सच हम नहीं, सच तुम नहीं, सच है महज संघर्ष ही!

रविवार, नवंबर 15, 2009

जरी की चमक

पार्टी अपने पूरे वजूद पर थी। स्टेज के बगल में खडी सुगंधा हर आने-जाने वाले पर एक उचटती नजर डालकर अपने आपमें गुम हो जाती। आज राजा की रिसेप्शन पार्टी थी। चांद सी दुलहन बगल में बिठाए वह न जाने किस स्वप्नलोक में विचर रहा था। सुगंधा जानबूझकर नजरें नहीं मिला रही थी। कौन जाने, खोट उसके मन में था या रिश्तों की ऊष्मा और मिठास धीरे-धीरे गुम होती जा रही थी जैसे इस पहनी गई साडी में जरी की चमक।
पिछले पच्चीस सालों में उसने संभवत: इसे तीसरी बार पहना है। वह भला कब इस साडी को पहनना पसंद करती। आखिर इकलौते छोटे भाई की शादी हो रही थी तो कपडे भी कुछ खास ही होने चाहिए।
नीरा ने जिद की, मम्मी ये साडी तो आपको एक बार पहननी पडेगी। चाहे जब भी पहनो। पर नीरा, इतने दिनों से रखी साडी की चमक कम हो गई है।
नहीं मम्मी, आपका वहम है। वरना एकदम नई जैसी दिख रही है।
बीस वर्षीय नीरा भी अब बच्ची तो नहीं थी। आखिरकार एक ग्रेजुएट लडकी फैशन की दुनिया में ही अपना करियर बना रही थी।
जानती हैं मम्मी, आजकल जरी वर्क फिर से फैशन में है।
सुगंधा को पच्चीस वर्ष पहले के वे दिन याद आए, जब उसकी शादी हुई थी। पिता ने अपनी साम‌र्थ्य से कुछ ज्यादा ही दिया था उसे, पर यह साडी समीर ने पसंद की थी। शादी के बाद बक्से में बंद साडियों को सुगंधा बडे चाव से साल में एक बार धूप जरूर दिखाती, फिर दोबारा तहाकर उन्हें वैसे ही रख देती। आखिर इन पुराने फैशन की साडियों को वह किस मौके पर पहने। इससे तो अच्छा है कि सस्ती सही, लेकिन नई साडी पहनी जाए।
आज नीरा की जिद ने उसे सोचने को बाध्य कर दिया।
मम्मी मेरे पास तो एक भी नई जींस नहीं है। क्या पहनूंगा मैं मामा की शादी में..? रोहित कुनमुनाया।
कल पापा के साथ बाजार चले जाना, जींस ही नहीं, एक अच्छी सी शर्ट और स्वेटर भी ले लेना। सुगंधा ने आश्वस्त किया और मन ही मन हिसाब लगाने लगी। यदि हाथ दबाकर भी खर्च करे तो भाई की शादी में दस हजार खर्च हो ही जाएंगे।
मोहित का फोन आया था। परसों ही सेमेस्टर से पहले फीस जमा करानी है मम्मी, वरना फाइन लगेगा। फीस यानी तीस हजार। पहले इसकी व्यवस्था करनी होगी। मोहित शादी में भी नहीं जा पाएगा।
चुपचाप पारिवारिक जिम्मेदारियां वहन करता समीर मुंह से भले ही कुछ न कहे, लेकिन वह समझती है कि कैसे क्या हो रहा है?
