"बिहार के पत्रकारों और सरकार को गरियाते एक संपादक" पोस्ट में संपादक की भूमिका में एस.एन.विनोद ही थे...उन्होंने इस बहस में शामिल होने की हामी भी भरी है...उनके द्वारा उसका सच पर जारी की गयी प्रतिक्रिया...आप भी शामिल हो इस बहस में कि बिहार के पत्रकारों की नीतीश राज में क्या स्तिथी है..
नीतीश और बिहार पर सार्थक बहस
- एस.एन.विनोद
'नीतीश का बिहार , नीतीश के पत्रकार' में बिहार की वर्तमान पत्रकारिता पर की गई मेरी टिप्पणी पर अनेक प्रतिक्रियाएं मिली हैं। विभिन्न ब्लॉग्स पर भी टिप्पणियां की जा रहीं हैं। कुछ सहमत हैं, कुछ असहमत हैं। एक स्वस्थ- जागरूक समाज में ऐसी बहस सुखद है। लेकिन मेरी टिप्पणी से उत्पन्न भ्रम को मैं दूर करना चाहूंगा।अव्वल तो मैं यह बता दूं कि अपने आलेख में मैंने कहीं भी बिहार अथवा नीतीश कुमार की आलोचना विकास के मुद्दे पर नहीं की है। मेरी आपत्ति उन पत्रकारों के आचरण पर है जो कथित रुप से सच पर पर्दा डाल एकपक्षीय समाचार दे रहें हैं या विश्लेषण कर रहें हैं। कथित इसलिए कि मेरा पूरा का पूरा आलेख एक पत्रकार मित्र द्वारा दी गई जानकारी पर आधारित था । अगर वह जानकारी गलत है तो मैं अपने पूरे शब्द वापस लेने को तैयार हूं। और अगर सच है तब पत्रकारिता के उक्त कथित पतन पर व्यापक बहस चाहूंगा। उक्त मित्र के अलावा अनेक पत्रकारों सहित विभिन्न क्षेत्रों के लोगों ने भी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार द्वारा पत्रकारों को प्रलोभन के जाल में फांस लेने की जानकारियां दी हैं। मेरे आलेख पर विभिन्न ब्लॉग्स में ऐसी टिप्पणियां भी आ रहीं हैं। फिर दोहरा दूं, अगर पत्रकारों के संबंध में आरोप सही हैं तब उनकी आलोचना होनी ही चाहिए। 'उसका सच' ब्लॉग पर भाई सुरेंद्र किशोरजी का साक्षात्कार पढ़ा। सुरेंद्र किशोरजी मेरे पुराने मित्र हैं। उनकी पत्रकारीय ईमानदारी को कोई चुनौती नहीं दे सकता। ठीक उसी प्रकार जैसे नीतीश कुमार की व्यक्तिगत ईमानदारी पर कोई सवाल खड़ा नहीं किया जा सकता। सुरेंद्रजी की बातों पर अविश्वास नहीं किया जा सकता लेकिन अगर पत्रकारों को प्रलोभन और प्रताडि़त किए जाने की बात प्रमाणित होती हैं तब निश्चय मानिए, सुरेंद्र किशोरजी उनका समर्थन नहीं करेंगे।किसी ने टिप्पणी की है कि मैं नागपुर में रहकर राज ठाकरे की भाषा बोलने लगा हूं। उन्हें मैं क्षमा करता हूं कि निश्चय ही मेरे पाश्र्व की जानकारी नहीं होने के कारण उन्होंने टिप्पणी की होगी। मेरे ब्लॉग के आलेख पढ़ लें तो उन्हें मालूम हो जाएगा कि राज ठाकरे सहित ठाकरे परिवार पर मैं क्या लिखता आया हूं। 1991 में, जब उन दिनों बाल ठाकरे के खिलाफ लिखने की हिम्मत शायद ही कोई करता था, मैंने अपने स्तंभ में 'नामर्द' शीर्षक के अंतर्गत उनकी तीखी आलोचना की थी। क्योंकि तब शिवसैनिकों ने मुंबई में पत्रकारों के मोर्चे पर हथियारों के साथ हमला बोला था। पत्रकार मणिमाला पर घातक हथियार से हमला बोला गया था। मेरी टिप्पणी से क्रोधित दर्जनों शिवसैनिकों ने मेरे आवास पर हमला बोल दिया था। आज भी उत्तर भारतीयों के खिलाफ राज ठाकरे के घृणित अभियान पर कड़ी टिप्पणियों के लिए मुझे जाना जाता है।सभी जान लें, बिहार की छवि और विकास की चिंता मुझे किसी और से कम नहीं है। हां, अगर अपनी बिरादरी अर्थात पत्रकार बिकाऊ दिखेंगे तब उन पर भी मेरी कलम विरोध स्वरुप चलेगी ही। लालूप्रसाद यादव का उल्लेख मैंने जिस संदर्भ में किया है उस पर बहस जरूरी है। लालू ने पत्रकारीय मूल्य को चुनौती दी है। उन्हें जवाब तो देना ही होगा।
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