सच हम नहीं, सच तुम नहीं, सच है महज संघर्ष ही!

बुधवार, अगस्त 05, 2009

अंधेरी सुरंग से गुजरकर..

चेतना के तार ढीले पड रहे हैं। गहरी अंधेरी सुरंग में वो बेतहाशा दौडी जा रही है। पीछे घर द्वार सारा संसार छूटा जा रहा है। अंधेरा इतना घना है कि हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा है, फिर अचानक रौशनी का तेज पुंज आँखों के आगे प्रकट हुआ। सामने दिव्य आसन पर साक्षात भगवान विराज रहे हैं। चक्र, गदा हाथ लिये जिस रूप में उनको पूजती आई है अब तक उसने झुर्रियों भरा हाथ जोड दिये। पलकें मूँदी जा रही थीं तो मेरा अंतिम समय आ गया है। पता नहीं रामेश्वर तक खबर पहुँची भी या नहीं उसने सोचा।

पिछले आठ दिनों से तेज बुखार और दर्द के कारण बिस्तर से लगी हुई है वह। थोडे प्रयास के बाद आँखें खुलने पर उसने पाया, उसके इर्द गिर्द दस बीस लोग जमा हैं। टूटी चौकी पर एक तरफ पानी भरा लोटा रखा है जिसमें से चम्मच से थोडा पानी निकाल कर मालती उसके मुँह में डालती जा रही है।

चेतना भी कभी पूरी तरह मन मस्तिष्क को सजग रखती, दूसरे पल सब कुछ आँखों से ओझल हो जाता।

मौसी के मुँह में जल्दी गंगाजल और तुलसी पत्र डालो अम्मा शायद गति मिल गई अब। उसके ठंडे हाथ पाँव को सहलाता शंभु रुंधे कंठ से बोल रहा था।

वह कहना चाह रही थी, मैं मरी नहीं हूँ नालायक, जिंदा हूँ अभी। क्या तुम सचमुच मेरे लिये ही रो रहे हो। सब कुछ महसूस कर भी कुछ कहने में असमर्थ थी।

आँखें फिर मूँदी जा रही थी, मन फिर चेतना शून्य, अंधेरी सुरंग की दौड फिर शुरू हो चुका था कि उस छोर पर साहजी दिख गये, तो आप यहाँ छुपे बैठे हैं मुझे छोडकर। वह चीखकर फरियाद करना चाहती है पर आवाज जैसे गले में अटक सी गई है। गों गों की हल्की आवाज हुई कि आस पास हलचल मच गई।

अरे बडकी माँजी जिंदा हैं अभी। ऐ मीना, गीता पाठ करो आचा जी के सिरहाने। नाक सुडकती रोने की सायास कोशिश करती वह मनोज बहू थी-उसके भतीजे की पत्नी।

उम्र के इस पडाव पर रिश्तों की स्वार्थपरता देखते परखते वो सर्वथा असम्पृक्त हो चली थी।

मेरे जीते जी कभी दो घडी पास बैठने की फुर्सत नहीं निकाल पायी और आज ये कैसा ढोंग! अधखुली आँखों से उसने चारों ओर का जायजा लिया। सभी अजीब से रुँआसे चेहरे लिये उसके आस पास खडे थे। मनोज हाथों में कागज लिये खडा था। जबरन ओढी हुई चुप्पी कभी- कभी फुसफुसाहट में बदल जाती।

रामेश्वर कहीं नहीं दिख रहा है, लगता है नहीं आया अब तक। पता नहीं देख पाऊँगी भी या नहीं।

आँखें फिर मूँदने लगी पर मन की सक्रियता अब भी बरकरार थी।

लगता है, रामेश्वर अंतिम समय भी माँ के दर्शन नहीं कर पायेगा। अपने सुख, स्वार्थ और आराम के आगे लोग माँ तक को भूलते जा रहे हैं। क्या जमाना आ गया है? पडोसी रामलाल जी व्याकुल थे।

कौन जाने खबर ही नहीं मिली हो। जगन्नाथ प्रसाद ने आशंका जतायी।

क्या बात कर रहे हैं मौसा जी। मैंने खुद काठमांडू बात की थी चार दिन पहले। पूरे सौ रुपये का फोन बिल अब भी मेरे पाकेट में है।
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मौसी की दशा पूरी स्पष्ट बताया था। शम्भु मनोज के हाथों में थामे कागज को घूरते हुए अपनी बात खत्म की।

