अब जाकर बुखार कुछ कम हुआ है, लेकिन दर्द के मारे पोर-पोर रिस रहा है। नेहा ने सिर को झटका दिया, लग रहा है जैसे सिर पर कोई भारी बोझ-सा रखा है, इसलिए हमेशा वह पर्स में कुछ टैबलेट्स रखती है। पता नहीं कब किसकी जरूरत पड जाए। ऐसी स्थिति में बाजार तक जाना भी कैसे संभव हो पाएगा। नरेन शायद ऑफिस जा चुका है। साढे दस तो बज गए हैं। सारा घर अस्तव्यस्त है। पता नहीं, नरेन ने नाश्ता भी किया है या नहीं। नाश्ते की याद आते ही मन में कुछ खटक गया। कितना फर्क है उसकी और नरेन की सोच में। ऐसी हालत में भी उसे नरेन की चिंता है, जबकि नरेन ने झूठ-मूठ के लिए भी उसे एक कप चाय के लिए नहीं पूछा। उसे इस हाल में छोडकर कितने इत्मीनान से ऑफिस चला गया। माना कि ऑफिस जाना जरूरी रहा होगा, मगर क्या वह उससे हमदर्दी के दो बोल भी नहीं बोल सकता था! उसे जगा कर इतना तो पूछ सकता था कि तुमने दवा ली या नहीं या कैसी है तुम्हारी तबीयत? या बस इतना ही कह देता कि जा रहा है।
उसकी आंखें बरसने लगीं और मन भारी हो चला। यही वह बिंदु है, जहां नेहा खुद को इतना असहाय पाती है कि उसे अपने पर ही तरस आता है। उसे याद नहीं कि नरेन ने कभी उससे हमदर्दी जताई हो। अभी चार महीने पहले ही उसे मलेरिया हुआ था। ठंड और बुखार से हाल बेहाल हो जाता था, मगर डॉक्टर और नर्स के हवाले करके नरेन अपनी दिनचर्या में मशगूल था। तमाम व्यस्तताएं उसके इर्द-गिर्द आज भी थीं-ऑफिस, फाइल, क्लाइंट्स..कैसे नकार देता है नरेन इतनी सहजता से उसका वजूद, जबकि वह चाहकर भी कभी नफरत नहीं कर पाई इस शख्स से, जब भी कुछ ऊटपटांग बातें मन के किसी कोने से उठने लगतीं, तत्काल उन पर वे खयाल हावी हो जाते, जिनमें अपनेपन के सूत्र वह बडे जतन से तलाश करती। उन्हीं दिनों आंटी कुछ दिन के लिए हमारे घर आई। उन्हें कुछ काम था पटना में। नैना और निहाल की जिम्मेदारी कैसे निभा पाती वह, जबकि खुद सारा दिन बुखार में तपती रहती। आंटी के आने से उसे बडा सहारा मिला। नरेन भी आंटी को बहुत आदर देता था। उनकी शख्सीयत ही कुछ ऐसी है। नरेन को तो उनका बाहरी स्वरूप ही दिखता, लेकिन नेहा को आंटी का अंतरमन भी बडा अबोध असहाय और प्यारा लगता। जैसे किसी बच्चे पर किसी ने अन्याय थोप दिया हो और वह उसे स्वीकारने पर विवश हो गया हो।
आंटी व्याख्याता थीं और अंकल को शादी के समय इस पर कोई आपत्ति भी नहीं थी। लेकिन पता नहीं जिंदगी में कहां किस मोड पर अंकल के पौरुष.. को क्या खटका कि उन्होंने आंटी पर नौकरी छोडने का दबाव डालना शुरू किया। बिना किसी तर्क के सिर्फ अपनी इच्छा के अनुसार। आंटी के आत्मसम्मान को यह गवारा नहीं था। आिखर कोई वजह भी तो होनी चाहिए। बेबुनियाद शक के सिवा और क्या वजह हो सकती था। दिन-रात का कलह अंतत: उनके अलगाव में ही परिणत हुआ। कहने को तो आंटी ने सहारा ढूंढ लिया है अपने अकेलेपन का, लेकिन नेहा महसूस करती है आंटी अंदर से एकदम खोखली हैं -आहत, जिसे अपनों ने ही दर्द दिया हो। उसके लिए और कोई जख्म मायने नहीं रखता।
