सच हम नहीं, सच तुम नहीं, सच है महज संघर्ष ही!

सोमवार, सितंबर 30, 2013

ससुराल से लेकर जेल तक का सफ़र!

लालू प्रसाद और राष्ट्रीय जनता दल का भविष्य
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- सौरभ के.स्वतंत्र
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बिहार में राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद जब सत्ता में थें तब ससुरालसमीकरण की तूती बोलती थी। साधू, सुभाष, राबड़ी और लालू के इर्द-गिर्द हीं सत्ता की धुरी घूमा करती थी। ठेठ राजनीति करने वाले लालू प्रसाद उस दौर में एक नयी परम्परा गढ़ रहे थें। श्री बाबू और अनुग्रह बाबू की शाश्वत राजनीतिक शैली, जिसके लिए बिहार गौरवान्वित महसूस करता था, लालू प्रसाद की सुप्रीमोवादी शैली में तब्दील हो रही थी। जेपी के सिद्धांतों को किनारा लगाया जा रहा था. परिवारवाद ने राजनीति में सर चढ़ना शुरू कर दिया था।
                                                पार्टी अध्यक्ष मतलब सुप्रीमो! सर ने जो कहा, वह आदेश। पत्थर की लकीर मानकर उस पर कार्यकर्ताओं को चलना ही था। भले हीं पार्टी या उसके कार्यकत्ता दोजख में चले जायें। परिवारवाद की राजनीति कुछ थी ही ऐसी। पन्द्रह सालों तक राजद ने सुप्रीमोवादी शैली में बिहार पर राज तो किया पर, नतीजा क्या हुआ? जाहिर है। पार्टी ने अपने ही कार्यकताओं का विश्वास खो दिया। परिवारवाद और जी हजूरी से पार्टी के नेताओं में घोर असंतोष उपटता चला गया। जिसका खामियाजा आज पूरे राष्ट्रीय जनता दल को उठाना पड़ रहा है। वही रही-सही कसर सुप्रीमो लालू प्रसाद के चारा घोटाले में दोषी करार दिए जाने ने पूरी कर दी. आलम यह है कि सुनहरे भविष्य की कोरी कल्पना करने वाले आज कई पार्टी सदस्य, पार्टी से अलग होकर दो जून की रोटी के जुगाड़ में जैसे-तैसे लगे हुए हैं। यह दीगर बात है कि आज राजद पूरे सूबे में सदस्यता अभियान चलाने का नाकाम प्रयास कर रही है।
                                दरअसल, राबड़ी दौर से ही राष्ट्रीय जनता दल में नेतृत्व को लेकर अंदरखाने से असहमति महसूस की जाती रही है। यह भी सच है कि राजद में लालू प्रसाद के कई ऐसे कद्दावर नेता वफादार रहे हैं जिन्होंने सूबे की कई दलों के जड़ में मठ्ठा डालकर राजद की साख को मजबूत किया है। पर, जबसे परिवारवादी और सुप्रीमोवादी सियासत में लालू प्रसाद मुब्तला हुए हैं तब से ये वरिष्ठ नेता पार्टी में रहकर भी पार्टी के पूरी तरह से नहीं हुए। नतीजन, शिवानंद तिवारी, श्याम रजक जैसे दिग्गजों, जो पार्टी या सरकार में बड़े पद को सुशोभित करते रहें, को भी राजद से जद(यू) की तरफ अपने बेहतर भविष्य के लिए पार्टी को मझधार में छोड़ कर  जाना पड़ा।
                                                ‘माय’ (मुसलमान-यादव) और कालांतर में यानी में मायका’ (मुसलमान-यादव-कायस्थ) ने बल देकर राजद को सरकार बनाने का मौका दिया पर घोर परिवारवाद ने इन समीकरणों के भ्रम को तोड़ा भी। राजद ने तो उस समय भी सरकार बखूबी चलाया जब सुप्रीमो लालू प्रसाद जेल में थें. आज फिर लालू प्रसाद जेल में हैं. अगर इस वक्त राजद अपने नेतृत्व से परिवारवाद दूर करेगा तो ही बिहार में लालटेन का संगठन फिर दुरुस्त हो सकता है। दरअसल, लालू प्रसाद की नब्बे के दशक वाली सियासत की जो शैली थी वह अभी भी उनमें है। भले हीं फलाना-फलाना वाद ने उनके उस ग्रास रूट लेवल की राजनीतिक शैली से आम लोगों का मोह भंग कर दिया हो। नहीं तो उनकी बेबाकी और सदाबहार खांटी राजनीति के आगे बड़े-बड़े शूरमा भी परास्त हो चुके हैं।
        फिलहाल, विडम्बना यह कि लालू-राबड़ी आज भी राजद को अपनी पारिवारिक सम्पत्ति मानते नजर आते हैं। मसलन, राबड़ी देवी को विधान परिषद् भेजने की कवायद और बेटे तेजस्वी को पार्टी नेतृत्व में शामिल करने की बात राजद के दिग्गजों में अपच की स्थिति पैदा कर रही है। खुद पार्टी के सबसे वरिष्ठ  नेता रघुवंश बाबू नेतृत्व के कतिपय फैसलों को लेकर असहमति जाता चुके हैं। और अब जब लालू प्रसाद जेल में हैं तो यह असहमति और मुखर होगी.
                                राजद के शीर्षस्थ नेताओं ने यह जहीर किया है कि राष्ट्रीय जनता दल बिहार में एक मात्र ऐसी पार्टी है जो चाहे तो सरकार का पूरजोर खिलाफत कर सकती है. पर आलाकमान उस भूमिका का निर्वहन येन-केन-प्रकारेण ही कर रही है। नीतीश सरकार के लीकेज को घेरने में जो उर्जा लगनी चाहिए उसमें नेतृत्व विफल हो रहा है। कई ऐसे मामले हैं जिन्हें भुना कर फिर से पार्टी का जनाधार बढ़ाया जा सकता था.
                                                                गौरतलब है कि जदयू और बीजेपी के तलाक के बाद कुछ पुराने समीकरण धराशायी हुए हैं इसमें कोई दो राय नहीं है। सो, राजद को अपने जनाधार बढ़ाने की कवायद तेज कर देनी चाहिए। लेकिन, उससे पहले नेतृत्व को लेकर कोई बड़ा फैसला सुप्रीमो लालू प्रसाद को जेल से ही लेना ही होगा। पार्टी में कई ऐसे कद्दावर नेता हैं जिन्हें अगर नेतृत्व दे दिया जाए तो राजद एक बार फिर लय में आ जाएगी। डा. रघुवंश प्रताप, रामकृपाल यादव, ए.ए. फातमी का नाम ऐसे वरिष्ठ नेताओं में शुमार है।
                                                                 
