सच हम नहीं, सच तुम नहीं, सच है महज संघर्ष ही!

शुक्रवार, अगस्त 14, 2009

हम तो आज भी गुलाम हीं हैं...हमें आजादी कब मिली थी?

हम तो आज भी गुलाम हैं...हमें आजादी कब मिली थी?


ये बात मेरे मन तब उठा जब आज मै स्कूली बच्चो को स्वतंत्रता दिवस की तैयारी में वंदे मातरम गाते सुना...



और मुझे याद आ गया एक विवाद...




दरअसल इसी वंदे मातरम को गाने के लिए अपने हीं देश में कुछ कठमुल्लाओं ने कुछ दिन पहले विवाद शुरू कर दिया था...



जंगे आजादी में प्रेरणा देने वाली हमारे राष्ट्रीय गीत को नहीं गाने का फतवा जारी कर दिया था ..


अब राष्ट्र गीत को गाने में विवाद हो तो क्या यह कहना गलत होगा कि हम तो आज भी गुलाम हैं... पहले अंग्रेजों के थें.....आज धर्मगुरुओं के हैं....


यदि नही तो एक बार मादरे वतन जरूर
गायें

वंदे मातरम


सुजलाम सुफलाम मलयज शीतलाम


शस्य श्यामलाम मातरम


शुभ्र ज्योत्सना पुलकित यामिनी


फुल्ल कुसुमित द्रुमदल शोभिनी


सुहासिनी सुमधुर भाषिनी


सुखदाम वरदाम मातरम


वंदे मातरम ।

गुरुवार, अगस्त 13, 2009

जब लाइफ हो ट्वेंटी-20

कितना अच्छा होता जब इंसान ट्वेंटी-20 की पारी खेल स्वर्ग सिधार जाता। तब बारहवीं से ज्यादा पढ़ने का झंझट ही न होता। बीए-एमबीए की जरूरत ही नहीं पड़ती। हँसते-खेलते जिंदगी की पारी समाप्त होती। न पीड़ा होती, न बीमारी होती। डॉक्टर के पैसे भी बचते। धरती से बोझ जल्दी-जल्दी कम होते। कितने कुंवारे रहते ही अपनी पारी का समापन करते।और गर शादी हो भी जाती तो एक बच्चे से ज्यादा पैदा न होते। धरती पर जनसंख्या नियंत्रित होती।

कितना अच्छा होता जब इंसान ट्वेंटी-20 की पारी खेल स्वर्ग सिधार जाता। तब जिंदगी रफ्तारमय हो जाती। सब कुछ फटाफट होता। न कमाने का झंझट होता। न फाइल लेकर जूते रगड़ने का। बाप के पैसों से ही जिंदगी मस्त कट जाती। न गम होता, न रम होता। कीटनाशक(कोल्ड-ड्रिंक्स) पीकर ही लोंग मस्त रहते। वोडका पीने की भी जरूरत न होती।

कितना अच्छा होता जब इंसान ट्वेंटी-20 की पारी खेल स्वर्ग सिधार जाता। तब इंसान नई नवेली दुल्हन से सिर्फ रोमांस ही करता। क्योंकि, परिवार का बोझ पड़ने से पहले ही पती-पत्नी धरती को बोझमुक्त कर देतें। कितना सुखमय जिंदगी होता।

कितना अच्छा होता जब इंसान ट्वेंटी-20 की पारी खेल स्वर्ग सिधार जाता। तब बीस से पहले ही लोग कवि होते, लेखक होते, पत्रकार होते। तब संपादकीय में जगह पाने के निमित्त बाल उड़ने तक का इंतजार न करना होता।

कितना अच्छा होता जब लाइफ बिंदास ट्वेंटी-20 का होता। तब सचिन व द्रविड़ बुढ़ापे में क्रिकेट न खेलते। युवा खिलाड़ी भी अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट खेलते नजर आते। तब बूढ़ो की टीम आस्ट्रेलिया विश्व चैंपियन न होती। न ही फिल्मों में केवल इमरान हाशमी को चुम्बन का टेंडर मिलता। निशब्द में 60 के बजाय 16 का हिरो होता। एक छोटी सी लव स्टोरी पर तब मुकदमा न होता। लाइफ एकदम बिंदास होता।

कितना अच्छा होता जब इंसान ट्वेंटी-20 की पारी खेल स्वर्ग सिधार जाता। तब स्टींग आपरेशन की जरूरत ही न पड़ती। न ही कोई पत्रकार पकड़ा जाता। न बवाल होता, न ही आगजनी होती। चैनलों पर तब सिर्फ ट्वेंटी-20 लाइफ का महिमामंडन होता।

कितना अच्छा होता जब लाइफ बिंदास ट्वेंटी-20 का होता। तब बूढ़े राजनेताओं की जगह युवा लेते। तब देश का चहुंमुखी विकास होता। न रामसेतु पर बवाल होता। न परमाणु करार पर रार होता और न हीं बोफोर्स में तोप और कट्टा को ले धांधली होती। घोटालों की भी गुंजाइश कम होती। क्योंकि, जिंदगी छोटी होने के कारण पैसे की चिंता कम होती। कितना अच्छा होता जब इंसान ट्वेंटी-20 की पारी खेल स्वर्ग सिधार जाता।

- सौरभ के.स्वतंत्र

मुरलीवाले द्वारा शाश्वत सच की बानगी



यदा यदा ही धर्मस्य ग्लनिर्भवति भारत,
अभ्युत्थानमधर्मस्य स्वात्मानं सृजाम्यहम,
परित्राणाय साधूनाम विनाशाय च दुष्कृताम,
धर्मसंस्थापनार्थाय, संभवामि युगे युगे।

मुरलीवाले का सच

मैं नहीं माखन खायो मैय्या मोरी,

मैं नहीं माखन खायो ।

भोर भयो गऊवन के पीछे,

मधुवन मोहि पठायोरी ।

चार पहर बंशीबन भट्क्यो,

साँझ पडी घर आयोरी ॥

मैं नहीं माखन खायो मैय्या मोरी,

मैं नहीं माखन खायो ।

मै बालक बैयन को छोटो,

छिको किस विध पायोरी ।

ग्वाल बाल सब गैला पडे हैं,

बरबस मुख लिपटायोरी ॥

मैं नहीं माखन खायो मैय्या मोरी,

मैं नहीं माखन खायो ।

इतनी सुनके हंसी यशोदा,

ले उर कंठ लगायोरी ।

सुर श्याम शरणागत तेरी,

चरण कमल चित ल्यायोरी ॥

मैं नहीं माखन खायो मैय्या मोरी,

मैं नहीं माखन खायो ।

बुधवार, अगस्त 12, 2009

लड़की और सपने

मत निहार/ऐ लड़की
उन्मुक्त क्षितिज को,
इस पार से उस पार तक
जो स्वप्निल फैलाव है
मत बाँध/ख़ुद को
उन्मुक्तता के आकर्षण में
कि/ क़तर दिए जायेंगे
तेरे पर/ गर तू
चिडिया होना चाहती है
और / बंद कर दिए जायेंगे
हर सुराख़/ गर तू
हवा होना चाहती है।

अल्हड उम्र है तेरी/ ठीक है
देख सपने/ जितना जी चाहे
पर/ मत भूल
कि जन्मी है तू
एक पर्म्पराबध घर की चार दीवारी में
कि / कैद कर दिया जायेगा
रौशनी का हर कतरा
गर तू/दीया होना चाहती है
और पट दिया जाएगा
आसमान/ गर तू
धूप होना चाहती है।
इसलिए / गर तुझे होना है
चिडिया /धूप / हवा/ रौशनी
रोप अपने मन में
आत्म शक्ति का बीज
अंकुरने दे/ स्वाभिमान का पौधा
और भर पांवों में/ संघर्ष की शक्ति
कि आयेंगे जाने कितने अंधड़
परम्पराओं के/ आभावों के
वरना / नाकाम जिंदगी की
अगली कड़ी भी तुझे ही होना है
एक कुंठित और मुखर औरत...!

- सीमा स्वधा
(संवेद वाराणसी के जनवरी - जून'०६अंक से )

मंगलवार, अगस्त 11, 2009

रोटी और संसद

एक आदमी रोटी बेलता है

एक आदमी रोटी खाता है

एक तीसरा आदमी भी है

जो न रोटी बेलता है,

न रोटी खाता है

वह सिर्फ़ रोटी से खेलता है

मैं पूछता हूं--'यह तीसरा आदमी कौन है ?

'मेरे देश की संसद मौन है।

- सुदामा पाण्डेय धूमिल

सोमवार, अगस्त 10, 2009

एक मिलियन डॉलर जीतने के बाद बधाइयों का ताँता..

मेरे एक मिलियन डॉलर जीतने के बाद ब्लौगरों ने मुझे कुछ इस तरह बधाई दिया था...

दरअसल , मैंने ये बात ब्लौगिस्तान को बताई थी...आपको अभी पता चल रहा है तो नाराज़ नही होंगे..इस लिंक पर क्लिक करेंगे और इस अद्भुत जानकारी का लुत्फ़ उठाएंगे...

लिंक : मै एक मिलियन डॉलर जीत गया..

फिलहाल पेश है मेरे अजीज / खास शुभचिंतको/बधाई देने वालों की यह सूची और उनका बधाई पत्र...

पहला बधाई पत्र
Vivek Rastogi ने कहा…
अगर लुटने से बचना चाहते हैं तो अभी सबसे पहले वह ईमेल चुपचाप से डिलीट कर दीजिये।

अन्य बधाई...

