारू हो सकते हैं जाति की शराब राष्ट्र और मज़हब से भी ज्यादा नशीली सिद्घ हो सकती है
आश्चर्य है कि जिस कांग्रेस के विरोध के कारण 1931 के बाद अंग्रेजों ने जन-गणना से जाति को हटा दिया था और जिस सिद्घांत पर आज़ाद भारत में अभी तक अमल हो रहा था, उसी सिद्घांत को कांग्रेस ने सिर के बल खड़ा कर दिया है कांग्रेस जैसी महान पार्टी का कैसा दुर्भाग्य है कि आज उसके पास न तो इतना सक्षम नेतृत्व है और न ही इतनी शक्ति कि वह इस राष्ट्रभंजक मांग को रद्द कर दे उसे अपनी सरकार चलाने के लिए तरह-तरह के समझौते करने पड़ते हैं भाजपा ने अपने बौद्घिक दिवालिएपन के ऐसे अकाट्रय प्रमाण पिछले दिनों पेश किए हैं कि जाति के सवाल पर वह कोई राष्ट्रवादी स्वर कैसे उठाएगी आश्चर्य तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मौन पर है, जो हिंदुत्व की ध्वजा उठाए हुए है लेकिन हिंदुत्व को ध्वस्त करनेवाले जातिवाद के विरूद्घ वह खड़गहस्त होने को तैयार नहीं है सबसे बड़ी विडंबना हमारे तथाकथित समाजवादियों की है कार्ल मार्क्स कहा करते थे कि मेरा गुरू हीगल सिर के बल खड़ा था मैंने उसे पाव के बल खड़ा कर दिया है लेकिन जातिवाद का सहारा लेकर लोहिया के चेलों ने लोहियाजी को सिर के बल खड़ा कर दिया है लोहियाजी कहते थे, जात तोड़ो उनके चेले कहते हैं, जात जोड़ो नहीं जोड़ेंगे तो कुर्सी कैसे जुड़ेगी ? लोहिया ने पिछड़ों को आगे बढ़ाने की बात इसीलिए कही थी कि समता लाओ और समता से जात तोड़ो रोटी-बेटी के संबंध खोलो जन-गणना में जात गिनाने से जात टूटेगी या मजबूत होगी ? जो अभी अपनी जात गिनाएंगे, वे फिर अपनी जात दिखाएंगे कुर्सियों की नई बंदर-बांट का महाभारत शुरू हो जाएगा जातीय ईष्या का समुद्र फट पड़ेगा
दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों, ग्रामीणों, गरीबों को आगे बढ़ाने का अब एक ही तरीका है सिर्फ शिक्षा में आरक्षण हो, पहली से 10 वीं कक्षा तक आरक्षण का आधार सिर्फ आर्थिक हो जन्म नहीं, कर्म ! आरक्षण याने सिर्फ शिक्षा ही नहीं, भोजन, वस्त्र्, आवास और चिकित्सा भी मुफ्त हो इस व्यवस्था में जिसको जरूरत है, वह छूटेगा नहीं और जिसको जरूरत नहीं है, वह घुस नहीं पाएगा, उसकी जात चाहे जो हो जात घटेगी तो देश बढ़ेगा जन-गणना से जाति को हटाना काफी नहीं है, जातिसूचक नामों और उपनामों को हटाना भी जरूरी है जातिसूचक नाम लिखनेवालों को सरकारी नौकरियों से वंचित किया जाना चाहिए यदि मजबूर सरकार के गणक लोगों से उनकी जाति पूछें तो वे या तो मौन रहें या लिखवाऍं - मैं हिंदुस्तानी हूं हिंदुस्तानी के अलावा मेरी कोई जात नहीं है
Dainik bhaskar (11th may)

मंगलवार, मई 18, 2010

बस्तर की कोयल रोई क्यों ?

