- श्रीकांत
----------------
'कहत भिखारी नाई,
कवन करीं उपाई।
मुंहवा के तोहरे दुलरवा हो बबुआ,
कुतुबपुर हउवे ग्राम, रामजी संवार काम,
जाति के हजाम जिला छपरा हो बबुआ।’
इस गीत में भिखारी ठाकुर ने अपने नाम के साथ जाति और गांव को भी बताया है। लोकगायकों द्वारा लोकगीतों के माध्यम से अपना परिचय देना एक लोकप्रिय विधि रही है। सिर्फ यही नहीं कि यह पहचान के साथ जुड़ा हुआ है।
जाति की पहचान तो भाषा की पहचान। ज्ञान की बात होगी तो वर्चस्व की बात होगी। आरक्षण की बात होगी तो उसके विरोध की बात होगी। जाति की बात होगी तो जाति तोड़ने की बात होगी। यह एक जागृत और खुले समाज को रेखांकित करता है। जातियां जन समुदायों को संगठित भी करती हैं और मौका पड़ने पर जातियों के खोल से बाहर निकलकर उसे तोड़ती भी है। विविध और बहुलता वाले समाज में दोनों साथ-साथ चलते रहते हैं।
लालू प्रसाद यादव जैसे बड़े समुदाय वाले नेता को तीन-चार प्रतिशत आबादी वाले समुदाय के नेता नीतीश कुमार ने मात दी । मायावती ने मुलायम सिंह यादव को सत्ता से बेदखल किया। यह किसी खास समुदाय के आरक्षण के कारण नहीं हुआ। वास्तव में जातियां समाज की जड़ ईकाई नहीं, गतिशील ईकाई होती हैं। अन्यथा आज बिहार और उत्तर प्रदेश की राजनीति में लालू-मुलायम को सत्ता में होना चाहिए था।
जातियों की भूमिका राजनीतिक गोलबंदी में होती है, साथ ही साथ इससे अन्य जातियों के बीच समानता और सम्मान का संबंध भी विकसित होता है। निश्चय ही ब्राह्माण और दलित का एक साथ मिलकर वोट देना या उनका राज करना यही बताता है। यह सत्ता के संघर्ष को तीखा करता है तो समाज के जनतंत्रीकरण में भूमिका भी अदा करता है।
जाति आधार पर जनगणना 1931 के बाद पहली बार 2011 में होगी। इस पर बहस का दौर भी शुरू हो गया है। जाति उन्मूलन की बात होगी, तो भारतीयता का बोध कराया जाएगा। कोई इस फैसले को पुरातनपंथी करार करेगा। पर यह सच है कि जाति है। और यह भी सच है कि जातियां टूट भी रही हैं।
दोनों ही सच है और इससे मुंह चुराने और भागने से काम शायद ही चले। देश के सोलह मेट्रो की तरह तो नहीं, लेकिन बिहार जैसे सामंती व पिछड़े राज्य में आपको पचासों यूक्रेनी बहुएं मिल जाएंगी और अन्तरजातीय शादियां आराम से होती हैं, पर शादी पर बवाल की हजारों घटनाएं भी मिल जाएंगी। इसका अर्थ यह नहीं कि जातियों और समुदायों के बारे में उनकी शिक्षा-दीक्षा के बारे में, रहन-सहन के बारे में नई जानकारियां नहीं चाहिएं। समाजशास्त्रीय अध्ययन नहीं होना चाहिए। यह जनगणना से संभव हो पाएगा।
नई अस्मिताओं का नया दावा होगा। छोटी उपजातियों की अपनी मांग होगी। भारत की यही खूबी है कि कोई मांग करेगा कि इसमें जो भारतीय लिखना चाहते हैं उनके लिए भारतीय कॉलम होना चाहिए। कोई यह कह सकता है कि वह जाति को नहीं मानता है। इसका सम्मान किया जाना चाहिए।
भारत में जाति जनगणना 1871 में शुरू हुई थी, लेकिन इसके करीब 500 वर्ष पहले मिथिला के कवि शेखराचार्य ज्योतिरीश्वर ठाकुर रचित वर्ण रत्नाकर में 205 समुदायों का वर्णन मिलता है। वैसे भारत में वैदिक काल से लेकर आज के पीपुल्स ऑफ इंडिया प्रोजेक्ट तक जातियों का श्रेणीकरण होता रहा है। ऋग्वेद में वर्णों के अतिरिक्त कम से कम छह व्यवसाय और शिल्प से संबंधित छह समुदायों का जिक्र मिलता है।