विभाव ने कहा…
विवेक जी ने सही कहा है। डिलीट करने के बाद सभी परिचितों को भी इससे सावधान कीजिए। वरना...............गए बाबू काम से।

मसिजीवी ने कहा…
ऐसी हर मेल के पचास पैसे भी मिलते तो अब तक करोड़पति हो जाते...दिखते ही रिपोर्ट स्‍पैम किया
जाए

राजीव तनेजा ने कहा…
ऐसी दर्जनों मेल तो मेरे पास भी आ चुकी हैँ...अगर नुकसान से बचना चाहते हैँ तो इन्हें चुपचाप डिलीट कर दिया करें


Udan Tashtari ने कहा…
ईमेल में देखना एक डिलिट बटन होता है, वो इसी के लिए बनाना पड़ा. :)


शरद कोकास ने कहा…
यह सब फर्ज़ी है देश मे लाखो लोग इसमे फंसे है आप चाहे तो साईबर क्राईम के तहत पुलिस मे इसकी रिपोर्ट कर दे ।ऐसे लोगों तक पहुंचने मे मदद मिलेगी


Pt.डी.के.शर्मा"वत्स" ने कहा…
ऎसे मिलियन/बिलियन डालर तो हम भी हर रोज जीतते हैं:)


Arvind Mishra ने कहा…
मुझे भी आज मिला है मोबाईल sms और पहले भी अनेक ईमेल आये हैं -मगर मैं अपनी मुफलिसी में ही खुश हूँ ! कोई करोड़पति बन जाए अपनी बला से !


Shyam Verma ने कहा…
Nobody distribute money freely, take care in whole life. We should earn through our efforts rather then wishing to get huge free money.थैंक्स


अरूण अरोरा ने कहा…
ये सब आपको अमीर बनते नही देखना चाहते । फ़ोरन उस भाई से बात करो और खुद पैसे लेने पहुच जाओ . समीर भाई को हिस्सेदार बना लेना परदेश मे मदद भी मिल जायेगी


वीरेन्द्र जैन ने कहा…
aashcharya hai ki log ab bhi isase murkh ban jate hain . sniye-DUNIA MEN KABHI KUCHH BHI MUFT NAHIN MILATA. HO SAKTA HAI KI APAKO TAATKALIK RUP SE USAKI KEEMAT SAMJH MEN NAHIN AA RAHI ho


mahashakti ने कहा…
बढि़या है किसी को फारवर्ड मत कीजिए


अर्शिया अली ने कहा…
Badhaayi।


रंजन ने कहा…
आप ट्राई करें.. सफल हो तो हमें बताये.. हमारे पास रोज ढेरो इमेल एसे आते है.. और लोग कहते है कि फर्जी होते है.. पर एक भी अनुभवी नहीं है.. क्या सोच रहे है?


दुःख की बात ये है कि मैंने इतने बधाइयों के वावजूद इस एक मिलियन डॉलर की राशि को स्वीकार नही किया...इसके लिए मै इन सभी ब्लौगरों से खेद व्यक्त करता हूँ....

और सभी को आभार भी....

पाठक की एक टिप्पणी...जानदार पंच!

शासक-शासित में बँटा, अपना भारत वर्ष।

शोषित का अपकर्ष है, शोषक का उत्कर्ष।

शब्दवीर जो सोचते लिखते-कहते रोज।

असर नहीं क्यों कीजिये इसके ऊपर खोज।

लिखकर हम यह मानते पूर्ण हो गया फ़र्ज़।

लड़ते नहीं बुराई से, रहता बाकी क़र्ज़।

'सलिल'आम जन से जुड़े,बन उनकी आवाज़।

तब कवि की हुंकार से, हिल जायेंगे ताज।

यह कविता आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने मेरे पोस्ट मैं तो मंत्री हूँ...महंगाई से मेरे को क्या? पर टिप्पणी के रूप में प्रेषित की थी। मुझे लगा यह वाकई उसका सच है। सो, नोश फरमाने के निमित्त इसे पेश कर रहा हूँ ....

नीतिश कुमार भी कोई तोप नहीं !

एक शहर है...बगहा... बिहार के उत्तरी मुहाने पर स्थित....पिछले वर्ष से यहाँ गंडक नदी इस शहर को अपनी जलधारा से अपने में समाहित करती जा रही है...पिछले बरस मामला इतना संवेदनशील हो गया था की सूबे के मुखिया नीतिश कुमार ने आकर यहाँ का जायजा भी लिया था ...ठेकेदारों को हिदायत भी दी थी ...

पर इस बरस फिर ख़बर आ रही है कि शहर फिर-फिर कट रहा है.... सवाल यह उठता है कि सुशासन बाबू के हिदायतों के बावजूद घटिया निर्माण कार्य कैसे हुआ....क्या इसे मानना ग़लत होगा कि नीतिश कुमार के शासन में भी धांधली अपनी चरम पर है...

उसका सच के द्वारा जनता की आवाज़ ...

हो सकता है सुशासन बाबू सुन लें....

दरअसल ,मैंने तो इस दर्द को बड़े नजदीक से महसूसा है....

मेरे द्वारा ली गई कुछ तस्वीर
कटाव निरोधी कार्यों का जायजा लेते नीतिश कुमार

पिछले बरस कटाव के बाद बेघर ये परिवार...


और नदी के मुहाने पर नीतिश मंत्रीमंडली..

रविवार, अगस्त 09, 2009

मैं तो मंत्री हूँ...महंगाई से मेरे को क्या?

मैं मंत्री हूँ...कोई ऐसा वैसा मंत्री नही...वित्त मंत्री...महंगाई मेरे को कैसे छुएगी..मैं तो एसी में रहता हूँ...महंगाई एसीनुमा महल में नही..झोपड़ पट्टी में पाँव पसारती है...अपुन को उससे क्या लेना-देना...जब चुनाव आएगा तो थोड़ा कष्ट उठा लेंगे..घूम लेंगे झोपड़ पट्टी में....चैनलों पर देखा कैसे लोग महंगाई से परेशान हैं..पर इस महंगाई पर भारत सरकार का कोई वश नही....यानी महंगाई को नियंत्रित करने के लिए मुझे या मेरे मंत्रालय को कुछ करने की जरूरत नही है...हाँ इतना जरूर करूँगा कि जब चुनाव आएगा..हफ्ता-दो-हफ्ता पहले पेट्रोल,गैस,दाल,चावल का भाव कम कर देंगे...कर्ज माफ़ कर देंगे...और फिर चुनाव के बाद तान देंगे...जैसा कि अभी ताना हूँ....अरे आप भूल गएँ क्या मै वित्त मंत्री हूँ...महंगाई मेरे को थोड़ो हीं छुयेगी...फिलहाल मुझे इस एसीमय बंगले का मजा लेने दीजिये...मिलते हैं ब्रेक के बाद..

शनिवार, अगस्त 08, 2009

समझौता पत्र

सोचा था नहीं बनने दूँगी कभी
समझौता का पर्याय जिंदगी
एक दिन
वक्त ने ख़त लिखा जिंदगी के नाम
कि स्वप्न का आकाश
धरती पर उतर नहीं सकता
उतार भी दो गर
तो जिन्दा रह नहीं सकता
और जाने कब वक्त थमा गया
जिंदगी के नाम
मेरे हस्ताक्षरयुक्त एक समझौता पत्र।

- सीमा स्वधा
(
कादम्बिनी के दिसम्बर'२००५ अंक में प्रकाशित)

एक और रात का सफर

शब्द खो गए हैं
शेष है/ सिर्फ़ मौन

चाहता है मन
तमाम अनुभवों को बांटना
करना तमाम बातें
मौसम की, फूलों की, हवाओं की
कुछ तुम्हारी मेरी अपनी भी।
मगर/उन गिने चुने पलों को
तौलती तुम्हारी बेरुखी में
मुखर होता है
सिर्फ़ मौन।

शायद कल मिले
अनुकूल शब्द और पल भी
दे सकूं अभिव्यक्ति
जब मैं अपनी भावनाओं को
इन्हीं सोच में डूबा मन
तै कर चुका होता है
एक और रात का सफर।

-सीमा स्वधा

(संवेद वाराणसी के जनवरी-जून'2006 अंक में प्रकाशित)

दोपहरिया में सपना दिखा रहे हैं अज़दक प्रसाद!

अन्हरिया में त सपना देखे थे औरी दोपहरिया में सपना देखे के बात व्याकरण के किताब में मुहावरों में पढ़े थे॥

एइ बेरा अज़दक प्रसाद ब्लॉग पर दोपहरिया में हीं सपना देख लिए॥

चित्रकारी अइसन कि मियाज कोट हो गया॥

आदिमानवों के फोटुओ की बेबाक प्रस्तुति॥

लपेटुवा शैली में श्रीमान ब्लोगिया को साधू+वाद....

शुक्रवार, अगस्त 07, 2009

बिहार की पीड़ा कम कैसे होगी...यहाँ यूपीए की सरकार जो नहीं

हवा में डोलता आश्वासनों का झूला

बिहार की पीड़ा कम कैसे हो? आम लोग अपने पीड़ा को अपने तई जब्त करने को मजबूर हैं। आश्वासन उन्हें मिलते हैं। सपने जिंदा होते हैं। पर, सपनों का कत्ल भी हो जाता है। आश्वासनों का झूला सिर्फ हवा में हीं डोल कर रह जाता है। सिर्फ राज्य सरकार करे भी तो क्या करे? खजाना खाली है। केंद्र को भेजे गए कई प्रस्ताव लंबित हैं। विशेष राज्य की मांग जारी है.....पर यहाँ यूपीए की सरकार नहीं ..

