सच हम नहीं, सच तुम नहीं, सच है महज संघर्ष ही!

गुरुवार, जून 03, 2010

पिता और नी रिप्लेसमेंट

अभी अभी

लौटे हैं पिता एम्स से

डॉक्टर की हिदायतें और सुझाव

टटका हैं अभी

आँखों में छायी उदासी

और दर्द का मिला जुला भाव

माँ के चहरे का साझीदार है

नी रिप्लेसमेंट शब्द एकदम

अजनबी तो नहीं वजनी जरूर है

'किसके साथ बांटा जाए इसे'

धीरे से फुसफुसाती है माँ

'सीढियां चढ़ने की सख्त मनाही है

नीचे ही बंदोबस्त करना होगा'

कैसी बिडम्बना है ये

जिनके बदलौत चढ़े हैं कोई

सफलता की सीढियाँ

आज उन्हें सीढियों पर चढ़ने तक की मनाही है

उठाया जिसने आज तक

पूरे परिवार का बोझ

आज उनका बोझ

उनके घुटनों को भारी पड़ रहा है
अपने सपनो को

हाशिये पे रख

अपनों के सपनों को मनचाहा आकार देन के क्रम में

उन्होंने कब सोचा होगा भला

कि अपनों के सपने सगे तो होते हैं

नितांत अपने नहीं

मसलन बेटे के सपनों की सहभागी बहू

बेटी के सपनों का वो अनजाना

सहोदर होने के बावजूद

भाई के सपनों की मंजिल में भी

कोई हिस्सेदारी नहीं होती

सच पूछा जाये तो सपने बेवफा होते हैं

खासी हिम्मत और धैर्य की

जरूरत होती है

दूसरों के सपने पालने में

हाँ सपने गर अपने होते

पूरा होने पर अंत तक साथ निभाते हैं

काफी हताश हैं पिता

जानती हूँ

ये हताशा महज घुटनों की बेवफाई नही

वरन कहीं न कहीं

भौतिकता की इस अंधी दौड़

में टूटते विशवास और दरकते सपनों

का दर्द भी है।

- सीमा स्वधा

3 टिप्‍पणियां:

  1. घुटने के दर्द से विश्वास और सपनों के दरकने का दर्द..... बहुत संवेदनशील...

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  2. बहुत अच्छा सामंजस्य बिठाया है घुटनों से दर्द लेकर जीवन के सपनों तक. सपने जब अपने परिवार से जुड़ जाते हैं तो वही अपने होते हैं. बेटा भी अपना, बेटी भी, भाई भी. वह तो उन्हीं में जीता रहता है और उनको खुश देख कर खुश होता है. यही तो उसके अपने सपने होते हैं उससे अलग क्या है? ये सब भी ऐसे ही सपने देखेंगे और उन्हीं में खुश होंगे. 'स्व' से निकल कर 'पर' में समाहित होता ये सुख.

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