सच हम नहीं, सच तुम नहीं, सच है महज संघर्ष ही!

शुक्रवार, जुलाई 31, 2009

ये है हमारा भारत !

ये है हमारा भारत...जहाँ बीस रुपये में भी कटती है जिंदगी!
छाया: सौरभ के.स्वतंत्र

पिता और नी रिप्लेसमेंट

अभी अभी
लौटे हैं पिता एम्स से
डॉक्टर की हिदायतें और सुझाव
टटका हैं अभी
आँखों में छायी उदासी
और दर्द का मिला जुला भाव
माँ के चहरे का साझीदार है
नी रिप्लेसमेंट शब्द एकदम
अजनबी तो नहीं वजनी जरूर है
'किसके साथ बांटा जाए इसे'
धीरे से फुसफुसाती है माँ
'सीढियां चढ़ने की सख्त मनाही है
नीचे ही बंदोबस्त करना होगा'
कैसी बिडम्बना है ये
जिनके बदलौत चढ़े हैं कोई
सफलता की सीढियाँ
आज उन्हें सीढियों पर चढ़ने तक की मनाही है
उठाया जिसने आज तक
पूरे परिवार का बोझ
आज उनका बोझ
उनके घुटनों को भारी पड़ रहा है

अपने सपनो को
हाशिये पे रख
अपनों के सपनों को मनचाहा आकार देन के क्रम में
उन्होंने कब सोचा होगा भला
कि अपनों के सपने सगे तो होते हैं
नितांत अपने नहीं
मसलन बेटे के सपनों की सहभागी बहू
बेटी के सपनों का वो अनजाना
सहोदर होने के बावजूद
भाई के सपनों की मंजिल में भी
कोई हिस्सेदारी नहीं होती
सच पूछा जाये तो सपने बेवफा होते हैं
खासी हिम्मत और धैर्य की
जरूरत होती है
दूसरों के सपने पालने में
हाँ सपने गर अपने होते
पूरा होने पर अंत तक साथ निभाते हैं
काफी हताश हैं पिता
जानती हूँ
ये हताशा महज घुटनों की बेवफाई नही
वरन कहीं न कहीं
भौतिकता की इस अंधी दौड़
में टूटते विशवास और दरकते सपनों
का दर्द भी है।

- सीमा स्वधा
(दैनिक जागरण के पुनर्नवा में १३ जनवरी'२००६ को प्रकाशित)

गुरुवार, जुलाई 30, 2009

अर्थहीन..

उम्र की दहलीज
चढ़ते चढ़ते
अचानक/समय ठहर सा गया है
चाँद लापता है
जाने कब से/और सूरज
सिर पर टंग गया है।
इस ठहरे हुये समय में
बदलते अवसरों के गवाह
उस आइने में
एक चालीस के करीब पहुँच रही
अर्थहीन हो चुकी औरत को
आजकल
चौदह साल की बच्ची दिखती है
जिन्दगी के प्रति जोश से लबालब
अन्जान राहों पर
बेखौफ बढती हुई
अक्सर लगता है
प्यार और विश्वास के
सारे सन्दर्भ बदल से गये हैं
आहिस्ता आहिस्ता
कई कई रिश्ते
जो मायने रखते थे
तब भी/आज भी
बदले बदले से क्यों लगते हैं
जानती है औरत
पति की जरुरत है वो
और बच्चों के लिये अपरिहार्य
पर उसकी जरुरतों का
कोई कोना अनछुआ, वीरान भी
तमाम शोर और भागमभाग के बीच भी
अकेलेपन से जूझती औरत
थक जाती है
तमाम रिश्तो से घिरी
खुद से अन्जान औरत
जीती जा रही है
एक बेमतलब सी जिन्दगी
उसी चौदह साल की लड़की से
उधार मांग कर
कतरा कतरा जोश
बूंद बूंद प्यार।