बिहार राज्य है। पिछड़ा राज्य। पर किस दर्जे का राज्य? सवाल सौ टके का है। आइये ढूंढते हैं जवाब। कभी प्राकृतिक संपदा का खान था बिहार। झरिया से लेकर झांझा तक सिर्फ हीरे हीं हीरे। पर, विडम्बना देखिये उस समय यहां जंगल राज हुआ करता था। कुशासन। चारों तरफ लूट-मार। उन संपदाओं की सुध लेने वाला कोई नहीं। नवम्बर, 2000 में बिहार बंट गया। सारी की सारी प्राकृतिक संपदा झारखंड में चली गयीं। बिहार को मिला बस पिछड़ापन, गरीबी। गरीबी भी एपीएल और बीपीएल वाली। उसमें में भी धांधली। सो, उस समय भी बिहार को दर्जा देने की मांग की गई थी। विशेष राज्य वाला दर्जा। तकरीबन दो सौ हजार करोड़ की मांग की थी राज्य सरकार ने। पर उस समय मजबूत नेता निर्णायक सरकार यहां नहीं थी। जो केंद्र के छाती पर चढ़ अपनी बात रख सके। और न हीं उस समय नेताओं में वह इच्छा शक्ति थी।

इस बार इच्छाशक्ति भी है और वैसी सरकार भी। लिहाजा, मांग उठ रही है। बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिलाने की। पर वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियां साथ नहीं दे रही हैं, इस राज्य का। यहां की सरकार का। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार चिंता में हैं। कैसे बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिलाया जाय। ताकि यहां का सामाजिक और आर्थिक पिछड़ापन दूर हो सके। लोगों को रोजगार मिल सके। महागरीबी से छुटकारा मिल सके।

आंकड़े हैं आंकड़ों का क्या? शायद केंद्र सरकार यहीं सोच रही है। तभी तो यहां के एक करोड़ बाइस लाख बीपीएल परिवार को वह महज 65 लाख हीं समझ रही है। सो, यह गरीब प्रदेश बाकि के बीपीएल परिवारों का बोझ खुद सह रही है। दरअसल, सच तो यह है कि यहां यूपीए की सरकार नहीं है। उसका जनाधार नहीं है। सो, केंद्र सरकार ने भी छोड़ दिया है बिहार को उसकी नियति पर। पर यहां जो आंकड़ें पेश किये जा रहे हैं वह सच हैं। उसकी बुनियाद में रत्ती भर भी लाग-लपेट नहीं है। आर्थिक पुराधाओं की माने तो बिहार गरीबों का अमीर राज्य है। इस क्षेत्र में यह नम्बर एक पर आता है। बिहार विकास के लिए धन खर्च करने वाले राज्यों की सूची में सबसे नीचले पायदान पर आता है। प्रति व्यक्ति आय इस राज्य में सबसे कम है। वहीं यह भी जगजाहिर है कि बिहार के पास प्राकृतिक संपदाओं का अभाव है। संसाधनों का भी। सो, बड़ी कंपनीयां यहां निवेश करने से कतराती हैं। लिहाजा, बेरोजगारों की टोली मजबूरन पलायन कर जाती है, इस राज्य से। नक्सलवाद यहां की गंभीर समस्या है। इससे लड़ने के लिए बिहार के पास पर्याप्त संसाधन नहीं है। धन नहीं है। वहीं बाढ़ की समस्या, चाहे कोसी हो या गंडक का प्रलय, यहां की गंभीरतम त्रासदी है। एकबारगी सैकड़ों-सैकड़ों गांव को कोसी लील लेती है। बिजली की समस्या, कम प्रति व्यक्ति खर्च, खस्ताहाल सड़क, कर के कम स्त्रोत, बंद पड़े चीनी मील, सींचाई के लिए संसाधनों का अभाव यहां के सामाजिक एवं आर्थिक पिछड़ेपन के लिए जिम्मेदार हैं।

सवाल यह उठता है कि सांसों ने भी जिंदा होने का कभी सबूत मांगा है क्या? कहीं न कहीं ये समस्याएं, ये आंकड़े बिहार को अन्य राज्यों से अलग करती हैं। पर इस पर केंद्र को कौन राजी करे? केंद्र को कौन दिखाये की बिहार हर मामले में पिछड़ा है। उसे कौन बताये कि इसे विशेष राज्य का दर्जा देने की जरूरत है। इस बार केंद्र सरकार में बिहार का प्रतिनिधित्व करने वाला कोई उम्दा नेता भी नहीं है। एक हैं तो वह भी अपने पिता की बस विरासत हीं संभाल रही हैं। पिछली बार प्रतिनिधित्व करने वाले थें तो वे अपने राग अलापने में मशगूल थें। घर में खाने को कुछ नहीं और नखरे हजार वाली बात थी। सूबे की चिंता तो जैसे नीतीश कुमार के कंधे पर लाद दिये गये थें।

फिलहाल, दस जनपथ और सात रेसकोर्स पर कांग्रेसी झंडा बुलंद है। यानी राजनीतिक परिस्थितियां बिहार से इतर। एकदम उलट। लिहाजा, केंद्र सरकार ऐसी जहमत उठाने से रही। दरअसल, केंद्र सरकार के पास अन्य राज्य भी विशेष दर्जे की मांग के लिए लाइन लगाए खड़े हैं । उन राज्यों में उनकी हीं सरकार है। सो, केंद्र सरकार पहले उन राज्यों को इस मामले में तरजीह देगी।

पर यहां की पीड़ा कम कैसे हो? आम लोग अपने पीड़ा को अपने तई जब्त करने को मजबूर हैं। आश्वासन उन्हें मिलते हैं। सपने जिंदा होते हैं। पर, सपनों का कत्ल भी हो जाता है। आश्वासनों का झूला सिर्फ हवा में हीं डोल कर रह जाता है। सिर्फ राज्य सरकार करे भी तो क्या करे? खजाना खाली है। केंद्र को भेजे गए कई प्रस्ताव लंबित हैं। चाहे अक्तूबर,2008 में आये कोसी जल प्रलय के पुनर्वास के लिए 14 हजार करोड़ रूपये के पैकेज का प्रस्ताव हो या गन्ना से सीधे एथनॉल तैयार करने की अनुमति लेने की बात। या फिर विद्युत उत्पादन के लिए कोल लिंकेज लेने का प्रस्ताव हो। या फिर राष्ट्रीय राजमार्ग के निर्माण की तरफ ध्यान आकर्षण की बात हो। केंद्र सरकार बिहार को हलके में ले रही है। महज आश्वासन। सिर्फ आश्वासन। आखिर कब तक सहेगा बिहार यह सौतेलापन।

-सौरभ के.स्वतंत्र

हाँ वह स्नातक है....तो ???

वह स्नातक है...वह डॉ राजेंद्र प्रसाद को भारत के पहले प्रधानमंत्री के रूप में निरूपित करता है...

वह स्नातक है...वह बताता है कि १५ अगस्त को हम गणतंत्र दिवस मनाते हैं...

वह स्नातक है...वह महात्मा गाँधी को राष्ट्रपति बताता है...

वह स्नातक है...उसे देख/सुन मैं आश्चर्य भी खाता हूँ...

वह स्नातक है...पर इसका दोष मै उस बेचारे को दूँ या सिस्टम को???

तीसरा विकल्प

अब जाकर बुखार कुछ कम हुआ है, लेकिन दर्द के मारे पोर-पोर रिस रहा है। नेहा ने सिर को झटका दिया, लग रहा है जैसे सिर पर कोई भारी बोझ-सा रखा है, इसलिए हमेशा वह पर्स में कुछ टैबलेट्स रखती है। पता नहीं कब किसकी जरूरत पड जाए। ऐसी स्थिति में बाजार तक जाना भी कैसे संभव हो पाएगा। नरेन शायद ऑफिस जा चुका है। साढे दस तो बज गए हैं। सारा घर अस्तव्यस्त है। पता नहीं, नरेन ने नाश्ता भी किया है या नहीं। नाश्ते की याद आते ही मन में कुछ खटक गया। कितना फर्क है उसकी और नरेन की सोच में। ऐसी हालत में भी उसे नरेन की चिंता है, जबकि नरेन ने झूठ-मूठ के लिए भी उसे एक कप चाय के लिए नहीं पूछा। उसे इस हाल में छोडकर कितने इत्मीनान से ऑफिस चला गया। माना कि ऑफिस जाना जरूरी रहा होगा, मगर क्या वह उससे हमदर्दी के दो बोल भी नहीं बोल सकता था! उसे जगा कर इतना तो पूछ सकता था कि तुमने दवा ली या नहीं या कैसी है तुम्हारी तबीयत? या बस इतना ही कह देता कि जा रहा है।