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शुक्रवार, सितंबर 27, 2013

एक रहस्यमयी मंदिर!


बिहार के बगहा पुलिस जिला स्थित पकीबावली मंदिर का रहस्य आज भी अनसुलझा है। 200 वर्ष पूर्व नेपाल नरेश जंग बहादुर द्वारा भेंट किया गया जिंदा सालीग्राम, जिसे चुनौटी (खईनी का डब्बा) में रखकर भारत लाया गया था, आज लगभग नारियल से दो गुना आकार का हो गया है और निरंतर इस जिंदा सालीग्राम का विकास जारी है। यह मंदिर बावली (तालाब) के पूर्वी तट पर स्थित है। बकौल मंदिर पुजारी इस मंदिर के जिर्णोद्धार के निमित्त बिड़ला समूह ने अपनी देख-रेख में लेने की पहल की थी। परंतु, स्थानीय हलवाई समुदाय ने इस रहस्यमय मंदिर को बिड़ला समूह को नहीं दिया। जानकारी के लिए बता दें कि यह सिद्ध पीठ मंदिर हलवाई समुदाय के संरक्षण में है। हलवाई समुदाय को डर था कि बिड़ला समूह को मंदिर देने पर मंदिर के निर्माणकत्र्ता रामजीयावन साह का नाम समाप्त हो जाएगा। जिसका फलसफा यह हुआ कि आज मंदिर की मेहराबों व दीवारों में दरारें पड़ गईं हैं। वहीं बावली के तट पर स्थित कई मंदिरें ढ़ह चुकी हैं।
मंदिर की ऐसी दुर्दशा होने के बावजूद यहां भूले-भटके श्रद्धालु तिलेश्वर महाराज के दर्शन करने चले आते हैं। हाल ही में सहज योग संस्था की ओर से दिल्ली, नोएडा तथा अमेरिका से तकरीबन पचास श्रद्धालु रहस्यमयी जिंदा सालीग्राम के दर्शन हेतु आये थें। भक्तों ने वहां जमकर भजन-कीर्तन भी किया था। स्थानीय लोगों ने भी आगन्तुकों का यथाशक्ति स्वागत किया।
मंदिर ट्रस्ट(जो कि अब बंद हो चुका है) द्वारा मुद्रित एक पुस्तक के मुताबिक तकरीबन 200 वर्ष पूर्व तत्कालीन नेपाल नरेश जंग बहादुर अंग्रेज सरकार के आदेश पर किसी जागीरदार को गिरफ्तार करने के लिए निकले थें। तब उन्होंने संयोगवश बगहा पुलिस जिला में ही अपना कैंप लगाया था। उस वक्त रामजीयावन साह खाड़सारी(चिनी) के उत्पादक थंे। रामजीयावन साह नेपाल नरेश की बगहा में ठहरने की सूचना पाकर, एक थाल में शक्कर भेंट करने के लिए कैंप गये। राजा ने खुश होकर उन्हें नेपाल आने का निमंत्रण दिया। रामजीयावन साह के नेपाल जाने पर भव्य स्वागत हुआ और वहां के राजपुरोहित ने उन्हें एक छोटा सा सालीग्राम भेंट किया और अवगत कराया कि यह तिलेश्वर महाराज हैं। रामजीयावन साह ने उस सालीग्राम को चुनौटी में करके बगहा(भारत) लाया तथा अपने पैसों से एक विशालकाय मंदिर प्रांगण की स्थापना की। मंदिर प्रांगण स्थित तालाब(बावली) के पूर्वी तट पर तिलेश्वर महाराज की स्थापना हुई, जहां आज भी वे अपनी अद्भुत छटा बिखेरते हैं।
बावली 