उसे हँसी आयी। पता नहीं अब वह हँस भी सकती है या नहीं। उसने मन ही मन सोचा क्या मरते हुये आदमी के प्रति दूसरों की भावनाएं सचमुच बदल जाती हैं।

अब वो सचमुच साह जी के पास जाना चाहती है ताकि फरियाद कर सके बीते दिनों की।

खुद तो आसमान में सितारों के बीच निश्चिंत होकर बैठ गये। एक मुझे छोड दिया नन्हीं जान के साथ। इस बेरहम दुनिया में अकेली मरो, खपो और अपने कर्तव्य का पालन करो।

बीते दिनों का संघर्ष और दुख आज भी जिंदा है उसके जेहन में पर कितनी विवश है वो कि अपने मन की व्यथा कह भी नहीं सकती। क्या मिला इतना करने के बाद भी जिसके लिये सारी जिंदगी और जवानी खपा दी, वही दो घडी के लिये मेरे पास नहीं आ सका। लगता है इस अधूरी इच्छा के साथ ही जाना होगा। अपनी चेतना को भरसक सहेजती वह कुछ पल और इंतजार करना चाहती है रामेश्वर का।
क्या ममता बस माँ के सीने में ही होती है। संतान कैसे असम्पृक्त हो जाती है अपनी जननी, अपने उत्स से।
अधखुली पलकों को मूँदें वह निश्चेष्ट पडी है, बोल नहीं सकती पर चेतना अब भी है।
यकायक मनोज बहू की नजर उसके कानों पर पडी और कहने लगी, बडकी अम्माजी के कान में तो इतना बडा कनफूल है, कहते हैं मरते हुए आदमी के शरीर से गहना उतार लिया जाता है वरना लक्ष्मी जी का अपमान होता है। झपट कर अधिकार भाव से कनफूल का पेंच खोलने लगी। पेंच एकदम बैठ गया था-जाने कितने सालों से उसके कान में पडा था यह जेवर। बहुत कोशिश के बाद भी पेंच खुल नहीं रहा था।
उसके कान खिंच रहे थे। वह चाहकर भी मना नहीं कर सकीं, रहने दो बहू दर्द हो रहा है। साह जी की अंतिम निशानी है मेरे पास। मरने के बाद तुम्हीं ले लेना...। अपनी विवशता पर उसकी आँखों में आँसू भर आये, पता नहीं किसी ने देखा भी या नहीं।
मीना आलमारी पर कैंची रखी है, जरा लेकर आ। भतीजे की बहू ने बेटी के कानों में धीरे से कहा।
कोई रिश्ता नहीं रखा आज तक। हारी बीमारी में भी अकेली तडपती रही। मुझे मरता देख गिद्द की भाँति धन सम्पत्ति पर मंडराने आये हैं। काश! रामेश्वर यहाँ होता। मरता हुआ आदमी सचमुच कितना विवश होता है।
मीना कैंची लेकर आ चुकी थी। शम्भु ने रोका रहने दो भौजी, अंतिम समय में दो जून खाना, एक दवाई तक देने की फुर्सत नहीं थी तुम्हें। अब ये क्या कर रही हो? मौसी को आराम से गति तो होने दो।
आँखें तरेर कर मनोज बहू ने शम्भू को देखा जैसे कह रही हो, रामेश्वर के न रहने पर हमारा ही हक बनता है इन पर। तुम कौन होते हो बीच में बोलने वाले..? चाहें जितनी हमदर्दी जता लो, सम्पत्ति के दावेदार रामेश्वर के बाद हमही हैं।
कान पलट कर उसने दोनों पेंच काट दिये। कनफूल उठा कर आँचल के कोने में बाँध कर निश्चिंत हो गई वह।
उसके कान के पिछले हिस्से में खरोंच भी आ गई थी पर किसे दिखाये वह.. उसके चेहरे की पीडा को भी ये लोग आती हुई मौत की पीडा ही समझ रहे हैं शायद। चाहा कि कान का पिछला हिस्सा सहला दे मगर हाथ अस्त हो चले थे।
लगता है, अब नहीं रही बडकी अम्मा। रुआँसी आवाज में बोलता हुआ मनोज उसके अँगूठे में जाने क्या चिपचिपा सा लगा रहा है, उसकी चेतना में यकायक आया, ओह! तो ये घर सम्पत्ति का कागज लेकर आया है मेरे निशान के लिये।
