सच हम नहीं, सच तुम नहीं, सच है महज संघर्ष ही!

सोमवार, जून 07, 2010

एक कतरा प्यार...

तुम नित निहारती हो,
धूप और छाव के बीच पलके बिछाती हो,
साईकिल की घंटी बजाता पास वाला हलवाई
तुम्हे देखता है कि तुम्हारी नजरे किधर गडी हैं,
पर तुम लीन हो
अपने उस बेइंतहा प्यार को जताने के लिए,
मसलन एकटक निहारना,
माँ की चौका घर से आवाज़ पर भी
तुम निहारती ही रहती हो,
जैसे बार्डर पर एक सैनिक निहारता है
सीमा के उस पार से आने वाले पंक्षियों को,
पर वह मानता है अपने अफसरान का हुक्म,
पर तुम तो अभी भी निहार रही हो,
कुछ क्षणों के लिए
माँ की चिल्लाने को नजरंदाज करके,
जैसे कि मौके की तलाश है
न जाने कितने दिनों से,
आज तो वह देखे इस तरफ,
फिर देखती है तुम्हे तुम्हारी छोटी बहन
और नजरंदाज कर जाती है
तुम्हारे निहारने को,

आज मौसम सुहाना है
तुम फिर उम्मीद लिए चढ़ती हो रोज की तरह
आज भी छत पर
विडंबना यह कि वह भी है अपने छत पर
पर न जाने क्यों नही देखता है वो,
क्यों नही देखता है वो वह बेपनाह प्यार
जो उसकी सांसों में हैं
फिर पुनः बैरंग उतर आती हो तुम
हर रोज कोई न कोई तुम्हे देखता
और तुम्हारी चर्चाए करता है
चौराहे-नुक्कड़ पर,
तुम्हे चरित्रहीन कहा जाने लगता है,
तुम्हारा दोष इतना कि
तुम अपने पहले प्यार का
इज़हार करना चाहती हो
घर की देहरी लांघे
बिना ही जीना चाहती हो
अपना एक कतरा जीवन...
एक कतरा प्यार..

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