बस्तर के जंगलों में नक्सलियों द्वारा निर्दोष पुलिस के जवानों के नरसंहार पर कवि संजीव ठाकुर की संवेदना व पीड़ा उभरकर सामने आई है

बस्तर की कोयल रोई क्यों ?
अपने कोयल होने पर, अपनी कूह-कूह पर
बस्तर की कोयल होने पर

सनसनाते पेड़
झुरझुराती टहनियां
सरसराते पत्ते
घने, कुंआरे जंगल,
पेड़, वृक्ष, पत्तियां
टहनियां सब जड़ हैं,
सब शांत हैं, बेहद शर्मसार है
बारूद की गंध से, नक्सली आतंक से
पेड़ों की आपस में बातचीत बंद है,
पत्तियां की फुस-फुसाहट भी शायद,
तड़तड़ाहट से बंदूकों की
चिड़ियों की चहचहाट
कौओं की कांव कांव,
मुर्गों की बांग,
शेर की पदचाप,
बंदरों की उछलकूद
हिरणों की कुलांचे,
कोयल की कूह-कूह
मौन-मौन और सब मौन है
निर्मम, अनजान, अजनबी आहट,
और अनचाहे सन्नाटे से !
आदि बालाओ का प्रेम नृत्य,
महुए से पकती, मस्त जिंदगी
लांदा पकाती, आदिवासी औरतें,
पवित्र मासूम प्रेम का घोटुल,
जंगल का भोलापन
मुस्कान, चेहरे की हरितिमा,
कहां है सब
केवल बारूद की गंध,
पेड़ पत्ती टहनियाँ
सब बारूद के,बारूद से, बारूद के लिए
भारी मशीनों की घड़घड़ाहट,
भारी, वजनी कदमों की चरमराहट।
फिर बस्तर की कोयल रोई क्यों ?
बस एक बेहद खामोश धमाका,
पेड़ों पर फलो की तरहलट
के मानव मांस के लोथड़े
पत्तियों की जगह पुलिस की वर्दियाँ
टहनियों पर चमकते तमगे और मेडल
सस्ती जिंदगी, अनजानों पर न्यौछावर
मानवीय संवेदनाएं,
बारूदी घुएं परवर्दी,
टोपी, राईफल सब पेड़ों पर फंसी
ड्राईंग रूम में लगे शौर्य चिन्हों की तरह
निःसंग, निःशब्द बेहद संजीदा
दर्द से लिपटी मौत,
ना दोस्त ना दुश्मन
बस देश-सेवा की लगन।
विदा प्यारे बस्तर के खामोश जंगल, अलिवदा
आज फिर बस्तर की कोयल रोई,
अपने अजीज मासूमों की शहादत पर,
बस्तर के जंगल के शर्मसार होने पर
अपने कोयल होने पर,
अपनी कूह-कूह पर
बस्तर की कोयल होने पर
आज फिर बस्तर की कोयल रोई क्यों ?

सोमवार, मई 17, 2010

ताकि सनद रहे!

मैं पूरी ताकत के साथ
शब्दों को फेंकता हूं आदमी की तरफ
यह जानते हुए कि आदमी का कुछ नहीं होगा
मैं भरी सड़क पर सुनना चाहता हूं वह धमाका

जो शब्द और आदमी की टक्कर से पैदा होता है
यह जानते हुए कि लिखने से कुछ नहीं होगा
मैं लिखना चाहता हूं ।

- केदार नाथ सिंह

रविवार, मई 16, 2010

वो भुकड़ी लगी रोटियां

आज पढ़ रहा था
भुकड़ी लगे
रोटियों को,
थोड़ी पिली जरूर
पर शब्दश: सब कुछ
अभी भी लिखा है
उन रोटियों पर
माँ का प्यार और सुझाव,
पिता का स्नेह और
मानी-आर्डर के पावती का जिक्र,
बहन के साथ
झोटा-पकड़ लड़ाई पर
माँ की डांट ,
हर रोटियां
कुछ न कुछ
जरूर कह रही हैं,
उसी में दबा मिला
एक और रोटी
लिफाफे में बंद,
यादे ताज़ा हो गयीं
पहले प्यार की
पहली चिट्ठी से,
मै आज बेहद रोमांचित हूँ
उन चन्द
रोटियों पर पड़े शब्दों को पढ़,

चुक्कड़ की जगह
शीशे की ग्लास में
चाय पीता बलरेज में
मै आज यही सोच रहा हूँ कि
अब रोटियां कहाँ विलुप्त
हो गयीं हैं...
आज क्यों नहीं दस्तक
दे रहे हैं खाखी पहने
झोला टाँगे बाबर्ची,
फास्टफूड के आगे..
अब यादों को फटे लिफाफे
और बंद पेटियों में
सहेजना
मुश्किल ही नहीं नामुमकिन
जान पड़ता है....