उसकी आंखें बरसने लगीं और मन भारी हो चला। यही वह बिंदु है, जहां नेहा खुद को इतना असहाय पाती है कि उसे अपने पर ही तरस आता है। उसे याद नहीं कि नरेन ने कभी उससे हमदर्दी जताई हो। अभी चार महीने पहले ही उसे मलेरिया हुआ था। ठंड और बुखार से हाल बेहाल हो जाता था, मगर डॉक्टर और नर्स के हवाले करके नरेन अपनी दिनचर्या में मशगूल था। तमाम व्यस्तताएं उसके इर्द-गिर्द आज भी थीं-ऑफिस, फाइल, क्लाइंट्स..कैसे नकार देता है नरेन इतनी सहजता से उसका वजूद, जबकि वह चाहकर भी कभी नफरत नहीं कर पाई इस शख्स से, जब भी कुछ ऊटपटांग बातें मन के किसी कोने से उठने लगतीं, तत्काल उन पर वे खयाल हावी हो जाते, जिनमें अपनेपन के सूत्र वह बडे जतन से तलाश करती। उन्हीं दिनों आंटी कुछ दिन के लिए हमारे घर आई। उन्हें कुछ काम था पटना में। नैना और निहाल की जिम्मेदारी कैसे निभा पाती वह, जबकि खुद सारा दिन बुखार में तपती रहती। आंटी के आने से उसे बडा सहारा मिला। नरेन भी आंटी को बहुत आदर देता था। उनकी शख्सीयत ही कुछ ऐसी है। नरेन को तो उनका बाहरी स्वरूप ही दिखता, लेकिन नेहा को आंटी का अंतरमन भी बडा अबोध असहाय और प्यारा लगता। जैसे किसी बच्चे पर किसी ने अन्याय थोप दिया हो और वह उसे स्वीकारने पर विवश हो गया हो।

आंटी व्याख्याता थीं और अंकल को शादी के समय इस पर कोई आपत्ति भी नहीं थी। लेकिन पता नहीं जिंदगी में कहां किस मोड पर अंकल के पौरुष.. को क्या खटका कि उन्होंने आंटी पर नौकरी छोडने का दबाव डालना शुरू किया। बिना किसी तर्क के सिर्फ अपनी इच्छा के अनुसार। आंटी के आत्मसम्मान को यह गवारा नहीं था। आिखर कोई वजह भी तो होनी चाहिए। बेबुनियाद शक के सिवा और क्या वजह हो सकती था। दिन-रात का कलह अंतत: उनके अलगाव में ही परिणत हुआ। कहने को तो आंटी ने सहारा ढूंढ लिया है अपने अकेलेपन का, लेकिन नेहा महसूस करती है आंटी अंदर से एकदम खोखली हैं -आहत, जिसे अपनों ने ही दर्द दिया हो। उसके लिए और कोई जख्म मायने नहीं रखता।

आंटी के आने से नैना और निहाल खुश थे। नेहा भी ठीक हो रही थी। नरेन देर रात तक लौटता और सुबह नाश्ता करने के बाद निकल जाता। घर के प्रति उसकी बेरुखी आंटी की अनुभवी आंखों से छिपी नहीं रही। तब नेहा ने सारी बातों को तरतीब से बताया। बातें सुनकर आंटी ने कहा-यह मत भूलो कि नरेन पुरुष है। उसके अपने अहम हैं, उन्हें सहेजकर ही तुम उसका प्यार पा सकती हो। समझौता करना सीखो नेहा।

आंटी मैं भले ही आपकी बेटी जैसी हूं, लेकिन यह मत भूलिए कि मैं एक प्रौढ होती औरत भी हूं। समझौतों से जिंदगी तो जी सकते हैं, लेकिन इससे प्यार नहीं पाया जा सकता और न दिया जा सकता है। मेरा अंतस एकदम सूना है आंटी, बिलकुल सूना।

नेहा लगभग रो पडी थी। आंटी का स्नेहिल स्पर्श उसे कुछ देर सहलाता रहा। अपनी भरी आंखों को पोंछ कर आंटी ने सहेजा उसे। पर नेहा तुम तो बहुत बहादुर थीं। इतनी जल्दी हार मान लोगी,! मैं जानती हूं अकेलेपन की पीडा क्या होती है। अकेली औरत और यह समाज! तुम्हें क्या लगता है जिंदगी इतनी आसान होती है! पर मैं क्या करूं आंटी।

मेरी मानो तुम एडजस्ट करने की कोशिश करो। नरेन दिल का बुरा नहीं है। वह सिर्फ व्यस्त है-मैं मानती हूं, लेकिन तुम चाहो तो उसे अपने अनुसार ढालने की कोशिश कर सकती हो। अब तक तो तुम अपनी अलग दुनिया में जीती रही हो, यथार्थ से परे मन के धरातल पर। अब भी समय है-कुछ तुम ढल जाओ, कुछ उसे विवश करो, सब ठीक हो जाएगा। आखिर यही तो एडजस्टमेंट है। शाम की चाय पीकर आंटी चली गई और रह गई नेहा। आंटी के उन तर्को के सहारे अपनी दुनिया संवारने की कोशिश में।

इतना तो नेहा को पता है कि प्रेम न बाडी उपजे, प्रेम न हाट बिकाय। वह नरेन को अपने व्यवहार से ही जीत सकती है। नेहा आज भी समझ नहीं पाती कि नरेन का यह अनमनापन क्यों है। हां कुछ करने और अपनी पहचान बनाने की ललक के तहत उसने नरेन पर अपनी नौकरी के लिए दबाव डाला था। नरेन का हमेशा यही तर्क होता, तुम्हें किस चीज की कमी है, मुझे बताओ। जवाब में नेहा चाहकर भी नहीं कह पाती। मन में सोचती रह जाती, भौतिक जरूरतों के अतिरिक्त भी तो जीने के लिए कुछ और बातें जरूरी होती हैं। शारीरिक जरूरतों से परे भी कुछ मानसिक जरूरतें होती हैं, तुम्हें नहीं लगता नरेन! नरेन की व्यस्तता और नेहा के खालीपन का टकराव आखिर कब तक चलता। बडी मुश्किल से उसने नरेन की सहमति पाई थी। नेहा का तर्क था कि इस तरह उसका खाली समय भी बढिया गुजरेगा और अतिरिक्त आमदनी से बच्चों के लिए भी कुछ किया जा सकता है। जब वह नेहा के तर्को से पराजित अनुभव करता तो बिलकुल चुप हो जाता। शायद यह असहमति जताने का उसका तरीका था। नेहा ने इस बात को महसूस भी किया, मगर नजरअंदाज कर दिया।

आिखर कितनी देर तक वह व्यस्त रख सकती खुद को टीवी, मैग्जींस या घरेलू कामों में। एक पत्नी के साथ-साथ वह एक इंसान भी तो है। उसके अपने भी कुछ सपने हैं, इच्छाएं हैं। उसकी नौकरी से नरेन को क्या आपत्ति हो सकती है-सिवा पुरुष होने के नाते, आहत अहम की चुनौती महसूस करने के सिवा। नेहा को चाय की जरूरत महसूस हो रही थी। दूध वाला अब तक नहीं आया था। इन तमाम सोचों को परे सरकाकर बहुत चाहा, उसने एक सामान्य दिनचर्या निबाहने की, लेकिन अब यह सोच अब उसके वजूद का हिस्सा बन चुकी है, जब तक कि कोई समाधान नहीं निकल आता। या कौन जाने जिंदगी ही ऐसी होती है, जानती है नेहा कि नरेन की जिंदगी में कोई दूसरी औरत भी नहीं। ना तब, ना अब। एक बार भावुक क्षणों में स्वीकारा था नरेन ने कि चाहा तो उसने भी था कई बार कॉलेज लाइफ में लडकियों से बातें करना या दोस्ती बढाना, पर हिम्मत ही नहीं पडती थी और बात करते वक्त तो जबान जैसे तालू में चिपक जाती थी। तब सचमुच हंस पडी थी नेहा।

घबराहट तो नेहा को भी होती थी लडकों से मिलने पर, क्योंकि उसने ग‌र्ल्स स्कूल में ही पढा था अब तक। जब कॉलेज गई तो बहुत घबराई हुई थी-सबसे अलग-कटी कटी सी, लेकिन धीरे-धीरे वह खुलती गई। आखिर बुराई क्या है दोस्ती करने में? नेहा ने जैसे नरेन से नहीं, खुद से प्रश्न किया? मेरी तो संजय से बहुत पटती थी। हां भाई तुम्हारी बात ही अलग है। नरेन की आंखों में उभरते शक के साये को साफ देखा था उसने, मगर तत्काल स्पष्ट कर दिया कि उनके रिश्ते में ऐसा कुछ भी नहीं था, जिस पर शर्मिदा हुआ जाए। फिर भी तुम्हें अच्छा न लगा हो तो माफ कर देना, हम बस दोस्त थे।

उस समय नरेन सामान्य हो गया और अपनी दिनचर्या में व्यस्त भी। फिर नरेन के व्यवहार में परिवर्तन आने लगा। व्यस्त तो पहले भी था, अब और व्यस्त रहने लगा। लापरवाह तब भी था अपनी चीजों के प्रति, अपने प्रति-नेहा के प्रति, अब लापरवाही कुछ ज्यादा ही बढ गई। यहां तक कि नैना और निहाल के जन्म के बाद भी वह खुद को पूरी तरह बदल नहीं सका। कभी मूड में होता तो ढेर सारी बातें करता और कभी इतना अन्यमनस्क जैसे यहां हो ही नहीं, यहां तक कि दोनों के गृहकार्य वह खुद पूरा कराती। तमाम कामों तो निपटाकर वह नरेन की ओर देखती तो पाती कि वह मजे से किसी पुरानी पत्रिका के पन्ने पलट रहा है। उसे गुस्सा आता कि क्या बच्चे सिर्फ उसकी जिम्मेदारी हैं!

