सच हम नहीं, सच तुम नहीं, सच है महज संघर्ष ही!

गुरुवार, जुलाई 23, 2009

डायरी

उसने साफ किया
सारा घर
खिड़की तक लटक आये जाले
कोनों में जमी धूल
सीलन भरे बक्से को
धूप तक दिखा आयी
मगर खोला नहीं
बहुत दिनों से
कोने वाली बंद आलमारी
दरअसल
वो जुटाती रही हौसला
सामना करने का/अतीत का
जिंदगी के सफे से गायब
उन पन्नों में लिखी इबारत का
उस बन्द आलमारी में
कैद है
कितने सपने/ कितनी ख्वाहिशे
अधूरी सी
बोतल में बंद जीन की तरह
यकायक
जाने क्या हाथ आया
तमाम उथल-पुथल मचा गया
बह चला सैलाब भी
आंखों की कोरों को तोड़कर
हां
उसकी हाथों में थी
बीते वर्षों की डायरी।
- सीमा स्वधा

5 टिप्‍पणियां:

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  3. बहुत बढ़िया... , बहुत सुंदर रचना है | कविता की नवीन लेखन शैली का बड़ा ही सुंदर प्रयोग किया है आपने | निश्चित रूप से आप इसके लिए बधाई की पात्र हैं | लेकिन , "तमाम उथल-पुथल सा मच गया" पंक्ति, भाषा एवं वाक्य विन्यास की दृष्टि से कुछ खटकती है | मेरे विचार से यह पंक्ति " तमाम उथल-पुथल सी मच गयी" होनी चाहिए | शायद आपकी भाषा में क्षेत्रीय भाषा का संयोजन है , जो की साहित्य लेखन के लिहाज से उचित नहीं है | इससे भाषा एवं साहित्य की गरिमा का क्षय होता है | शेष रचना अत्यंत उत्कृष्ट है | आशा है की भविष्य में भी ऐसी ही श्रेष्ठ रचनाएँ पढने को मिलेंगी | पुनः कोटिशः बधाई ...|
    और हाँ , कृपया शब्द पुष्टिकरण ( वर्ड वेरिफिकेशन ) हटा ले , ताकि टिप्पणी देने में असुविधा न हो |
    धन्यवाद...!

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  4. हे कलम के सिपाही..आपने सही पढ़ा..पर "तमाम उथल-पुथल सा मच गया" के जगह पर "तमाम उथल-पुथल सा मचा गया" पढिये. यहाँ फिर डायरी के लिए सा और गया ही उपयोग होगा.. कलम की धार को बरक़रार रखिये..पढ़ते रहिये-लिखते रहिये..पुनर्मिलनाय.

    आपका
    उसका सच

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