‘अभिभावक की अपेक्षाएं’ और ‘बच्चों पर बस्ते का बोझ’ जैसे मुद्दे पर निरंतर बहस जारी है। पर विडम्बना यह है कि शिक्षाविद् भी इस बहस में संतुलन नहीं बना पा रहे। बच्चों पर आखिर कितना बोझ दिया जाए और अभिभावकों की अत्यधिक अपेक्षाओं पर लगाम कैसे लगाया जाए, इन सवालों का जवाब ढ़ूंढ़ पाना मुश्किल है। बच्चे तो कोई मशीन नहीं कि जब चाहा अभिभावक की अपेक्षाओं के अनुरूप उनका आर.पी.एम और हॉर्स पावर बढ़ा दिया जाए और अपेक्षित नतीजा मिल जाए। हर बच्चे की अपनी मौलिकता होती है। अगर उस मौलिकता के साथ छेड़छाड़ किया जाता है तो निश्चित ही उस बच्चे का भविष्य गर्त में जा सकता है।
एक स्कूल, एक क्लास, एक ही शिक्षक। पर रिजल्ट में अंतर क्यों? एक बच्चा 90 प्रतिशत अंक स्कोर करता है तो वही दूसरा बच्चा 40 प्रतिशत। आखिर क्यों? मेरे नजरिये से इसका जवाब तो यह हो सकता है कि उस बच्चे का रूझान किसी और कला में हो। यानी वह बच्चा भी अव्वल दर्जे का है। वह उसी प्रतिशत अंक लाने वाले बच्चे को अपनी कला में पछाड़ सकता है। खराब रिजल्ट का दूसरा कारक यह भी हो सकता है कि बच्चे को घर पर सही मार्गदर्शन या वह माहौल नहीं मिल पा रहा हो जो पहले बच्चे का मिलता आ रहा है। पर, ज्यादा बच्चे के रूझान पर निर्भर करता है।
अब सवाल यह है कि बच्चे के अंदर पढ़ाई के प्रति ललक कैसे पैदा किया जाए? बच्चा खेलने में ज्यादा मन लगा रहा है, तो पढ़ाई?
पढ़ाई तो अभिभावक के नजरिये पर निर्भर करता है। ग्लास आधा भरा है या आधा खाली, यही आपके नजरिये और सोच को दर्शाता है। अगर आप ग्लास को आधा भरा मानते हैं तो निष्चित ही आप अपने बच्चे में भरे गुण से वाकिफ हैं और आप अपने बच्चे का एक बेहतर भविष्य निर्माण कर सकते हैं। बच्चे के अंदर आप उसके उसी आधे भरे गुण से पढ़ाई के प्रति ललक पैदा कर सकते हैं।
रचनात्मकता एक शब्द है। जिसे मैंने अपने अध्यापन काल में जाना। मैंने यह भी जाना कि जो व्यक्ति जितना ही रचनात्मक या रचनाशील है..वह उतना ही सफल है। अध्यापन के 8 साल के इस दौर में मैंने पाया कि बच्चा स्कूल आता है, क्लास वर्क करता है और फिर घर जाकर होमवर्क। पढ़ाई पूरी।
मुझे लगता कि बच्चों में जब तक कुछ नया नहीं दिया जाए तो उसके अंदर स्कूल और पढाई के प्रति आकर्षण नहीं बढेगा। सो, हमलोगों को रचनात्मकता पर जोर देना चाहिए। विद्यालय प्रबंधन रचनाशील रहें तो निश्चित हीं विद्यालयीन बच्चों के भीतर शिक्षा के प्रति ललक पैदा किया जा सकता है। मसलन, प्ले-वे मेथड, पब्लिक एड्रेसिंग, वाद-विवाद, ग्रुप डिस्कशन , आॅडियो-विजुअल, स्मार्ट क्लास, विद्यालयी पत्रिका, क्वीज प्रतियोगिता आदि। वहीं शिक्षक भी पुराने ढर्रे को छोड़ अब नये ढर्रे को अपनाये तो बेहतर। दूसरी ओर समाज की भी यह जिम्मेदारी बनती है कि बच्चों में स्कूल और शिक्षा के प्रति झुकाव बढाये।
बच्चों के रूझान को सही दिशा देने के क्रम में सामाजिक संस्थाओं द्वारा जागरूकता और मार्गदर्शन उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना कि एक अच्छे विद्यालय और अभिभावक का योगदान।