भूल से कभी नेहा टोक दे तो बिफर पडता। क्या चाहती हो दिन भर खटता रहूं आखिर किसके लिए? घर आकर दो घडी अपने मन की भी नहीं कर सकता मैं? इतनी आपत्ति है तो लो मैं जाता हूं यहां से? इतना कहकर छत पर आराम से लेट जाता-सो भी जाता, जैसे कुछ हुआ ही न हो। अब तो बच्चे बडे भी हो गए और हॉस्टल चले गए। मगर दस सालों बाद भी नरेन का व्यवहार वही है। जाने कौन सी फांस है नरेन के मन में, जो आज भी अपनी कसक जब-तब दिखा ही देती है। नेहा तो अब उसकी दिनचर्या में दखल देना छोड ही चुकी है, मगर कभी-कभी नरेन उसे नितांत अपरिचित क्यों लगता है? उससे खुल कर बात नहीं कर सकती। पता नहीं कौन सी बात उसे बुरी लग जाए। कहीं जाने की जिद नहीं कर सकती। ऐसी जिंदगी की कल्पना नहीं की थी उसने। उसने तो चाहा था परस्पर विश्वास, ढेर सारा प्यार-मनुहार। कुछ भी तो नहीं है उसके पास। नरेन मन ही मन उसे खंडित प्रतिमा समझता है, जिसे रखा तो जा सकता है मगर उसकी पूजा नहीं की जा सकती। पर नेहा का कसूर क्या है, यही कि नरेन ने ऐसा समझा। ऐसा सोचा-इसलिए वह वैसी है। कभी नरेन ने मुंह से तो नहीं कहा, लेकिन नेहा सब समझती है। उसका व्यवहार, उसकी आंखें, उनमें समाये हुए भाव सब जाहिर कर देते हैं। तभी दरवाजे की घंटी बजी। नेहा ने घडी पर निगाह डाली। पूरे बारह बज चुके हैं। दूधवाला होगा, उसने अंदाज लगाया। बाथरूम में जाकर उसने अपना चेहरा धोया, दूध लिया। दरवाजा बंद करके वह फिर वहीं बैठ गई। पैरों में थरथराहट थी, शायद कमजोरी की वजह से। पिछले दो दिनों से तो उसने ठीक से कुछ खाया भी नहीं। घर में दो ही तो हैं। एक वह है, दूसरा नरेन और नरेन को उसकी क्या परवाह हो सकती है भला। काश! मौत आसान होती, जिसके रास्ते में न तो किसी रिश्ते-नाते का वजूद होता, ना ममता की पुकार होती, ना जमाने का कलंक। आत्महत्या तो अच्छे-भले लोगों का चरित्र कलंकित कर देता है। वैसे भी ये तो बाद की बातें हैं। मरने के बाद दुनिया क्या सोचती है! मरने वाले ने कब जानना चाहा है! जब भी ऐसे खयाल मन-मस्तिष्क पर हावी होते, नैना और निहाल की भोली सूरत उसे निहारती हुई लगती और उसकी आंखें अनायास भर आतीं।

चाय पीकर नेहा को थोडी राहत मिली दर्द से। उसने खिडकी के बाहर झांका। मई की प्रचंड गर्मी में सूरज तप रहा था या सूरज के ताप से धरती। नेहा ने पर्दा खींच दिया। दवा का असर हो चला था। अब उसका बुखार कम हो गया था। उसने पंखा ऑन किया। विचारों के झंझावात से मन बोझिल हो चला था। उसने सोचा, शाम को आंटी से मिलने चली जाएगी- खगौल। वैसे भी नरेन आठ बजे से पहले कब आता है। पर यह तो कोई रास्ता नहीं समाधान का, बल्कि पलायन ही है। उसके और नरेन के बीच अपरिचय की खाई गहरी होती जा रही है। उसे लांघ कर कब तक पहल करती रहेगी नेहा। संवाद और सामंजस्य के सूत्र तलाशने ही होंगे वरना अकेलेपन से जूझता उसका वजूद अर्थहीन ही हो जाएगा एक दिन। आज जरूर पूछेगी आंटी से कि वह किस एडजस्टमेंट की बात कर रही थीं। यह एडजस्टमेंट किस तरह होता है! सचमुच बेतरह टूट चुकी है नेहा, बिखरने की हद तक, जहां कोई दूसरे पक्ष की बात बिना सोचे महज पूर्वाग्रह से ग्रस्त होकर नकार दे-वहां एडजस्टमेंट संभव है क्या? आंटी तो अनुभवी हैं, आत्मनिर्भर हैं और सोशल वर्कर भी। आज तो उनसे जरूर पूछेगी नेहा, कैसे एडजस्ट करूं आंटी? अपने आत्मसम्मान और इच्छाओं को परे धकेल कर सिर्फ मैं ही कब तक एडजस्ट करूं? क्या इसलिए कि मैं एक औरत हूं? मुझ पर ही एक घर को बचाने की जिम्मेदारी है! क्या पुरुष का कोई कर्तव्य नहीं होता? घर और बच्चो सिर्फ स्त्री के ही तो नहीं होते! लेकिन अब मैं क्या करूं! एक तरफ मेरी यह बिखरी हुई जिंदगी है, दूसरी तरफ अपनी तरफ आकर्षित करती मौत! जीने की कल्पना बेहद सुंदर है, मगर कोई कैसे जिए! जिंदगी और मौत के बीच जिंदगी का कोई तीसरा विकल्प भी है क्या? इन तमाम सवालों को दुहराती नेहा घर को व्यवस्थित करने में जुट गई..।

-सीमा स्वधा
(जागरण सखी के दिसम्बर'२००७ अंक में प्रकाशित)

गुरुवार, अगस्त 06, 2009

संवाद

डूबते सूरज की
मद्धिम आभा से
पहरो चुपचाप हीं निहारते हुये
आस-पास
कोई संध्या अजनबी सा वजूद
डोलता है मेरे आस-पास
कहीं ये मैं तो नहीं
कभी/ उन बेहाया के फूलों के संग
गुपचुप मुस्कुराते हुये
कभी/मंदिर के कंगरे पर बैठे हुये
बहुत कुछ है
हमारे इर्द-गिर्द
सिव इन्सानों के जिनसे जोड़ा जा सकता है
संवाद सूत्र
खोला जा सकता है
मन की गिरह को बेहिचक
मसलन
की जा सकती है बाते
बारिस की बूंदों से बेझिझक
खेला जा सकता है
लुका-छिपी भी/
बादलों की ओट से
झाकते सूरज की चंद किरणों के साथ
जाया जा सकता है
कहीं भी/ सतरंगे
इंद्रधनुष पे सवार होकर।

- सीमा स्वधा

मै एक मिलियन डॉलर जीत गया..

बधाई हो आप एक मिलियन डॉलर के विजेता बन गए। हमने ई-मेल डायरेक्टरी से आपके मेल एड्रेस को लिस्ट किया है...और आप एक मिलियन डॉलर के विजेता बन गए हैं..फलां कंपनी ने आपको एक मिलियन डॉलर देने का निर्णय लिया है..आप ये जानकारी फंड रिलीज़ होने तक गुप्त रखिये...आप फलां गुप्त कोड डाल कर ई-मेल से संपर्क करें..आपकी राशि एक बैंक में(जो कि विदेश में है) आपके नाम से एक खाते में डाल दिया गया है..आप उस बैंक से संपर्क करके अपना फंड रिलीज़ करा लें...आप जो भी संवाद करें गुप्त कोड डाल कर करें..एक बार फिर आपको बधाई...

आपका हीं
फलां फलां

ये मेल आज दिन में जब मै खाना खाने के बाद मेल चेक कर रहा था तब मिला...

मुझे तो लग रहा है ये मेल फर्जी है...

हालाँकि जिस कंपनी का नाम दिया गया है..वह दुनिया के बड़ी कंपनियों में शुमार है...

एक मेरे जानने वाले के मोबइल पर कुछ दिनों पहले इस तरह का मैसेज आया था...आज पता लगाया तो वे मेल के जरिये उस कंपनी के दिशानिर्देश पर आगे बढ़ रहे हैं...अभी उन्हें मेल के जरिये प्रशस्ति पत्र मिल चुका है...अब उन्हें विदेश बुलाया जा रहा है फंड रिलीज़ कराने के लिए...

क्या आपको भी इस तरह का मेल मिल रहा है?

ब्लोगियाने वालों से ज्यादा लगाव हो गया है...सो ब्लागरों से ही पूछ रहा हूँ... कि मुझे क्या करना चाहिए??

मुसलमान मेरे भी घर में रहता है...

मुसलमान मेरे भी घर में रहता है...मै उसे अपना भाई मानता हूँ...अगर घर में लडाई होती है तो मै उसे घर की नियति मानता हूँ..दरअसल हर घर में लडाई होती है...सो, मेरे भारत जैसे वैभवशाली घर में ऐसा वाकया होता है तो मै उसे भी नियति मानना हीं श्रेयस्कर समझता हूँ , बजाये तूल देने के...मेरी सेकुलर शिखंडियों से भी यही अर्जी है....

बुधवार, अगस्त 05, 2009

अंधेरी सुरंग से गुजरकर..