उसके अशक्त हाथों को दबाकर उससे अच्छी तरह कागज पर निशान ले लिया।
बडकी अम्मा आखिर तक हमारे आसरे ही रहीं, फिर इसका हकदार और कौन हो सकता है। रामेश्वर तो काठमांडू में अपना घर परिवार बसा चुका है। वर्षो से कोई सुधि नहीं ली। अम्मा से कोई मतलब होता तो आज यहाँ नहीं होता। अपने कुकृत्य की सफाई में दमदार तर्क गढा था उसने।
एक बार फिर उसकी पलकें थोडी खुलीं। आसपास बहुत लोग खडे थे पर किसी ने विरोध नहीं किया। उसे लगा, उसके आसपास जाने कितने गेहुँअन फुफकार रहे हैं मगर वो अब कुछ नहीं कर पायेगी। अब तो उसे अपनी सुध तक नहीं। उसे याद आयी वह घटना। दीपावली के दिन खुद दीवाल की सफाई पुताई कर रही थी। रामेश्वर वहीं खाट पर बैठा खेल रहा था। बाँस की सीढियों पर चढी वो अपने काम में मगन थी कि उसे लगा नीचे से कुछ आवाज आ रही है। उसने देखा, रामेश्वर की खाट के पास गेहुँअन बैठा हुआ है। झटके से वह सीढियों से खाट पर कूदी और रामेश्वर को लेकर दुआरे पर निकल आई। बच्चे को बाहर बिठाकर नथुआ की सहायता से तब साँप मारा था उसने।
जिस रामेश्वर के लिये उसने औरत का रूप तज पुरुष का बाना धारण किया, क्या वो सचमुच उसे तज दिया है मगर क्यों?
उसे लगा, जैसे बैल बिदक गये हों, टायर गाडी हिचकोले खा रही है, देह की सुध नहीं पर रामेश्वर कहाँ है, उसे कसकर पकड लूँ तो बैलों को काबू में करूँ। उसने मन ही मन टोह लिया। यहाँ तो रामेश्वर नहीं है। हाँये पुरानी बात हुई।
अतीत और वर्तमान के खोह में डगमग चेतना क्या उसे भ्रमित कर रही है..? साह जी के गुजरने के बाद खेतों की देखभाल, बुआई-कटाई का जिम्मा उसी का रहा। देहात से बैलगाडी में भर कर अनाज वह खुद लाती। एक दिन बीच रास्ते में बैल ऐसे बिदके कि वो गिरते-गिरते बची। हाँ रामेश्वर को उसने तब भी नहीं छोडा।
रात बहुत गुजर चुकी थी। रात के तीन बज चुके हैं रक्सौल की ट्रेन तो एक बजे पहुँच जाती है न..? जगन्ना प्रसा पोपले मुख से थाह थाह कर बोल रहे थे। लालटेन की मद्धिम रोशनी में उसने अधखुली आँखों से देखा, एक उन्हीं के चेहरे पर चिंता की छाया थी। जानती है वह, उनकी हमदर्दी हमेशा उसके साथ थी। बाकी तो पीठ पीछे उसके मर्दाना रूप की परिहास ही करते थे।
आशा की अंतिम डोर भी अब टूट रही थी। रामेश्वर नहीं आयेगा अब। कब तक उस अंधेरी सुरंग से गुजर कर मैं फिर-फिर लौटती रहूँ उसके इंतजार में। सुरंग के उस छोर पर साह जी खडे हैं। मुझे उनसे भी तो मिलना है, फरियाद जो कहना है।
उसने पलकें मूँद लीं। चेतना थोडी अब भी शेष थी। कहीं ऐसा न हो, रामेश्वर के इंतजार में मैं सुरंग में ही भटकती रह जाऊँ और साह जी भी लोप हो जायें।
पलकों को उसने यथाशक्ति दबाया। थमे हुए आँसुओं की बूंदें बह चलीं जैसे इस अंतिम समय में अपनी अंतिम इच्छा को श्रद्धांजलि दी हो। उसने धीरे-धीरे शरीर को यूँ ढीला छोड दिया जैसे जी तोड मेहनत करने के बाद थककर निश्चिंत सोती रही थी कभी।
चार बज चुके थे। धीरे-धीरे भोर का उजास फैल रहा था। अब वो दुनियादारी बंधन से आजाद थी। सुरंग के उस पार खुले आसमान में विचरती हुई, एकदम हल्की रोशनी से एकाकार।

- सीमा स्वधा
(दैनिक जागरण के पुनर्नवा में प्रकाशित)

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