मनु ने छह अनुलोम, छह प्रतिलोम और 20 मिश्रित जातियों के साथ 23 व्यवसायों की, याज्ञवलक्य ने चार वर्णों के अतिरक्ति 13 अन्य जातियों की तथा उशना ने 40 जातियों और उनके व्यवसायों की चर्चा की है। सभी स्मृतियों की तालिका में कम से कम 100 जातियों के नाम सामने आते हैं। डॉ. पांडुरंग वामण काणे ने ईसा पूर्व 500 से 1000 ई. के बीच स्मृतियों तथा अन्य धर्मशास्त्र ग्रंथों में वर्णित 155 जातियों की सूची दी है।
वैसे 1871 के जनगणना के समय ही क्षत्रिय होने के सबसे अधिक दावे होने लगे। इस दावे में विभिन्न जातियां अपने को अपने सामाजिक सोपान से ऊपर दिखाना चाहती थीं। यादव, कुर्मी, दुसाध, कहार समुदाय के लोग अपने को क्षत्रिय घोषित करने लगे थे। कुछ जाति समुदायों ने अपने नाम के आगे शर्मा लगाया। कुछ जातियों को अपराधी जाति घोषित कर दिया गया था।
बिहार और उत्तर प्रदेश में तो जनेऊ पहनने का आंदोलन और नाम के आगे सिंह लगाने का आंदोलन चला। श्रेष्ठ जाति की सूची में शामिल करने के लिए आवेदन पर आवेदन दिए जाने लगे। जनगणना से जातियों की संख्या का पता चला तो विभिन्न क्षेत्रों में नौकरियों की मांग जोर पकड़ने लगी। जातियों की पहचान और उनके श्रेणीकरण की समय-समय पर जरूरत भी इसीलिए भी पड़ी कि जातियां भारतीय समाज में जड़ श्रेणियां नहीं रही हैं। नई-नई जतियां, उपजातियां बनती रहीं और नई पुरानी जातियों की सामाजिक सोपान में स्थिति भी बदलती रही।
तब का समाज कृषि समाज था और पिछड़ों से जाति लगान लिया जाता था। बेगार खटाया जाता था। तरह-तरह के जुल्म होते थे। यह गरीब पिछड़े हुए समुदायों की आर्थिक मांग भी थी। ऐसे में सिंह का लगाना और अपने को क्षत्रिय घोषित करना प्रतिकार भी था। सतीनाथ भादुड़ी के उपन्यास ‘ ढ़ोढाय चरित्र मानस’ में उनका एक पात्र कहता है- इसी जिले के चार कोस दूरी के ततमा लोग के माथे पर जनेऊ लेने से बज्जर नहीं गिरा है, तब हम क्यों नहीं जनेऊ लेंगे?
लेकिन आज जनेऊ की बात नहीं होती है। आज बात होती है कि अमुक जाति को निम्न श्रेणी में शामिल किया जाए। 2011 की जनगणना में कुछ जाति समुदाय यह मांग करने लगे कि वे अमुक जाति में नहीं हैं, उन्हें तो शूद्र में शुमार किया जाना चाहिए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। आरक्षण का लाभ भी तो है।
बिहार जैसे राज्य में तो पिछड़ा वर्ग आयोग और अति पिछड़ी जाति आयोगों से लगातार इस तरह की मांग होती रही है और अनेकों जातियों को एनेक्सर दो से निकाल कर एनेक्सर एक में शामिल किया गया है। खरवार और लोहार जाति को आदिवासी में शामिल करने की मांग हो रही है तो झारखंड के घटवाल समुदाय के लोग भी यही मांग कर रहे हैं। कुछ जातियां तो खुद को आदिवासी होने का दावा कर रही हैं। गुज्जर समुदायों को एसटी में शामिल गया। पसमांदा तबके के लिए आरक्षण की व्यवस्था हो रही है। कहने की जरूरत नहीं है कि नई जनगणना में नई अंस्मिताओं का नया दावा होगा और नयी हलचल पैदा होगी।
लेखक हिंदुस्तान, पटना में विशेष संवाददाता हैं
(Source: live Hindustan.com)
हिन्दुस्तान में सुबह सुबह ही पढ़ लिया
जवाब देंहटाएं