- सीमा स्वधा

बुधवार, जुलाई 29, 2009

अब गुरु ने बच्चियों को किया निर्वस्त्र...अथाह पीड़ा है

बात विदिशा की है। बात मध्य प्रदेश की है। बात भारत की भी है। बात हमारी संस्कृति की भी है। बात मानवता की भी है। बात पापियों की भी है। बात गुरु-शिष्य सम्बन्ध की है। पीड़ा हीं पीडा है। सभी भोगे जा रहे हैं। अब इसे क्या कहे! जब गुरु हीं बच्चियों को भोगने का प्रयास करता हो। पांचवी कक्षा की बच्चियों को। न शर्म-न हाया। यह सोच कर मन में करंट प्रवाहित हो जाता है। ऐसी घटना / पाश्विक प्रवृति को सुनाने के बाद उस गुरु को बीच चौराहे पर लटकाने का मन करता है। मध्यप्रदेश के विलुप्तप्राय सहरिया अनुसूचित जनजाति की पांचवी कक्षा की आठ छात्राओं की वर्दी का नाप लेने के नाम पर उनके कपड़े उतरवा जाने के बाद कहना न होगा की बच्चियां अब स्कूल में भी सुरक्षित नही हैं। गुरु जिसे भगवान् का दर्जा दिया जाता है उनसे हमारी बच्चियों को खतरा है। गुरुजी के द्वारा दो-दो कर आठ सहरिया आदिवासी छात्राओं को बंद कमरे में बुलाना और उनके ऊपरी वस्त्र उतरवाकर इंच टेप के बिना वर्दी का नाप लेना क्या जाहिर करता है ? वाकई एक बार फिर मानवता शर्मशार हुई। एक बार फिर हमारे सभ्य होने पर प्रश्न चिह्न लग गया। गुरु-शिष्य सम्बन्ध में दरार आ गया। निश्चित हीं ऐसे पापिष्टि गुरु को बीच चौराहे पर लटका देना चाहिए...ताकि फिर कोई ऐसा करने से पहले एक हज़ार बार सोचे। पटना, सीतामढी और विदिशा की घटना के बाद धूमिल की ये पंक्तियाँ याद आती हैं:

"औरत : आँचल है,
जैसा कि लोग कहते हैं - स्नेह है,
किन्तु मुझे लगता है-
इन दोनों से बढ़कर
औरत एक देह है।"

- सौरभ.के.स्वतंत्र

मंगलवार, जुलाई 28, 2009

अजन्मा

ना जाने
कितने छंद/कितने तुक
और कितने लय से सजी
कवितायें उपजी
मन में
और खो गईं
छटपटा कर
अपने वजूद की तलाश में।
दरअसल
जो भी/ जितना भी
और जैसे भी
सोचते हैं हम
नहीं हो पाती सारी कविता
पर होती तो हैं
हमारे एहसास का
जीवंत हिस्सा
या कविता का उत्स
यूं कहें
अजन्मी कविता
अक्सर तन्हाई में
किन्हीं उदास पलों में
अचानक
कौंधता है
कोई मुखड़ा/ कोई बंद
और मैं शिद्दत से
महसूसती हूँ , डूब जाती हूँ
उन अजन्मी
कविताओं के दर्द में।

- सीमा स्वधा

सोमवार, जुलाई 27, 2009

फिर-फिर होता चीरहरण..

अभी पटना में खुशबू के निर्वस्त्र किए जाने का मामला ठंडा नही हुआ था कि मां सीता की धरती सीतामढी में दबंगों ने दलित महिला पर जुर्म कर एक बार फिर मानवता को शर्मसार कर दिया है/ जता दिया कि हमारी नियति ही मानवता के मुंह पर कालिख पोतना है। ऐसे मा*रों ने हीं हमारे सभ्य होने पर भी प्रश्न चिन्ह लगा दिया है। बीते दिनों रीगा की एक महिला को पंचायत में निर्वस्त्र कर सलाखों से दागे जाने का मामला भी प्रकाश में आया था। और इधर बीते २५ जुलाई को एक दफा फिर सीतामढी में एक दलित महिला को निर्वस्त्र कर पिटाई की गयी। उस अबला का कुसूर सिर्फ इतना था कि खेत में बकरी चले जाने पर लम्पटों द्वारा बेटे की पिटाई का उसने विरोध किया। लिहाजा, कुछ बहशियों ने एक माँ/बहन समान महिला का चीरहरण कर दिया। सवाल यह उठता है कि ऐसी कलुषित घटनाएँ सूबे में हो रही हैं पर उसका विरोध नही किया जा रहा है..बस भीड़ लगा कर तमाशबीन बने एक अबला की लुटती इज्जत को किसी फ़िल्म की तरह देख-सुन लिया जा रहा है। आख़िर क्या हो गया है बिहार को? क्या यह वहीँ बिहार है जो चोरों को / लुटेरों को भीड़ द्वारा पीट-पीट कर मारे जाने का साक्षी रहा है। तो फिर एक स्त्री के लुटते आबरू का विरोध क्यो नही? क्या अब हिजडों की फौज तैयार हो रही है सूबे में? क्या इस बार भी पटना के माफिक सुशासन बाबू सीतामढी में प्रशासनिक फेरबदल कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेंगे? सवाल तो कई हैं..पर जवाब?

