सच हम नहीं, सच तुम नहीं, सच है महज संघर्ष ही!

मंगलवार, अगस्त 04, 2009

लाख बांधों हमें जंजीर से...

स्वतंत्रता संग्राम में हिंदी पत्रकारिता

परम आदरणीय मंजरी जोशी जी(पूर्व समाचार वाचिका,दूरदर्शन ) को सादर..

शायद हम भूल रहें सच्चे पत्रकारों को... उनकी याद दिलाने की एक कोशिश !

हिंदी पत्रकारिता का आगाज तो 19वीं शताब्दी के मध्य में उदंड मार्तण्ड अखबार के साथ हुआ। और फिर मालवा अखबार, मार्तण्ड, बंगदूत, केसरी आदि अखबारों ने 19वीं शताब्दी में अपने आप को राष्ट्र के प्रति समर्पित किया। पर 20वीं शताब्दी के आरंभ में जो भी अखबार निकले उनमें भारत की स्वतंत्रता का नारा पूर्णरूपेण परिलक्षित हुआ। 20वीं शताब्दी के शुरूआत में हिंदी पत्रकारिता की मूलतः दो धाराएं थीं:
१.राजनीतिक
२. साहित्यीक

पर दोनों का मकसद एक था। स्वराज।और स्वराज के लिए इन अखबारों के संपादक कुछ भी कर गुजरने का तैयार थें। हिंदी प्रदीप का यह प्रतिनिधि वाक्य

लाख चाहे बांधों तुम जंजीर से,
वक्त पर फिर भी निकलेंगे हम तीर से।
जाहिर करता है कि उस समय हिंदी पट्टी के पत्रकारों में देश के लिए सर्वस्व निछावर करने का जज्बा था।20वीं शताब्दी के आरंभ में अंग्रेजी प्रशासन भारत में जातीय विभाजन का लाभ उठाते हुए रही-सही जातीय शक्ति को खंडित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।विश्वविद्यालयों को सरकारी नियंत्रण में लाया गया, जिससे शिक्षा महंगी हो गई। भारतीय लोगों के चरित्र को उथला और खोखला बता कर प्रचारित किया गया। इसी बीच तिब्बत से आक्रमण और बंगाल विभाजन ने एक ओर भारत को तोड़ा और इसके फलस्वरूप् एक नई चेतना जागृत हुई। जिससे स्वदेशी आंदोलन का जन्म हुआ। इस समय अभ्युदय, आज, मर्यादा, प्रभा, भारत उदय, विश्वमित्र, संध्या, युगांतर, वंदे मातरम जैसे पत्र प्रकाशित होते थें। जिनके संपादकीय टिप्पणियों के माध्यम से पूर्ण स्वराज की मांग उठने लगी।

इस समय के कुछ क्रांतिकारी लेखक थें माधव राव सप्रे, प्रताप मिश्र, विष्णु पराड़कर, माखनलाल चतुर्वेदी, महावीर प्रसाद द्विवेदी, अंबिका प्रसाद वाजपेयी, प.बालकृष्ण भट्ट, विपिन पाल, रविंद्रनाथ ठाकुर, अरविंद घोष आदि।

1903 में भारतमित्र (दुर्गा प्रसाद मिश्र) अखबार में शिवशंभू के चिट्ठे की पहली किस्त प्रकाशित हुई। लार्ड कार्जन को ललकारते हुए संपादक ने लिखाः

"आप बारंबार अपने दो कर्मो का वर्णन करते हैं, एक विक्टोरिया मेमोरियल हॉल और दूसरा दिल्ली दरबार। पर जरा सोचिये ये दोनों काम शो है या ड्यूटी? विक्टोरिया मेमोरियल हॉल चंद पेट भरे अमीरों के एक दो बार आने की चीज होगी। इससे दरिद्रों का कुछ दुःख घट जावेगा? इस देश में आपने ध्यान नहीं दिया, न हीं यहां कि दिन/ भूखी प्रजा का विचार किया। कभी दस मिठे शब्द सुनाकर न हीं उत्साहित किया। फिर विचारिये तो गालियां यहां के लोगों को किस कृपा के बदले आपने दी?"

