सच हम नहीं, सच तुम नहीं, सच है महज संघर्ष ही!

रविवार, जून 06, 2010

डायरी

उसने साफ किया

सारा घर

खिड़की तक लटक आये जाले

कोनों में जमी धूल

सीलन भरे बक्से को

धूप तक दिखा आयी

मगर खोला नहीं

बहुत दिनों से

कोने वाली बंद आलमारी

दरअसल

वो जुटाती रही हौसला

सामना करने का/अतीत का

जिंदगी के सफे से गायब

उन पन्नों में लिखी इबारत का

उस बन्द आलमारी में

कैद है

कितने सपने/ कितनी ख्वाहिशे

अधूरी सी

बोतल में बंद जीन की तरह

यकायक

जाने क्या हाथ आया

तमाम उथल-पुथल मचा गया

बह चला सैलाब भी

आंखों की कोरों को तोड़कर

हां

उसकी हाथों में थी


बीते वर्षों की डायरी।


- सीमा स्वधा

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