- सौरभ के.स्वतंत्र

स्त्री

स्त्री हूं मैं
इसीलिये शापित होना भी
मेरी ही नियति है,
एक बार फिर
मूर्तिमान हो डटी है
अहिल्या मुझमें
अपनी तमाम वंचनाओं सहित
और तुम तो
निस्पृह गौतम हीं बने रहे,
उपेक्षा और अपमान की
प्रतीक वह
तिरस्कृत शिला
जाने कब तक
प्रतीक्षा करती रही
जो राम का,
पर मुझे इंतजार नहीं
किसी राम का
तुम्हीं तो हो
मेरे अभिशाप भी/
उद्धार भी।

- सीमा स्वधा

रविवार, जुलाई 26, 2009

मेले का यह दृश्य अजूबा:जरूर जाए और याद करें जो भूल गए

भाया नाग पंचमी मेला आइये देखे कैसे रिफिल होता है कोल्ड ड्रिंक्स..

प्रस्तुति : सौरभ के.स्वतंत्र

कारगिल के युद्घ के १० साल

शहीदों की चिताओं पर
लगेंगे हर बरस मेले,
वतन पे मिटने वालों का
यही बाकी निशां होगा।
" ऑपरेशन विजय के वीर शहीदों को सत-सत नमन"

साथ में सत्ता के उन नुमाइंदो को लानत जिन्होंने कारगिल में वीर जवानों की कुर्बानियों को सस्ता समझा। लिहाजा, संसद तथा मुंबई पर दुबारा हमले हुयें। और हद तो तब हो गई जब अफजल गुरु जैसे आतंकवादी को फांसी पर नहीं लटकाया गया। वाकई शहीदों की चितायों की राख में अभी कई ऐसे सवाल सुलग रहे हैं. जिनका उत्तर सरकार दे पाने में अक्षम है।

शनिवार, जुलाई 25, 2009

अब कहाँ है राज ठाकरे?

मनसे के चार कार्यकर्ता रेप के आरोप में गिरफ्तार
महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) के चार कार्यकर्ताओं को शनिवार को कथित तौर पर एक नाबालिग नौकरानी के साथ सामूहिक बलात्कार करने के आरोप में पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। वरिष्ठ पुलिस निरीक्षक प्रदीप सूर्यवंशी ने कहा कि गिरफ्तार किए गए गणेश गटकर, नरेन्द्र सोलंकी, गणेश काले और उमेश बोरादे को अंधेरी की अदालत में मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया गया, जहां से उन्हें 28 जुलाई तक पुलिस हिरासत में भेज दिया गया।प्रदीप ने कहा कि गत रविवार को लगभग दो बजे मनसे के चारों कार्यकर्ताओं ने नाबालिग का अपहरण कर लिया, जिसके बाद कथित तौर पर चारों ने उसके साथ एक उद्यान में सुरक्षा गार्ड के लिए बनाए गए केबिन में बलात्कार किया। पीड़िता ने शुक्रवार को पुलिस को इस संबंध में शिकायत दर्ज करवाई। मनसे के उपाध्यक्ष वी सारस्वत ने इस मामले पर कहा, "यह पार्टी की छवि खराब करने की साजिश है। हालांकि हम इस मामले की जांच कर रहे हैं और अगर आरोपी पार्टी कार्यकर्ता हुए तो उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जाएगी।"
(ख़बर : एनडीटीवी ख़बर से)