चेतना के तार ढीले पड रहे हैं। गहरी अंधेरी सुरंग में वो बेतहाशा दौडी जा रही है। पीछे घर द्वार सारा संसार छूटा जा रहा है। अंधेरा इतना घना है कि हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा है, फिर अचानक रौशनी का तेज पुंज आँखों के आगे प्रकट हुआ। सामने दिव्य आसन पर साक्षात भगवान विराज रहे हैं। चक्र, गदा हाथ लिये जिस रूप में उनको पूजती आई है अब तक उसने झुर्रियों भरा हाथ जोड दिये। पलकें मूँदी जा रही थीं तो मेरा अंतिम समय आ गया है। पता नहीं रामेश्वर तक खबर पहुँची भी या नहीं उसने सोचा।

पिछले आठ दिनों से तेज बुखार और दर्द के कारण बिस्तर से लगी हुई है वह। थोडे प्रयास के बाद आँखें खुलने पर उसने पाया, उसके इर्द गिर्द दस बीस लोग जमा हैं। टूटी चौकी पर एक तरफ पानी भरा लोटा रखा है जिसमें से चम्मच से थोडा पानी निकाल कर मालती उसके मुँह में डालती जा रही है।

चेतना भी कभी पूरी तरह मन मस्तिष्क को सजग रखती, दूसरे पल सब कुछ आँखों से ओझल हो जाता।

मौसी के मुँह में जल्दी गंगाजल और तुलसी पत्र डालो अम्मा शायद गति मिल गई अब। उसके ठंडे हाथ पाँव को सहलाता शंभु रुंधे कंठ से बोल रहा था।

वह कहना चाह रही थी, मैं मरी नहीं हूँ नालायक, जिंदा हूँ अभी। क्या तुम सचमुच मेरे लिये ही रो रहे हो। सब कुछ महसूस कर भी कुछ कहने में असमर्थ थी।

आँखें फिर मूँदी जा रही थी, मन फिर चेतना शून्य, अंधेरी सुरंग की दौड फिर शुरू हो चुका था कि उस छोर पर साहजी दिख गये, तो आप यहाँ छुपे बैठे हैं मुझे छोडकर। वह चीखकर फरियाद करना चाहती है पर आवाज जैसे गले में अटक सी गई है। गों गों की हल्की आवाज हुई कि आस पास हलचल मच गई।

अरे बडकी माँजी जिंदा हैं अभी। ऐ मीना, गीता पाठ करो आचा जी के सिरहाने। नाक सुडकती रोने की सायास कोशिश करती वह मनोज बहू थी-उसके भतीजे की पत्नी।

उम्र के इस पडाव पर रिश्तों की स्वार्थपरता देखते परखते वो सर्वथा असम्पृक्त हो चली थी।

मेरे जीते जी कभी दो घडी पास बैठने की फुर्सत नहीं निकाल पायी और आज ये कैसा ढोंग! अधखुली आँखों से उसने चारों ओर का जायजा लिया। सभी अजीब से रुँआसे चेहरे लिये उसके आस पास खडे थे। मनोज हाथों में कागज लिये खडा था। जबरन ओढी हुई चुप्पी कभी- कभी फुसफुसाहट में बदल जाती।

रामेश्वर कहीं नहीं दिख रहा है, लगता है नहीं आया अब तक। पता नहीं देख पाऊँगी भी या नहीं।

आँखें फिर मूँदने लगी पर मन की सक्रियता अब भी बरकरार थी।

लगता है, रामेश्वर अंतिम समय भी माँ के दर्शन नहीं कर पायेगा। अपने सुख, स्वार्थ और आराम के आगे लोग माँ तक को भूलते जा रहे हैं। क्या जमाना आ गया है? पडोसी रामलाल जी व्याकुल थे।

कौन जाने खबर ही नहीं मिली हो। जगन्नाथ प्रसाद ने आशंका जतायी।

क्या बात कर रहे हैं मौसा जी। मैंने खुद काठमांडू बात की थी चार दिन पहले। पूरे सौ रुपये का फोन बिल अब भी मेरे पाकेट में है।
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मौसी की दशा पूरी स्पष्ट बताया था। शम्भु मनोज के हाथों में थामे कागज को घूरते हुए अपनी बात खत्म की।

उसे हँसी आयी। पता नहीं अब वह हँस भी सकती है या नहीं। उसने मन ही मन सोचा क्या मरते हुये आदमी के प्रति दूसरों की भावनाएं सचमुच बदल जाती हैं।

अब वो सचमुच साह जी के पास जाना चाहती है ताकि फरियाद कर सके बीते दिनों की।

खुद तो आसमान में सितारों के बीच निश्चिंत होकर बैठ गये। एक मुझे छोड दिया नन्हीं जान के साथ। इस बेरहम दुनिया में अकेली मरो, खपो और अपने कर्तव्य का पालन करो।

बीते दिनों का संघर्ष और दुख आज भी जिंदा है उसके जेहन में पर कितनी विवश है वो कि अपने मन की व्यथा कह भी नहीं सकती। क्या मिला इतना करने के बाद भी जिसके लिये सारी जिंदगी और जवानी खपा दी, वही दो घडी के लिये मेरे पास नहीं आ सका। लगता है इस अधूरी इच्छा के साथ ही जाना होगा। अपनी चेतना को भरसक सहेजती वह कुछ पल और इंतजार करना चाहती है रामेश्वर का।
क्या ममता बस माँ के सीने में ही होती है। संतान कैसे असम्पृक्त हो जाती है अपनी जननी, अपने उत्स से।
अधखुली पलकों को मूँदें वह निश्चेष्ट पडी है, बोल नहीं सकती पर चेतना अब भी है।
यकायक मनोज बहू की नजर उसके कानों पर पडी और कहने लगी, बडकी अम्माजी के कान में तो इतना बडा कनफूल है, कहते हैं मरते हुए आदमी के शरीर से गहना उतार लिया जाता है वरना लक्ष्मी जी का अपमान होता है। झपट कर अधिकार भाव से कनफूल का पेंच खोलने लगी। पेंच एकदम बैठ गया था-जाने कितने सालों से उसके कान में पडा था यह जेवर। बहुत कोशिश के बाद भी पेंच खुल नहीं रहा था।
उसके कान खिंच रहे थे। वह चाहकर भी मना नहीं कर सकीं, रहने दो बहू दर्द हो रहा है। साह जी की अंतिम निशानी है मेरे पास। मरने के बाद तुम्हीं ले लेना...। अपनी विवशता पर उसकी आँखों में आँसू भर आये, पता नहीं किसी ने देखा भी या नहीं।
मीना आलमारी पर कैंची रखी है, जरा लेकर आ। भतीजे की बहू ने बेटी के कानों में धीरे से कहा।
कोई रिश्ता नहीं रखा आज तक। हारी बीमारी में भी अकेली तडपती रही। मुझे मरता देख गिद्द की भाँति धन सम्पत्ति पर मंडराने आये हैं। काश! रामेश्वर यहाँ होता। मरता हुआ आदमी सचमुच कितना विवश होता है।
मीना कैंची लेकर आ चुकी थी। शम्भु ने रोका रहने दो भौजी, अंतिम समय में दो जून खाना, एक दवाई तक देने की फुर्सत नहीं थी तुम्हें। अब ये क्या कर रही हो? मौसी को आराम से गति तो होने दो।
आँखें तरेर कर मनोज बहू ने शम्भू को देखा जैसे कह रही हो, रामेश्वर के न रहने पर हमारा ही हक बनता है इन पर। तुम कौन होते हो बीच में बोलने वाले..? चाहें जितनी हमदर्दी जता लो, सम्पत्ति के दावेदार रामेश्वर के बाद हमही हैं।
कान पलट कर उसने दोनों पेंच काट दिये। कनफूल उठा कर आँचल के कोने में बाँध कर निश्चिंत हो गई वह।
उसके कान के पिछले हिस्से में खरोंच भी आ गई थी पर किसे दिखाये वह.. उसके चेहरे की पीडा को भी ये लोग आती हुई मौत की पीडा ही समझ रहे हैं शायद। चाहा कि कान का पिछला हिस्सा सहला दे मगर हाथ अस्त हो चले थे।
लगता है, अब नहीं रही बडकी अम्मा। रुआँसी आवाज में बोलता हुआ मनोज उसके अँगूठे में जाने क्या चिपचिपा सा लगा रहा है, उसकी चेतना में यकायक आया, ओह! तो ये घर सम्पत्ति का कागज लेकर आया है मेरे निशान के लिये।
उसके अशक्त हाथों को दबाकर उससे अच्छी तरह कागज पर निशान ले लिया।
बडकी अम्मा आखिर तक हमारे आसरे ही रहीं, फिर इसका हकदार और कौन हो सकता है। रामेश्वर तो काठमांडू में अपना घर परिवार बसा चुका है। वर्षो से कोई सुधि नहीं ली। अम्मा से कोई मतलब होता तो आज यहाँ नहीं होता। अपने कुकृत्य की सफाई में दमदार तर्क गढा था उसने।
एक बार फिर उसकी पलकें थोडी खुलीं। आसपास बहुत लोग खडे थे पर किसी ने विरोध नहीं किया। उसे लगा, उसके आसपास जाने कितने गेहुँअन फुफकार रहे हैं मगर वो अब कुछ नहीं कर पायेगी। अब तो उसे अपनी सुध तक नहीं। उसे याद आयी वह घटना। दीपावली के दिन खुद दीवाल की सफाई पुताई कर रही थी। रामेश्वर वहीं खाट पर बैठा खेल रहा था। बाँस की सीढियों पर चढी वो अपने काम में मगन थी कि उसे लगा नीचे से कुछ आवाज आ रही है। उसने देखा, रामेश्वर की खाट के पास गेहुँअन बैठा हुआ है। झटके से वह सीढियों से खाट पर कूदी और रामेश्वर को लेकर दुआरे पर निकल आई। बच्चे को बाहर बिठाकर नथुआ की सहायता से तब साँप मारा था उसने।
जिस रामेश्वर के लिये उसने औरत का रूप तज पुरुष का बाना धारण किया, क्या वो सचमुच उसे तज दिया है मगर क्यों?
उसे लगा, जैसे बैल बिदक गये हों, टायर गाडी हिचकोले खा रही है, देह की सुध नहीं पर रामेश्वर कहाँ है, उसे कसकर पकड लूँ तो बैलों को काबू में करूँ। उसने मन ही मन टोह लिया। यहाँ तो रामेश्वर नहीं है। हाँये पुरानी बात हुई।
अतीत और वर्तमान के खोह में डगमग चेतना क्या उसे भ्रमित कर रही है..? साह जी के गुजरने के बाद खेतों की देखभाल, बुआई-कटाई का जिम्मा उसी का रहा। देहात से बैलगाडी में भर कर अनाज वह खुद लाती। एक दिन बीच रास्ते में बैल ऐसे बिदके कि वो गिरते-गिरते बची। हाँ रामेश्वर को उसने तब भी नहीं छोडा।
रात बहुत गुजर चुकी थी। रात के तीन बज चुके हैं रक्सौल की ट्रेन तो एक बजे पहुँच जाती है न..? जगन्ना प्रसा पोपले मुख से थाह थाह कर बोल रहे थे। लालटेन की मद्धिम रोशनी में उसने अधखुली आँखों से देखा, एक उन्हीं के चेहरे पर चिंता की छाया थी। जानती है वह, उनकी हमदर्दी हमेशा उसके साथ थी। बाकी तो पीठ पीछे उसके मर्दाना रूप की परिहास ही करते थे।
आशा की अंतिम डोर भी अब टूट रही थी। रामेश्वर नहीं आयेगा अब। कब तक उस अंधेरी सुरंग से गुजर कर मैं फिर-फिर लौटती रहूँ उसके इंतजार में। सुरंग के उस छोर पर साह जी खडे हैं। मुझे उनसे भी तो मिलना है, फरियाद जो कहना है।
उसने पलकें मूँद लीं। चेतना थोडी अब भी शेष थी। कहीं ऐसा न हो, रामेश्वर के इंतजार में मैं सुरंग में ही भटकती रह जाऊँ और साह जी भी लोप हो जायें।
पलकों को उसने यथाशक्ति दबाया। थमे हुए आँसुओं की बूंदें बह चलीं जैसे इस अंतिम समय में अपनी अंतिम इच्छा को श्रद्धांजलि दी हो। उसने धीरे-धीरे शरीर को यूँ ढीला छोड दिया जैसे जी तोड मेहनत करने के बाद थककर निश्चिंत सोती रही थी कभी।
चार बज चुके थे। धीरे-धीरे भोर का उजास फैल रहा था। अब वो दुनियादारी बंधन से आजाद थी। सुरंग के उस पार खुले आसमान में विचरती हुई, एकदम हल्की रोशनी से एकाकार।