आंटी के आने से नैना और निहाल खुश थे। नेहा भी ठीक हो रही थी। नरेन देर रात तक लौटता और सुबह नाश्ता करने के बाद निकल जाता। घर के प्रति उसकी बेरुखी आंटी की अनुभवी आंखों से छिपी नहीं रही। तब नेहा ने सारी बातों को तरतीब से बताया। बातें सुनकर आंटी ने कहा-यह मत भूलो कि नरेन पुरुष है। उसके अपने अहम हैं, उन्हें सहेजकर ही तुम उसका प्यार पा सकती हो। समझौता करना सीखो नेहा।
आंटी मैं भले ही आपकी बेटी जैसी हूं, लेकिन यह मत भूलिए कि मैं एक प्रौढ होती औरत भी हूं। समझौतों से जिंदगी तो जी सकते हैं, लेकिन इससे प्यार नहीं पाया जा सकता और न दिया जा सकता है। मेरा अंतस एकदम सूना है आंटी, बिलकुल सूना।
नेहा लगभग रो पडी थी। आंटी का स्नेहिल स्पर्श उसे कुछ देर सहलाता रहा। अपनी भरी आंखों को पोंछ कर आंटी ने सहेजा उसे। पर नेहा तुम तो बहुत बहादुर थीं। इतनी जल्दी हार मान लोगी,! मैं जानती हूं अकेलेपन की पीडा क्या होती है। अकेली औरत और यह समाज! तुम्हें क्या लगता है जिंदगी इतनी आसान होती है! पर मैं क्या करूं आंटी।
मेरी मानो तुम एडजस्ट करने की कोशिश करो। नरेन दिल का बुरा नहीं है। वह सिर्फ व्यस्त है-मैं मानती हूं, लेकिन तुम चाहो तो उसे अपने अनुसार ढालने की कोशिश कर सकती हो। अब तक तो तुम अपनी अलग दुनिया में जीती रही हो, यथार्थ से परे मन के धरातल पर। अब भी समय है-कुछ तुम ढल जाओ, कुछ उसे विवश करो, सब ठीक हो जाएगा। आखिर यही तो एडजस्टमेंट है। शाम की चाय पीकर आंटी चली गई और रह गई नेहा। आंटी के उन तर्को के सहारे अपनी दुनिया संवारने की कोशिश में।
इतना तो नेहा को पता है कि प्रेम न बाडी उपजे, प्रेम न हाट बिकाय। वह नरेन को अपने व्यवहार से ही जीत सकती है। नेहा आज भी समझ नहीं पाती कि नरेन का यह अनमनापन क्यों है। हां कुछ करने और अपनी पहचान बनाने की ललक के तहत उसने नरेन पर अपनी नौकरी के लिए दबाव डाला था। नरेन का हमेशा यही तर्क होता, तुम्हें किस चीज की कमी है, मुझे बताओ। जवाब में नेहा चाहकर भी नहीं कह पाती। मन में सोचती रह जाती, भौतिक जरूरतों के अतिरिक्त भी तो जीने के लिए कुछ और बातें जरूरी होती हैं। शारीरिक जरूरतों से परे भी कुछ मानसिक जरूरतें होती हैं, तुम्हें नहीं लगता नरेन! नरेन की व्यस्तता और नेहा के खालीपन का टकराव आखिर कब तक चलता। बडी मुश्किल से उसने नरेन की सहमति पाई थी। नेहा का तर्क था कि इस तरह उसका खाली समय भी बढिया गुजरेगा और अतिरिक्त आमदनी से बच्चों के लिए भी कुछ किया जा सकता है। जब वह नेहा के तर्को से पराजित अनुभव करता तो बिलकुल चुप हो जाता। शायद यह असहमति जताने का उसका तरीका था। नेहा ने इस बात को महसूस भी किया, मगर नजरअंदाज कर दिया।
