चढ़ते चढ़ते
अचानक/समय ठहर सा गया है
चाँद लापता है
जाने कब से/और सूरज
सिर पर टंग गया है।
इस ठहरे हुये समय में
बदलते अवसरों के गवाह
उस आइने में
एक चालीस के करीब पहुँच रही
अर्थहीन हो चुकी औरत को
आजकल
चौदह साल की बच्ची दिखती है
जिन्दगी के प्रति जोश से लबालब
अन्जान राहों पर
बेखौफ बढती हुई
अक्सर लगता है
अक्सर लगता है
प्यार और विश्वास के
सारे सन्दर्भ बदल से गये हैं
आहिस्ता आहिस्ता
कई कई रिश्ते
जो मायने रखते थे
तब भी/आज भी
बदले बदले से क्यों लगते हैं
जानती है औरत
पति की जरुरत है वो
और बच्चों के लिये अपरिहार्य
पर उसकी जरुरतों का
कोई कोना अनछुआ, वीरान भी
तमाम शोर और भागमभाग के बीच भी
अकेलेपन से जूझती औरत
थक जाती है
तमाम रिश्तो से घिरी
खुद से अन्जान औरत
जीती जा रही है
एक बेमतलब सी जिन्दगी
उसी चौदह साल की लड़की से
उधार मांग कर
कतरा कतरा जोश
बूंद बूंद प्यार।
- सीमा स्वधा
itani sundar rachana hai ki sirf waah waah waah nikal rahi hai ......aapane ek aurat ke dard ko puri tarah se ukerane me safal rahi hai.....
जवाब देंहटाएंसीमाजी बहुत सुन्दर और सटीक अभिव्यक्ति है मेरी आज की पोस्ट भी कुछ इसी तरह के भाव लिये है देखियेगा आभार्
जवाब देंहटाएंभाव और एह्सास बहुत खूबसूरत है.
जवाब देंहटाएंबेहद सम्वेदनशील रचना
अद्भुत ओर ईमानदार कविता.....
जवाब देंहटाएंकहते कहते कह गयीं बात बहुत कुछ खास।
जवाब देंहटाएंभाव बहुत अच्छे लगे और सुन्दर एहसास।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
bahut hi gahre bhav.........wakai ek arthheen zindagi dhoti aurat ki vedna ko aapne bakhubi bayan kiya hai.
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