- सीमा स्वधा
(दैनिक जागरण के पुनर्नवा में प्रकाशित)

सुहाना मौसम

झमाझम बारिस हो रही है.....


मौसम सुहाना है...


आगे लिखने के लिए शब्द नहीं मिल रहें.....

भाई के लिए...

यह कविता सीमा स्वधा की पहली प्रकाशित रचना है जो कि संभवा पत्रिका के जनवरी-मार्च १९९५ के अंक में प्रकाशित हुई थी। पेश है रक्षाबंधन के मौके पर भाई के लिए लिखी गई यह कविता :


अमित मेरे भाई !
तुम कब हो गये इतने बड़े
अभी कल ही की बात है
खेलते थे तुम मेरी गोद में
और मैंने सिखाया था तुम्हें
वर्णमाला के प्रथम अक्षर
तुम्हारे मासूम, अनगढ़ चेहरे पर
लिखा था प्यार
बहुत दिनों बाद देखा आज तुम्हें
करते हुए बहस
सांप्रदायिकता, राजनीति, दर्शन....
औरतों के अधिकार और अस्मिता पर
और मैं हैरान सी देखती रही
मेरी गोद से उतर कर
कब जा बैठे तुम पिता की जगह
देते हुए हिदायत
क्या अच्छा क्या बुरा
मेरे लिए
-एक स्त्री के लिए
और मेरे भीतर की
असुरक्षित बच्ची का वजूद
स्वीकारता चला गया वह सब कुछ
यंत्रचालित
और निर्विरोध!

मंगलवार, अगस्त 04, 2009

एक राखी ऐसी भी थी

डेंग-पानी

कल ही
खेलकर आया था
डेंग-पानी!
चचेरी बहनों के संग,
बचपन के दिनों की
याद ताज़ा करने के निमित्त।
खूब खेला
और खेलते-खेलते
भूल गया कि रिश्ते भी
अब डेंग और पानी हो चले हैं।
आज राखी है ।
सगी बहन दूर परदेस से
भेज चुकी है रेशमी राखी।
पर न जाने डाक में कहाँ गुम हो गई।
इंतज़ार था कि कोई चचेरी बहन
ही सुनी कलाई पर बंधेगी आज
राखी।
पर टकटकी लगाये
शाम हो चली।
छा गया सन्नाटा चहुओर,
टूटे रिश्तों के मानिंद।

- सौरभ के.स्वतंत्र
(दैनिक जागरण के पुनर्नवा में प्रकाशित)

चाय चालीस रुपये प्रति किलो महँगी..

सीमा स्वधा जी की औरत पर केंद्रित एक कविता पर एक पाठक ने टिपण्णी दी थी:
मेरे घर में हर रोज यही सवाल उछलता है
कि पत्नी और चाय में पहले कौन उबलता है।

आज जब मै सुबह उठा तो चाय की पत्ती खत्म थी। दरअसल सुबह-सुबह चाय की चुस्की लेना मेरी आदत रही है। बाजार से चाय मंगाया तो पता चला चाय अब चालीस रुपये महँगी हो चली है।

लिहाजा, मै इसी सोच में पड़ा हूँ कि जब शादी करूंगा तो चाय और पत्नी में पहले कौन उबलेगा?

अजब विडम्बना है....

लाख बांधों हमें जंजीर से...

स्वतंत्रता संग्राम में हिंदी पत्रकारिता

परम आदरणीय मंजरी जोशी जी(पूर्व समाचार वाचिका,दूरदर्शन ) को सादर..

शायद हम भूल रहें सच्चे पत्रकारों को... उनकी याद दिलाने की एक कोशिश !

हिंदी पत्रकारिता का आगाज तो 19वीं शताब्दी के मध्य में उदंड मार्तण्ड अखबार के साथ हुआ। और फिर मालवा अखबार, मार्तण्ड, बंगदूत, केसरी आदि अखबारों ने 19वीं शताब्दी में अपने आप को राष्ट्र के प्रति समर्पित किया। पर 20वीं शताब्दी के आरंभ में जो भी अखबार निकले उनमें भारत की स्वतंत्रता का नारा पूर्णरूपेण परिलक्षित हुआ। 20वीं शताब्दी के शुरूआत में हिंदी पत्रकारिता की मूलतः दो धाराएं थीं:
१.राजनीतिक
२. साहित्यीक

पर दोनों का मकसद एक था। स्वराज।और स्वराज के लिए इन अखबारों के संपादक कुछ भी कर गुजरने का तैयार थें। हिंदी प्रदीप का यह प्रतिनिधि वाक्य

लाख चाहे बांधों तुम जंजीर से,
वक्त पर फिर भी निकलेंगे हम तीर से।
जाहिर करता है कि उस समय हिंदी पट्टी के पत्रकारों में देश के लिए सर्वस्व निछावर करने का जज्बा था।20वीं शताब्दी के आरंभ में अंग्रेजी प्रशासन भारत में जातीय विभाजन का लाभ उठाते हुए रही-सही जातीय शक्ति को खंडित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।विश्वविद्यालयों को सरकारी नियंत्रण में लाया गया, जिससे शिक्षा महंगी हो गई। भारतीय लोगों के चरित्र को उथला और खोखला बता कर प्रचारित किया गया। इसी बीच तिब्बत से आक्रमण और बंगाल विभाजन ने एक ओर भारत को तोड़ा और इसके फलस्वरूप् एक नई चेतना जागृत हुई। जिससे स्वदेशी आंदोलन का जन्म हुआ। इस समय अभ्युदय, आज, मर्यादा, प्रभा, भारत उदय, विश्वमित्र, संध्या, युगांतर, वंदे मातरम जैसे पत्र प्रकाशित होते थें। जिनके संपादकीय टिप्पणियों के माध्यम से पूर्ण स्वराज की मांग उठने लगी।

इस समय के कुछ क्रांतिकारी लेखक थें माधव राव सप्रे, प्रताप मिश्र, विष्णु पराड़कर, माखनलाल चतुर्वेदी, महावीर प्रसाद द्विवेदी, अंबिका प्रसाद वाजपेयी, प.बालकृष्ण भट्ट, विपिन पाल, रविंद्रनाथ ठाकुर, अरविंद घोष आदि।

1903 में भारतमित्र (दुर्गा प्रसाद मिश्र) अखबार में शिवशंभू के चिट्ठे की पहली किस्त प्रकाशित हुई। लार्ड कार्जन को ललकारते हुए संपादक ने लिखाः

"आप बारंबार अपने दो कर्मो का वर्णन करते हैं, एक विक्टोरिया मेमोरियल हॉल और दूसरा दिल्ली दरबार। पर जरा सोचिये ये दोनों काम शो है या ड्यूटी? विक्टोरिया मेमोरियल हॉल चंद पेट भरे अमीरों के एक दो बार आने की चीज होगी। इससे दरिद्रों का कुछ दुःख घट जावेगा? इस देश में आपने ध्यान नहीं दिया, न हीं यहां कि दिन/ भूखी प्रजा का विचार किया। कभी दस मिठे शब्द सुनाकर न हीं उत्साहित किया। फिर विचारिये तो गालियां यहां के लोगों को किस कृपा के बदले आपने दी?"