अचानक सुगंधा डर सी गई है। स्टेज के बगल में डीजे का म्यूजिक बदलता है। कनफोडू संगीत उसके दिमाग में एक के बाद एक टनाटन बजता जा रहा है।
लकदक कपडों में सजे मेहमान एक-एक कर स्टेज पर जा रहे हैं। वर-वधू तो तोहफा देकर एकबनावटी मुसकान चेहरे पर लादे कैमरे के सामने पोज देते और फिर स्टेज से उतर जाते। तेज रोशनी के बीच सुगंधा खुद को असहज महसूस कर रही थी।
उसने समीर से शाम को ही कहा था, अच्छा सा तोहफा लाने के लिए। सुगंधा चारों ओर उचटती सी नजरें दौडाती है। समीर कहीं दिख नहीं रहा था। इतने सालों बाद भी समीर इस परिवार में सहज नहीं हो पाया। पता नहीं, कौन सी ग्रंथि है उसके भीतर, उसके मायके का ऊंचा उठता स्तर, अपनी स्थिति या कुछ और..। सुगंधा बस महसूस करती है, क्योंकि इसे लेकर उनके बीच कोई चर्चा नहीं हुई।
तभी राजा की निगाहें मिलती हैं। वह इशारे से सुगंधा को बुलाता है। हाथ के इशारे से थोडा ठहरने को कहकर वह समीर की राह देखती है। चांद सी दुलहन बगल में बिठाए राजा सचमुच राजा ही लग रहा था। उसने मन ही मन उसकी नजर उतारी। इस भाई के लिए उसने अपनी उम्र के हिसाब से कितनी मन्नतें मांगी हैं मां के साथ-साथ।
आज वाकई खुशी का दिन है। एक-एक कर सारे अतिथि स्टेज पर जा चुके हैं। एक वही है, जो समीर का इंतजार कर रही थी। आखिर खाली हाथ कैसे जाए-बहू की मुंह दिखाई भले दे दी हो, लेकिन रिसेप्शन पर बिना उपहार के कोई जाता है भला। इसी घर में जन्मी, पली-बढी सुगंधा के मन में परायेपन की भावना कबसे घर कर गई, वरना अतिथियों की तरह बिना तोहफेके स्टेज पर जाने से वह क्यों कतरा रही है। यह एहसास काफी गहराया हुआ है उसके मन में इन दिनों। अतिरिक्त संवेदनशीलता ही उसकी कमजोरी थी। उसने फिर राजा को थोडा इंतजार करने का इशारा किया और दरवाजे की ओर देखने लगी।
नीरा मौसेरी बहनों के साथ व्यस्त थी। सुगंधा को रश्क हो आया। कितनी आसान और निर्दोष होती है बेटियों की ये उम्र, पर शादी होते ही जैसे दो पाटों में विभाजित हो जाती हैं। बेटियों का भाग्य तो विधाता और मां-बाप मिलकर ही लिखते हैं, पर कितनी असमानता होती है सगी बहनों के भाग्य में भी।
मीनू सिल्क की जरीदार साडी संभालते उधर से गुजरी, दीदी, इधर अकेली क्यों खडी हो? देखा नहीं प्रो. मेहता आए हैं।
अच्छा, तुम बातें करो, मैं आती हूं। उसने एक नजर अपनी साडी पर डाली। मन ही मन सोचा इतनी भव्य पार्टी, इतने बडे लोगों से भरी और उसने पच्चीस साल पुरानी साडी को तहखाने से निकालकर पहनने का निर्णय लिया। उसे नीरा पर गुस्सा आया, लेकिन फैसला तो उसी का था। नीरा ने यह तो कहा नहींथा कि इसे पार्टी वाले दिन ही पहने।
मीनू बातों ही बातों में सुना गई कि पांच हजार की साडी उसने पार्टी के लिए ही खरीदी है। पति की अथाह कमाई हो तो कुछ भी किया जा सकता है। सुगंधा ने मन ही मन सोचा।