आिखर कितनी देर तक वह व्यस्त रख सकती खुद को टीवी, मैग्जींस या घरेलू कामों में। एक पत्नी के साथ-साथ वह एक इंसान भी तो है। उसके अपने भी कुछ सपने हैं, इच्छाएं हैं। उसकी नौकरी से नरेन को क्या आपत्ति हो सकती है-सिवा पुरुष होने के नाते, आहत अहम की चुनौती महसूस करने के सिवा। नेहा को चाय की जरूरत महसूस हो रही थी। दूध वाला अब तक नहीं आया था। इन तमाम सोचों को परे सरकाकर बहुत चाहा, उसने एक सामान्य दिनचर्या निबाहने की, लेकिन अब यह सोच अब उसके वजूद का हिस्सा बन चुकी है, जब तक कि कोई समाधान नहीं निकल आता। या कौन जाने जिंदगी ही ऐसी होती है, जानती है नेहा कि नरेन की जिंदगी में कोई दूसरी औरत भी नहीं। ना तब, ना अब। एक बार भावुक क्षणों में स्वीकारा था नरेन ने कि चाहा तो उसने भी था कई बार कॉलेज लाइफ में लडकियों से बातें करना या दोस्ती बढाना, पर हिम्मत ही नहीं पडती थी और बात करते वक्त तो जबान जैसे तालू में चिपक जाती थी। तब सचमुच हंस पडी थी नेहा।
घबराहट तो नेहा को भी होती थी लडकों से मिलने पर, क्योंकि उसने गर्ल्स स्कूल में ही पढा था अब तक। जब कॉलेज गई तो बहुत घबराई हुई थी-सबसे अलग-कटी कटी सी, लेकिन धीरे-धीरे वह खुलती गई। आखिर बुराई क्या है दोस्ती करने में? नेहा ने जैसे नरेन से नहीं, खुद से प्रश्न किया? मेरी तो संजय से बहुत पटती थी। हां भाई तुम्हारी बात ही अलग है। नरेन की आंखों में उभरते शक के साये को साफ देखा था उसने, मगर तत्काल स्पष्ट कर दिया कि उनके रिश्ते में ऐसा कुछ भी नहीं था, जिस पर शर्मिदा हुआ जाए। फिर भी तुम्हें अच्छा न लगा हो तो माफ कर देना, हम बस दोस्त थे।
उस समय नरेन सामान्य हो गया और अपनी दिनचर्या में व्यस्त भी। फिर नरेन के व्यवहार में परिवर्तन आने लगा। व्यस्त तो पहले भी था, अब और व्यस्त रहने लगा। लापरवाह तब भी था अपनी चीजों के प्रति, अपने प्रति-नेहा के प्रति, अब लापरवाही कुछ ज्यादा ही बढ गई। यहां तक कि नैना और निहाल के जन्म के बाद भी वह खुद को पूरी तरह बदल नहीं सका। कभी मूड में होता तो ढेर सारी बातें करता और कभी इतना अन्यमनस्क जैसे यहां हो ही नहीं, यहां तक कि दोनों के गृहकार्य वह खुद पूरा कराती। तमाम कामों तो निपटाकर वह नरेन की ओर देखती तो पाती कि वह मजे से किसी पुरानी पत्रिका के पन्ने पलट रहा है। उसे गुस्सा आता कि क्या बच्चे सिर्फ उसकी जिम्मेदारी हैं!
भूल से कभी नेहा टोक दे तो बिफर पडता। क्या चाहती हो दिन भर खटता रहूं आखिर किसके लिए? घर आकर दो घडी अपने मन की भी नहीं कर सकता मैं? इतनी आपत्ति है तो लो मैं जाता हूं यहां से? इतना कहकर छत पर आराम से लेट जाता-सो भी जाता, जैसे कुछ हुआ ही न हो। अब तो बच्चे बडे भी हो गए और हॉस्टल चले गए। मगर दस सालों बाद भी नरेन का व्यवहार वही है। जाने कौन सी फांस है नरेन के मन में, जो आज भी अपनी कसक जब-तब दिखा ही देती है। नेहा तो अब उसकी दिनचर्या में दखल देना छोड ही चुकी है, मगर कभी-कभी नरेन उसे नितांत अपरिचित क्यों लगता है? उससे खुल कर बात नहीं कर सकती। पता नहीं कौन सी बात उसे बुरी लग जाए। कहीं जाने की जिद नहीं कर सकती। ऐसी जिंदगी की कल्पना नहीं की थी उसने। उसने तो चाहा था परस्पर विश्वास, ढेर सारा प्यार-मनुहार। कुछ भी तो नहीं है उसके पास। नरेन मन ही मन उसे खंडित प्रतिमा समझता है, जिसे रखा तो जा सकता है मगर उसकी पूजा नहीं की जा सकती। पर नेहा का कसूर क्या है, यही कि नरेन ने ऐसा समझा। ऐसा सोचा-इसलिए वह वैसी है। कभी नरेन ने मुंह से तो नहीं कहा, लेकिन नेहा