मत निहार/ऐ लड़की
उन्मुक्त क्षितिज को,
इस पार से उस पार तक
जो स्वप्निल फैलाव है
मत बाँध/ख़ुद को
उन्मुक्तता के आकर्षण में
कि/ क़तर दिए जायेंगे
तेरे पर/ गर तू
चिडिया होना चाहती है
और / बंद कर दिए जायेंगे
हर सुराख़/ गर तू
हवा होना चाहती है।
अल्हड उम्र है तेरी/ ठीक है
देख सपने/ जितना जी चाहे
पर/ मत भूल
कि जन्मी है तू
एक पर्म्पराबध घर की चार दीवारी में
कि / कैद कर दिया जायेगा
रौशनी का हर कतरा
गर तू/दीया होना चाहती है
और पट दिया जाएगा
आसमान/ गर तू
धूप होना चाहती है।
इसलिए / गर तुझे होना है
चिडिया /धूप / हवा/ रौशनी
रोप अपने मन में
आत्म शक्ति का बीज
अंकुरने दे/ स्वाभिमान का पौधा
और भर पांवों में/ संघर्ष की शक्ति
कि आयेंगे जाने कितने अंधड़
परम्पराओं के/ आभावों के
वरना / नाकाम जिंदगी की
अगली कड़ी भी तुझे ही होना है
एक कुंठित और मुखर औरत...!
- सीमा स्वधा
(संवेद वाराणसी के जनवरी - जून'०६अंक से )
behtareen kavita !
जवाब देंहटाएंएक उत्कृष्ट रचना .......बहुत बहुत बधाई
जवाब देंहटाएंwaah.........lajawaab.......behtreen..........shabd kam pad rahe hain tarif ke liye...........bahut hi sundar dhang se prastut kiya hai ek ladki aur uske darshan ko.
जवाब देंहटाएंइसलिए / गर तुझे होना है
जवाब देंहटाएंचिडिया /धूप / हवा/ रौशनी
रोप अपने मन में
आत्म शक्ति का बीज
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इस आत्मशक्ति की तलाश तो करनी ही होगी.
बहुत सुन्दर रचना ने मन मोह लिया
उत्तम अति उत्तम
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