सो, कहना न होगा कि बच्चों के सर्वांगीण विकास में समाज की भूमिका भी महती है। मेरे विचार से बच्चों के अंदर पढ़ाई का भय पैदा करने से बेहतर उसके अंदर ललक पैदा करना श्रेयस्कर है....और वह ललक आपके रचनात्मक सोच से पैदा की जा सकती है।
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एक स्कूल, एक क्लास, एक ही शिक्षक। पर रिजल्ट में अंतर क्यों? एक बच्चा 90 प्रतिशत अंक स्कोर करता है तो वही दूसरा बच्चा 40 प्रतिशत। आखिर क्यों? मेरे नजरिये से इसका जवाब तो यह हो सकता है कि उस बच्चे का रूझान किसी और कला में हो। यानी वह बच्चा भी अव्वल दर्जे का है। वह उसी प्रतिशत अंक लाने वाले बच्चे को अपनी कला में पछाड़ सकता है। खराब रिजल्ट का दूसरा कारक यह भी हो सकता है कि बच्चे को घर पर सही मार्गदर्शन या वह माहौल नहीं मिल पा रहा हो जो पहले बच्चे का मिलता आ रहा है। पर, ज्यादा बच्चे के रूझान पर निर्भर करता है।
अब सवाल यह है कि बच्चे के अंदर पढ़ाई के प्रति ललक कैसे पैदा किया जाए? बच्चा खेलने में ज्यादा मन लगा रहा है, तो पढ़ाई?
पढ़ाई तो अभिभावक के नजरिये पर निर्भर करता है। ग्लास आधा भरा है या आधा खाली, यही आपके नजरिये और सोच को दर्शाता है। अगर आप ग्लास को आधा भरा मानते हैं तो निष्चित ही आप अपने बच्चे में भरे गुण से वाकिफ हैं और आप अपने बच्चे का एक बेहतर भविष्य निर्माण कर सकते हैं। बच्चे के अंदर आप उसके उसी आधे भरे गुण से पढ़ाई के प्रति ललक पैदा कर सकते हैं।
रचनात्मकता एक शब्द है। जिसे मैंने अपने अध्यापन काल में जाना। मैंने यह भी जाना कि जो व्यक्ति जितना ही रचनात्मक या रचनाशील है..वह उतना ही सफल है। अध्यापन के 8 साल के इस दौर में मैंने पाया कि बच्चा स्कूल आता है, क्लास वर्क करता है और फिर घर जाकर होमवर्क। पढ़ाई पूरी।
मुझे लगता कि बच्चों में जब तक कुछ नया नहीं दिया जाए तो उसके अंदर स्कूल और पढाई के प्रति आकर्षण नहीं बढेगा। सो, हमलोगों को रचनात्मकता पर जोर देना चाहिए। विद्यालय प्रबंधन रचनाशील रहें तो निश्चित हीं विद्यालयीन बच्चों के भीतर शिक्षा के प्रति ललक पैदा किया जा सकता है। मसलन, प्ले-वे मेथड, पब्लिक एड्रेसिंग, वाद-विवाद, ग्रुप डिस्कशन , आॅडियो-विजुअल, स्मार्ट क्लास, विद्यालयी पत्रिका, क्वीज प्रतियोगिता आदि। वहीं शिक्षक भी पुराने ढर्रे को छोड़ अब नये ढर्रे को अपनाये तो बेहतर। दूसरी ओर समाज की भी यह जिम्मेदारी बनती है कि बच्चों में स्कूल और शिक्षा के प्रति झुकाव बढाये।
बच्चों के रूझान को सही दिशा देने के क्रम में सामाजिक संस्थाओं द्वारा जागरूकता और मार्गदर्शन उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना कि एक अच्छे विद्यालय और अभिभावक का योगदान।
सो, कहना न होगा कि बच्चों के सर्वांगीण विकास में समाज की भूमिका भी महती है। मेरे विचार से बच्चों के अंदर पढ़ाई का भय पैदा करने से बेहतर उसके अंदर ललक पैदा करना श्रेयस्कर है....और वह ललक आपके रचनात्मक सोच से पैदा की जा सकती है।
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