वह भी गई थी साडी लेने, लेकिन जो साडी पसंद आती, वह उसके बजट से ऊपर जाती। जो कम रेंज की होती, वह पसंद न आती। एक रात के दिखावे के लिए उसने अपना बजट बिगाडना ठीक नहीं समझा। एक बार पहनने के बाद भी वह साडी बक्से में ही पडी रहती अन्य साडियों की तरह, लेकिन फिर भी मन कहता, शादी रोज-रोज थोडे ही होती है।
नीरा ने बताया, रीतू मौसी ने तो सात-आठ हजार की साडी खरीदी है मम्मी। मुझे टीना बता रही थी।
काफी जद्दोजेहद के बाद सुगंधा निर्णय ले पाई कि एक दिन के लिए इतना खर्च करना मुनासिब नहीं होगा। इसलिए उसने पुरानी साडी को बक्से से निकालकर धूप दिखाई।अब ये महंगी साडियां शादी-ब्याह में ही तो पहनी जाएंगी।
सोचते हुए सूटकेस सजाया और मायके आ गई। हर रस्म में मां और बहनों के महंगे परिधानों पर नजरें दौडाती सुगंधा मन को समझाती कि क्या महंगे कपडे पहनने से आदमी बडा होता है। मेरी सादगी-मेरी सोच कुछ तो मायने रखते हैं। बहू के चढावे के गहने-कपडे देखने के लिए सभी एकत्रित थे। वह मीनू के पीछे बैठी थी। बडी नजाकत से पिताजी अपने हाथों में एक-एक साडी निकाल कर दिखा रहे थे। साथ ही उसके रंग, डिजाइन की प्रशंसा भी करते जा रहे थे। मां साडियां सहेज-सहेज कर रख रही थीं। मीनू मां की सहायता कर रही थी, साथ में अपनी राय भी दे देती। सुगंधा चुपचाप पीछे बैठी पिता की आंखों की चमक और मां के चेहरे का वात्सल्य पढ रही थी, एक पराये की तरह। हां, एक उचटती निगाह साडियों के मूल्य पर जरूर पड जाती। कुल इकतीस साडियां खरीदी थींबाबूजी ने दो हजार से लेकर छह हजार तक।
सुगंधा को तिलिस्म का सा एहसास हुआ। मन ही मन सोचती कि कौन सी साडी शादी के दिन पहनने के लिए अच्छी लगेगी। नीली-हरी साडी तो उसे सचमुच भा गई। मन ही मन सोचा कि मां तो जानती हैं कि मैंने नई साडी नहीं खरीदी है। शायद मां..।
उसने अपनी सोच को वहीं विराम दे दिया, लेकिन मन पर कोई जोर होता कहां है। मान लो बाबूजी इकतीस की जगह तीस साडी ही ले जाएं तो कोई फर्क थोडे ही पडेगा। जैसे इकतीस, वैसे तीस..।
अगर वो कहे कि बाबूजी मुझे ये साडी पसंद है तो बाबूजी मना तो नहीं करेंगे। वह उनकी पहली संतान है। फिर भी यह संकोच की दीवार कैसी मां-बाबूजी से कुछ मांगने में। क्या वह अनजान लडकी सुगंधा से बडी हो सकती है, जो उनकी भावनाओं में कमी आ जाए। सुगंधा को याद आया, छुटपन में वह बाबूजी की अंगुली पकडकर दीनू चाचा की दुकान पर जाती थी मां के लिए साडियां पसंद करने। बाबूजी दुकानदार से कहते, दीनू जो सबसे अच्छा कपडा हो-वही दिखाओ सुगंधा के लिए।
नन्ही सुगंधा मन ही मन खिल उठती इस स्नेहसिक्त वाक्य से। आज भी उसके मन में पिता की छवि एक दिव्य अपराजित स्नेही व्यक्ति की है, जिसके संरक्षण की छाया को महसूस कर सुगंधा हर कठिनाई से उबरती आई है।
पर सुगंधा इतनी भावुक क्यों हो रही है। उसकी शादी में भी पिता ने अपने जमाने के हिसाब से अच्छा ही किया था। ससुराल में प्रशंसा भी हुई थी।
यह तो खुशी की बात है। आखिर राजा उसका प्यारा भैया है, नन्हे राजा को गोद में उठाए सुगंधा सारा दिन गुजार देती, लेकिन कभी थकती न थी। महज दस सालों का फासला था उम्र में, लेकिन मां की तरह ही वात्सल्य महसूस करती है वह राजा के लिए।