सब समझती है। उसका व्यवहार, उसकी आंखें, उनमें समाये हुए भाव सब जाहिर कर देते हैं। तभी दरवाजे की घंटी बजी। नेहा ने घडी पर निगाह डाली। पूरे बारह बज चुके हैं। दूधवाला होगा, उसने अंदाज लगाया। बाथरूम में जाकर उसने अपना चेहरा धोया, दूध लिया। दरवाजा बंद करके वह फिर वहीं बैठ गई। पैरों में थरथराहट थी, शायद कमजोरी की वजह से। पिछले दो दिनों से तो उसने ठीक से कुछ खाया भी नहीं। घर में दो ही तो हैं। एक वह है, दूसरा नरेन और नरेन को उसकी क्या परवाह हो सकती है भला। काश! मौत आसान होती, जिसके रास्ते में न तो किसी रिश्ते-नाते का वजूद होता, ना ममता की पुकार होती, ना जमाने का कलंक। आत्महत्या तो अच्छे-भले लोगों का चरित्र कलंकित कर देता है। वैसे भी ये तो बाद की बातें हैं। मरने के बाद दुनिया क्या सोचती है! मरने वाले ने कब जानना चाहा है! जब भी ऐसे खयाल मन-मस्तिष्क पर हावी होते, नैना और निहाल की भोली सूरत उसे निहारती हुई लगती और उसकी आंखें अनायास भर आतीं।
चाय पीकर नेहा को थोडी राहत मिली दर्द से। उसने खिडकी के बाहर झांका। मई की प्रचंड गर्मी में सूरज तप रहा था या सूरज के ताप से धरती। नेहा ने पर्दा खींच दिया। दवा का असर हो चला था। अब उसका बुखार कम हो गया था। उसने पंखा ऑन किया। विचारों के झंझावात से मन बोझिल हो चला था। उसने सोचा, शाम को आंटी से मिलने चली जाएगी- खगौल। वैसे भी नरेन आठ बजे से पहले कब आता है। पर यह तो कोई रास्ता नहीं समाधान का, बल्कि पलायन ही है। उसके और नरेन के बीच अपरिचय की खाई गहरी होती जा रही है। उसे लांघ कर कब तक पहल करती रहेगी नेहा। संवाद और सामंजस्य के सूत्र तलाशने ही होंगे वरना अकेलेपन से जूझता उसका वजूद अर्थहीन ही हो जाएगा एक दिन। आज जरूर पूछेगी आंटी से कि वह किस एडजस्टमेंट की बात कर रही थीं। यह एडजस्टमेंट किस तरह होता है! सचमुच बेतरह टूट चुकी है नेहा, बिखरने की हद तक, जहां कोई दूसरे पक्ष की बात बिना सोचे महज पूर्वाग्रह से ग्रस्त होकर नकार दे-वहां एडजस्टमेंट संभव है क्या? आंटी तो अनुभवी हैं, आत्मनिर्भर हैं और सोशल वर्कर भी। आज तो उनसे जरूर पूछेगी नेहा, कैसे एडजस्ट करूं आंटी? अपने आत्मसम्मान और इच्छाओं को परे धकेल कर सिर्फ मैं ही कब तक एडजस्ट करूं? क्या इसलिए कि मैं एक औरत हूं? मुझ पर ही एक घर को बचाने की जिम्मेदारी है! क्या पुरुष का कोई कर्तव्य नहीं होता? घर और बच्चो सिर्फ स्त्री के ही तो नहीं होते! लेकिन अब मैं क्या करूं! एक तरफ मेरी यह बिखरी हुई जिंदगी है, दूसरी तरफ अपनी तरफ आकर्षित करती मौत! जीने की कल्पना बेहद सुंदर है, मगर कोई कैसे जिए! जिंदगी और मौत के बीच जिंदगी का कोई तीसरा विकल्प भी है क्या? इन तमाम सवालों को दुहराती नेहा घर को व्यवस्थित करने में जुट गई..।
-सीमा स्वधा
(जागरण सखी के दिसम्बर'२००७ अंक में प्रकाशित)
बहुत सुंदर.... अच्छा लिखती हैं आप .....
जवाब देंहटाएंजब अकेलापन सताने लगे तो उसे दोस्त बना लो..सच मानो तन्हाई से बढ़कर कोई दोस्त नहीं है..!!
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