1905 में बंगाल विभाजन की घोषणा के बाद भारतीय अखबारों ने बंग-भंग का कड़ा विरोध करते हुए, इसे राष्ट्र हितों पर कुठाराघात बताया गया। अंबिका प्रसाद वाजपेयी का 1907 में नृसिंग अखबार में प्रकाशित लेख स्वराज की आवश्यकता को काफी सराहा गया। वहीं जब युगांतर ने पूर्ण स्वतंत्रता का नारा दिया और बड़ी निडरता से बम बनाने की विधि छापी तो अंग्रजों के पैर तले जमीन खिसक गयें। जिसका फलसफा यह हुआ कि युगांतर को उनके कोप का भाजन बनना पड़ा।1909 में जब युगांतर का अंतिम अंक निकला तो उसका नया मूल्य था:

" फिरंगी का कटा हुआ सर"
वहीं हिंदी प्रदीप को भी अंग्रेजों के दमन का शिकार होना पड़ा। दरअसल, प्रदीप में माधव शुक्ल की कविता जरा सोचो तो यारो ये बम क्या है? प्रकाशित हुई थी।इस दौर में केसरी पत्र का स्वर भी काफी तीव्र था। हिंदी केसरी के मुख्य पृष्ठ पर ये निर्भिक वाक्य होते थें-

सावधान! निश्चिंत होकर न विचरना, जब देश की जनता निंद से उठ जाएगी, तब तुम्हारी खैर नहीं।

1913 में गणेश शंकर विद्यार्थी ने कानपुर से साप्ताहिक अखबार प्रातप निकाला। तमाम क्रांतिकारी प्रताप के कार्यालय में जुटते थें और वहीं से उन्हें क्रांति की खुराक मिलती थी।1919 में दशरथ प्रसाद द्विवेदी ने गोरखपुर से स्वदेश पत्र निकाल उत्तर भारत में स्वाधिनता आंदोलन का परचम लहराया।1919 के बाद सैनिक, कर्मवीर, अभ्युदय, स्वतंत्र और आज राष्ट्रीय आंदोलन के क्रुर दमन के बावजूद मोर्चे पर डटे रहें। ब्रिटीश सरकार ने जब स्वतंत्र विचारों और समाचारों के प्रकाशन पर रोक लगा दी थी तब विष्णु पराड़कर जी ने अपने सहयोगियों के साथ मिलकर रणभेरी अखबार निकाला। उस समय रणभेरी और आज दोनों के प्रेस पर फिरंगियों ने ताला जड़ दिया ।फिर पराड़कर जी ने रणभेरी गुप्त रूप से निकलना शुरू किया। एक पैसे के इस अखबार में

संपादक का :नाम सीताराम और
प्रकाशक का :नाम पुलिस सुप्रीटेंडेंट, कोतवाली, बनारस छपा।

पुलिस रणभेरी के प्रेस का पता लगाने में नाकामयाब हुई। रणभेरी की एक टिप्पणीः
"ऐसा कोई शहर नहीं जहां से रणभेरी जैसा पर्चा न निकलता हो। अकेले बंबई में इस समय ऐसे एक दर्जन पर्चे निकल रहे हैं। दमन से द्रोह बढ़ता है, इसका यह अच्छा सबूत है, पर नौकरशाही के गोबर भरे गंदे दिमाग में इतनी समझ कहां? वह तो शासन का एक ही अस्त्र जानती है- बंदूक।"

गांधी जी ने भी पत्रकारिता की। पहले वे टाइम्स ऑफ़ इंडिया और अमृत बाजार में लेख लिखते थें। 1903 में चार भाषाओं में इंडियन ओपिनियन निकाला।1914 में भारत लौटने के बाद वे जब भारतीय राजनीति में सक्रिय हुए। तो उन्होंने एक पत्र निकालने की योजना बनाई। 1919 में एक पृष्ठ का बुलेटेन सत्याग्रह निकाला।फिर नवजीवन और यंग इंडिया। नवजीवन का नाम बदलकर उन्होंने हरिजन कर दिया।
विदेश में रहने वाले क्रांतिकारियों ने भी कई अखबार निकालें, जिनमें गदर एक था। वास्तव में गदर-गदर पार्टी का पत्र था, जो कनाडा और अमेरिका में बसे भारतीयों का आवाज बना। इसके पहले अंक में एक प्रश्नोत्तरी छपी--
-आपका नाम क्या है?
गदर
-आपका काम क्या है?
गदर
- गदर कहां होगा?
हिंदुस्तान में।
- गदर क्यों होगा?
क्योंकि अब लोग ब्रिटीश सरकार के अत्याचार को और सहन नहीं कर सकते हैं।


वाकई हिंदी पत्रकारिता ने स्वतंत्रता संग्राम में जो अपना अमूल्य एवं साहसिक योगदान दिया वह उल्लेखनीय है। ऐसी साहसिक पत्रकारिता को मेरा सलाम।

- सौरभ के स्वतंत्र
(लेख में निहित तथ्य किसी भी पुस्तक से साभार हो सकते हैं, दरअसल ये तथ्य मैंने अपने अध्ययन काल में बनायीं गयी नोट्स से ली हैं..जो कि मुझे आज अपने आलमारी साफ़ करने के क्रम में मिली..और मुझे मेरी गुरु आदरणीय मंजरी जोशी जी याद आ गयी.)

सोमवार, अगस्त 03, 2009

एक कोशिश

मुझे नहीं पता
हालात बदलेंगे ही
पर मेरी कोशिश जारी रहेगी
इतना तय है
सूरज ने कब सोचा
उसका आना
जीवन का अनिवार्य तत्व है
एक सायास कोशिश नहीं
मेरा संघर्ष भी
मुझसे अभिन्न है
लगभग मेरे वजूद की तरह.
संभव है
हालात बदल जायें
और पा सकूं मैं अपना अभीष्ट
पर जानती हूं मैं
मेरा संघर्ष
तब भी जारी रहेगा
हालात को और......और...
बेहतर बनाने की दिशा में
ताकि भरा जा सके
कुछ और बेरंग आकृतियों में
मनचाहा रंग
दी जा सके
थोड़ी और पुख्ता जमीन
उन लहुलुहान सपनों को
और की जा सके बातें
बेधड़क/ जिंदगी से
आंखों में आंखें डालकर।

- सीमा स्वधा

तुम

फर्क सिर्फ़ इतना है कि
तुम स्त्री हो मै पुरूष
फिर ये दीवार क्यों?

रविवार, अगस्त 02, 2009

मीडिया और ब्लॉग का आंकड़ा

आजकल ब्लॉग पर हो रही हैं
मीडिया की चर्चाएं
कोई खींच रहा है कोई तान रहा है
कोई रगड़ रहा है कोई घसीट रहा है
कोई लताड़ रहा है कोई दुत्कार रहा है
वहीं आदमी चेहरा बदल
चैनलों को आंखे फाड़ देख भी रहा है
जनाब ये ब्लाग है
इसकी तासीर खींचने
और तानने में हीं स्वाद देती है
शायद यहीं वजह है
ब्लॉग पर अक्सरहां मीडिया की हीं चर्चाएं होती हैं।

- सौरभ के.स्वतंत्र

मेरा मन

आजकल मुझे ब्लौगियाने का
कुछ ज्यादा ही जी कर रहा है।
स्नेह जो मिल रहा है।

शनिवार, अगस्त 01, 2009

अकेले में

हम सिर्फ अकेले में ही
अकेले नहीं होते,
दरअसल
अकेलापन उपजता है
मन के भीतर
पसरता है हाव भाव से
आँखो से होता हुआ
सारे वजूद तक.

तभी तो
तन्हाइयों में होता है
अक्सर / भीड़ सा एहसास।
और भीड़ में
करते हैं हम
अकेलेपन की तलाश।

- सीमा स्वधा

डेंग-पानी

कल ही
खेलकर आया था
डेंग-पानी!
चचेरी बहनों के संग,
बचपन के दिनों की
याद ताज़ा करने के निमित्त।
खूब खेला
और खेलते-खेलते
भूल गया कि रिश्ते भी
अब डेंग और पानी हो चले हैं।

आज राखी है ।
सगी बहन दूर परदेस से
भेज चुकी है रेशमी राखी।
पर न जाने डाक में कहाँ गुम हो गई।
इंतज़ार था कि कोई चचेरी बहन
ही सुनी कलाई पर बंधेगी आज
राखी।
पर टकटकी लगाये
शाम हो चली।
छा गया सन्नाटा चहुओर,
टूटे रिश्तों के मानिंद।


- सौरभ के.स्वतंत्र
(दैनिक जागरण के पुनर्नवा में प्रकाशित)