1905 में बंगाल विभाजन की घोषणा के बाद भारतीय अखबारों ने बंग-भंग का कड़ा विरोध करते हुए, इसे राष्ट्र हितों पर कुठाराघात बताया गया। अंबिका प्रसाद वाजपेयी का 1907 में नृसिंग अखबार में प्रकाशित लेख स्वराज की आवश्यकता को काफी सराहा गया। वहीं जब युगांतर ने पूर्ण स्वतंत्रता का नारा दिया और बड़ी निडरता से बम बनाने की विधि छापी तो अंग्रजों के पैर तले जमीन खिसक गयें। जिसका फलसफा यह हुआ कि युगांतर को उनके कोप का भाजन बनना पड़ा।1909 में जब युगांतर का अंतिम अंक निकला तो उसका नया मूल्य था:

" फिरंगी का कटा हुआ सर"
वहीं हिंदी प्रदीप को भी अंग्रेजों के दमन का शिकार होना पड़ा। दरअसल, प्रदीप में माधव शुक्ल की कविता जरा सोचो तो यारो ये बम क्या है? प्रकाशित हुई थी।इस दौर में केसरी पत्र का स्वर भी काफी तीव्र था। हिंदी केसरी के मुख्य पृष्ठ पर ये निर्भिक वाक्य होते थें-

सावधान! निश्चिंत होकर न विचरना, जब देश की जनता निंद से उठ जाएगी, तब तुम्हारी खैर नहीं।

1913 में गणेश शंकर विद्यार्थी ने कानपुर से साप्ताहिक अखबार प्रातप निकाला। तमाम क्रांतिकारी प्रताप के कार्यालय में जुटते थें और वहीं से उन्हें क्रांति की खुराक मिलती थी।1919 में दशरथ प्रसाद द्विवेदी ने गोरखपुर से स्वदेश पत्र निकाल उत्तर भारत में स्वाधिनता आंदोलन का परचम लहराया।1919 के बाद सैनिक, कर्मवीर, अभ्युदय, स्वतंत्र और आज राष्ट्रीय आंदोलन के क्रुर दमन के बावजूद मोर्चे पर डटे रहें। ब्रिटीश सरकार ने जब स्वतंत्र विचारों और समाचारों के प्रकाशन पर रोक लगा दी थी तब विष्णु पराड़कर जी ने अपने सहयोगियों के साथ मिलकर रणभेरी अखबार निकाला। उस समय रणभेरी और आज दोनों के प्रेस पर फिरंगियों ने ताला जड़ दिया ।फिर पराड़कर जी ने रणभेरी गुप्त रूप से निकलना शुरू किया। एक पैसे के इस अखबार में

संपादक का :नाम सीताराम और
प्रकाशक का :नाम पुलिस सुप्रीटेंडेंट, कोतवाली, बनारस छपा।

पुलिस रणभेरी के प्रेस का पता लगाने में नाकामयाब हुई। रणभेरी की एक टिप्पणीः
"ऐसा कोई शहर नहीं जहां से रणभेरी जैसा पर्चा न निकलता हो। अकेले बंबई में इस समय ऐसे एक दर्जन पर्चे निकल रहे हैं। दमन से द्रोह बढ़ता है, इसका यह अच्छा सबूत है, पर नौकरशाही के गोबर भरे गंदे दिमाग में इतनी समझ कहां? वह तो शासन का एक ही अस्त्र जानती है- बंदूक।"

गांधी जी ने भी पत्रकारिता की। पहले वे टाइम्स ऑफ़ इंडिया और अमृत बाजार में लेख लिखते थें। 1903 में चार भाषाओं में इंडियन ओपिनियन निकाला।1914 में भारत लौटने के बाद वे जब भारतीय राजनीति में सक्रिय हुए। तो उन्होंने एक पत्र निकालने की योजना बनाई। 1919 में एक पृष्ठ का बुलेटेन सत्याग्रह निकाला।फिर नवजीवन और यंग इंडिया। नवजीवन का नाम बदलकर उन्होंने हरिजन कर दिया।
विदेश में रहने वाले क्रांतिकारियों ने भी कई अखबार निकालें, जिनमें गदर एक था। वास्तव में गदर-गदर पार्टी का पत्र था, जो कनाडा और अमेरिका में बसे भारतीयों का आवाज बना। इसके पहले अंक में एक प्रश्नोत्तरी छपी--
-आपका नाम क्या है?
गदर
-आपका काम क्या है?
गदर
- गदर कहां होगा?
हिंदुस्तान में।
- गदर क्यों होगा?
क्योंकि अब लोग ब्रिटीश सरकार के अत्याचार को और सहन नहीं कर सकते हैं।


वाकई हिंदी पत्रकारिता ने स्वतंत्रता संग्राम में जो अपना अमूल्य एवं साहसिक योगदान दिया वह उल्लेखनीय है। ऐसी साहसिक पत्रकारिता को मेरा सलाम।

- सौरभ के स्वतंत्र
(लेख में निहित तथ्य किसी भी पुस्तक से साभार हो सकते हैं, दरअसल ये तथ्य मैंने अपने अध्ययन काल में बनायीं गयी नोट्स से ली हैं..जो कि मुझे आज अपने आलमारी साफ़ करने के क्रम में मिली..और मुझे मेरी गुरु आदरणीय मंजरी जोशी जी याद आ गयी.)

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