निर्वस्त्र महिला पर राजनीति

पटना में कतिपय लम्पटों द्वारा खुशबू को निर्वस्त्र किए जाने के बाद विपक्ष द्वारा राजीनीति किया जाना, मानसिक दिवालियापन की पराकाष्ठा है। वाकई ऐसी घटनाएँ हमारे समाज के लिए काला धब्बा है। पर इस मुद्दे की आंच पर राजनीतिक रोटी सेंकना शर्म को शर्मशार करने वाली बात है। सबके दिलो-दिमाग में यहीं प्रश्न उमड़-घुमड़ रहा है कि आख़िर कब सुधरेगा बिहार? पर मेरा मन बार-बार यही कह रहा है:

जंगल का तो भेड़िया
चकित खड़ा लाचार
खादीधारी मेमना
उससे भी खूंखार.
- सौरभ के.स्वतंत्र

शुक्रवार, जुलाई 24, 2009

कैसे जाने जायेंगे गाँव वाले साहित्यकार ?

वे साहित्य की सेवा तो पूरी निष्ठा से कर रहे हैं? पर वे गाँव में हैं। वे लिखते हैं साहित्य पीपल की छाओ में , चौका घर में अंगीठी के पास । आसमान तले-काई लगे छत पर बैठ वे देते हैं शब्दों में सौ-सौ गुना उर्जा । साहित्य को देते हैं वे नई ढाल । पर उनके पास मंच नहीं है । उनके पास वे साधन नहीं हैं, जिससे वे पहुँचा सके अपने समग्र साहित्य को । पाठकों में । वे छपते हैं कभी - कभार, किसी लघु पत्र - पत्रिकओं में । वे छपते हैं सहायता राशी से छपी किसी स्मारिका में । पर उनका वजूद हर वक्त उन्हें कोसता है....उन्हें निपट निक्कमा कहता है। क्योंकि , वे राजेंद्र यादव नहीं हैं । न हीं वे मन्नू भंडारी, मैत्रयी पुष्पा, अनामिका या अशोक बाजपेयी वगैरह हैं। हाँ , इतना जरूर की जो घून इनमे लगा है वही उनमे भी । ये वाले साहित्यकार तो जाने जायेंगे हर पीढी में । पर वे ?

दीजिये अपनी राय कि कैसे जाने जायेंगे वे साहित्यकार .... कैसे जानेगी हमारी आने वाली पीढी उनको?
कीजिये अपनी बेबाक टिपण्णी...

- सौरभ के.स्वतंत्र

गुरुवार, जुलाई 23, 2009

डायरी

उसने साफ किया
सारा घर
खिड़की तक लटक आये जाले
कोनों में जमी धूल
सीलन भरे बक्से को
धूप तक दिखा आयी
मगर खोला नहीं
बहुत दिनों से
कोने वाली बंद आलमारी
दरअसल
वो जुटाती रही हौसला
सामना करने का/अतीत का
जिंदगी के सफे से गायब
उन पन्नों में लिखी इबारत का
उस बन्द आलमारी में
कैद है
कितने सपने/ कितनी ख्वाहिशे
अधूरी सी
बोतल में बंद जीन की तरह
यकायक
जाने क्या हाथ आया
तमाम उथल-पुथल मचा गया
बह चला सैलाब भी
आंखों की कोरों को तोड़कर
हां
उसकी हाथों में थी
बीते वर्षों की डायरी।
- सीमा स्वधा

बुधवार, जुलाई 22, 2009

स्लीपर बोगी का सच

खैनी का निर्ममता से रगड़ा जाना,
जूते को बेरहमी से पंखे से लटकाना,
पानी की बोतल को चलती ट्रेन से फेकना,
गुटखा को क्रुरता से चबाये जाना,
धक्का-मुक्की कर सिट का रौंदा जाना,
पानी को सहयात्री के सर पर गिराना,
टॉयलेट को खोल कर बैठ जाना,
बड़ा हीं नासाज लगता है,
पर क्या करें?
भारत का भरता बनाना
हमें खूब आता है।

- सौरभ के.स्वतंत्र

बुधवार, जुलाई 15, 2009

टापू

जानती हूं मैं
सागर हो तुम
अथाह, विस्तृत, उन्मुक्त
और मेरी इयत्ता
एक नौका भर है
जानते हो तुम!
उभचुभ सांसों को संभाले
ढूंढती हूं मैं
कोई टापू
प्रेम का, विश्वास का
जहां ले सकूं मैं
चंद सांसे
सुकून की।

- सीमा स्वधा