- सौरभ के.स्वतंत्र

मंगलवार, मई 11, 2010

बिहार की नदियां सोना उगलती हैं!

मैं उस नदी के तट पर खड़ा हूं जो मुफलिसी के मारे लोगों के लिए सोना उगलती है। अभी नदी में पानी कम है। ज्यादा से ज्यादा घुटने तक। नदी में कुछ लोग मेढ़ बना रहे हैं और कुछ बालू व कंकरीट से सोना निकाल रहे हैं। सहसा किसी को भी भरोसा नहीं होगा कि ऐसी भी नदी होती है, जो सोना उगलती है। पड़ताल की। पता चला कि बिहार के पश्चिम चम्पारण जिलान्तर्गत खैरहनी दोन के कई लोग काठ के डोंगा, ठठरा, पाटा व पाटी के साथ नदी की धारा से सोना निकाल रहे हैं। वह भी सचमुच का। इतने में एक जिगरा के छाल के लेप से लबालब सतसाल की लकड़ी पर कुछ बालू व सोना लिए आया। दिखाते हुए कहता है- साहब यह देखिए यह सोना है और यह है बालू। इसे निकालने की तरकीब। उसने बताया पहले नदी में मेढ़ बांधते हैं। फिर डोगा लगाते हैं। तब उसपर ठठरा रखते है। पत्थर ठठरे के उपर, बालू डोगा के अंदर और फिर बालु की धुलाई। तब बालू सतसाल की काली लकड़ी पर फिर धुलाई तब जाकर दिनभर में निकलता एक से दो रती सोना। इतने पे बात समाप्त नहीं होती। इसके आगे जानिए। सतसाल की पटरी से सोने के कण को उठाकर जंगली कोच के पत्ता पर सोहागा के साथ रखते हैं। आग में तपाते हैं। फिर अंत में लकड़ी के कोयले में बांधते हैं तब जाकर बिक्री लायक हो जाता है यह सोना। दिनभर की कमाई एक से दो रती सोना। यानि बिचौलिए खरीददारों से मिलनेवाले दो सौ या ढाई सौ रुपये। इन गरीबों की पीड़ा- एक तो सरकार की कोई योजना नहीं इस सोने की खातिर। फिर खाकी वाले हाकिमों का खौफ हर पल सताता है। चलिए इनकी मेहनत कहां-कहां बिकती इसे भी जानते हैं। गरीब बताते हैं साहेब- गांव में हीं शेठ साहुकार मिल जाते है और जो दे देते हैं उतने में बेच देते हैं। अर्थात् काफी हद तक कई गांवों के लोगों के लिए यह नदी आर्थिक ताना-बाना बुन सकती है, लेकिन जरुरत एक अदद कुशल योजना की। यहां जानकारी दूं कि हिमालय की तलहटी से निकली यह नदी नेपाल की पहाडिय़ों से होकर बिहार के पश्चिम चम्पारण (बेतिया) जिले के वाल्मीकिनगर में सोनाहां व हरनाटांड़ से लेकर रामनगर प्रखंड के दोन इलाके में कही पचनद तो कहीं हरहा नाम से जानी जाती है। इस नदी के इस सोने के कण को गर्दी दोन, कखैरहनी,कमरछिनवा दोन, पिपरहवा, मजुराहा व वाल्मीकिनगर के अलावा इण्डो-नेपाल बार्डर के सीमावर्ती गांवों के लोगों के लिए कुछ महीने तक के लिए रोजगार देती है। ग्रामीण बताते हैं कि जब खेती का समय नहीं होता। तभी यह सबकुछ चलता है। इसके बाद कुछ भी नहीं।

- संजय उपाध्याय, बगहा, बिहार