सुगंधा अपनी सोच में गुम थी। साडियां सहेजी जा चुकी थीं बक्से में। अब गहनों की बारी थी। जाने कैसा गुबार था, जो सीने से उठकर आंखों की राह बह निकलना चाहता था। उसने भरसक खुद को जब्त किया। समीर ठीक ही कहता है कि वह एकदम बुद्धू है। जाने क्या सोचती है और क्या-क्या उम्मीदें पालती है। यह सब करके खुद को आहत करती है वह।
कहीं यह अतिरिक्त महसूस करने की आदत उसकी कमजोरी तो नहीं, क्यों नहीं मान लेती सुगंधा। समय के साथ-साथ सब कुछ बदलता जाता है-रिश्ते, अपनापन, भावना, ऊष्मा..। उसे भी अपनी सोच बदल लेनी चाहिए।
गहनों के डिजाइन और वजन देखकर सभी मुग्ध थे। इस महंगाई में भी पिता ने वजन और डिजाइन से समझौता नहीं किया था। अकेले हीरे का सेट ही लाख से ऊपर का था।
बहनों की बातचीत में शरीक होकर भी कहीं और ही थी वह। पिछले साल अपनी शादी की सालगिरह पर मायके में ही थी गर्मियों की छुट्टियों में। मां ने नीरा से कहकर लॉकेट मंगवाया था। पांच-सात लॉकेट में मां ने एक चुना और उसे तोहफा दिया। सुगंधा को दूसरा लॉकेट पसंद आ रहा था, पर उसने मुंह से कहा नहीं। आखिर तोहफा अपनी मर्जी से दिया जाता है। मांग कर लिया गया तोहफा नहीं, मांग होती है। उसने महसूस किया कि मां ने सबसे हलके वजन वाला लॉकेट पसंद किया था। लेकिन यह सोच उसके मस्तिष्कमें आती, इससे पहले ही उसने खुद को लानत भेजी ऐसा सोचने के लिए, छि: मां के लिए भी कोई ऐसा सोचता है सुगंधा।
पर सुगंधा के अंदर बैठी बेटी ने जान लिया था किबेटियां परायी होती हैं। जिस घर में जन्मती, पलती, बढती हैं, वो भी एक दिन अजनबी-अनचीन्हा हो जाता है और जिस घर में जाती हैं, उसे भी अपनाना बेहद मुश्किल सा ही होता है। सुगंधा अकेली यहां क्यों खडी हो? डॉ.आंटी तुम्हें पूछ रही थीं। भारी जेवरों को संभालती मां ने उसे टोका।
कहां है आंटी? अचानक सुगंधा में जैसे जान आ गई। डॉ.आंटी यानी प्रिया आंटी। सुगंधा कॉलेज के दिनों से उनकी प्रशंसक है, हालांकि लिखती तो सुगंधा भी है, लेकिन प्रिया आंटी तो उसकी आदर्श हैं।
तभी सामने से आंटी आती दिखीं। उसने पैर छुए तो उन्होंने गले से लगा लिया। फिर उसके लेखन की तारीफ करने लगीं। एकाएक उन्होंने सुगंधा से कहा, कितनी सुंदर लग रही हो सुगंधा तुम। ये साडी कहां से ली? बहुत फब रही है तुम पर। ऐसा जरी वर्क तो आजकल ढूंढे नहीं मिलता। सुगंधा ने उनकी आंखों में झांका। वहां उपहास नहीं, अपनापन था। अभिभूत हो गई सुगंधा। आंटी से बातें कर उसका मन हलका हो चला था। दिल और दिमाग पर छाया धुंध अपनेपन की इस परत से छंट गया था। उसके लिए पार्टी अब शुरू हुई थी। पुरानी जरी की चमक साडी के साथ-साथ चेहरे पर भी पसर गई थी। वह बेसब्री से समीर का इंतजार करने लगी। आखिर स्टेज पर जाकर राजा और उसकी चांद सी दुलहन को शुभकामनाएं जो देनी थीं समीर के साथ।

-सीमा स्वधा


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