गौरतलब है कि पकीबावली मंदिर प्रांगण में स्थित तालाब के चारों ओर अनेक मंदिर हैं। कुछ मंदिर उपेक्षा के कारण ढ़ह चुकी हैं तो कुछ अभी भी मुत्र्त रूप में खड़ी रामजीयावन साह के सद्कर्मों को अतीत की कुहेलीकाओं से निकालकर वर्तमान में श्रद्धालुओं से बयां कर रही हैं। स्थानीय लोगों का मानना हैे कि बावली जबसे बना है अभी तक नहीं सुखा है। लोगों का यह भी मानना है कि यह किंवदंती है कि इस बावली में सात कुंआ है। वहीं बावली के पश्चिमी तट पर ग्यारह रूद्र दुधेेश्वर नाथ मंदिर तथा उत्तरी तट पर गणेश मंदिर है। इस सिद्ध पीठ स्थान के चारों ओर पार्क भी है। परंतु स्थानीय लोगों के कूपमंडूक दृष्टिकोण से यह सिद्धपीठ स्थान रहस्यमयी और अद्भुत होने के बावजूद स्थानीय रहस्य बनकर ही रह गया है।
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- सौरभ के.स्वतंत्र

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बुधवार, सितंबर 25, 2013

नीतीश जी, अब तो मुझे मत रगेदिये!

मेरा नाम है स्वप्न. मै दिन और रात दोनों समय घुस जाता हूँ मन में. मुझे एक बार घुसेड़ दिया गया बिहार के चम्पारण स्थित एक पुलिस जिले के लोगों के मन में. किसी और ने नहीं स्वयं नीतीश कुमार जी ने मेरे साथ ऐसा किया. उस समय वे मुख्यमंत्री नहीं थे और यही वजह थी कि उन्होंने मुझे लोगों को दिखाया . ये कोई ऐसा-वैसा जगह नहीं है साहब..यहाँ से नीतीश कुमार अपनी हर सफल यात्रा की शुरुआत करते हैं..न्याय यात्रा, विश्वास यात्रा, विकास यात्रा जैसे हर यात्रा का श्रीगणेश यही से करते हैं तथाकथित सुशासन बाबू..अपनी न्याय यात्रा में यही गंडक तट से सूराज का हूंकार भरा था और कहा था कि वे मुख्यमंत्री बनते ही इस जगह को राजस्व जिला बनायेंगे…मै घुसेड़ दिया गया यहाँ की जनता की जेहन में जबरन..पर दूसरे कार्यकाल तक भी स्वप्न(मैं) पूरा न हो सका..
अब तो नीतीश जी मैं बड़ा बेआबरू होकर कुचे से निकला..क्योंकि मुझे लोगों के टूटते स्वप्न(मैं) से बड़ा दर्द हो रहा है..कृपया कर मुझे अब मत रगेदिये..

आपका विनम्र

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रविवार, सितंबर 22, 2013

पानी के प्रकार

जल। जीवन का एक अभिन्न हिस्सा। शरीर का हिस्सा। सृष्टि का हिस्सा। कृषि का हिस्सा। हर क्षेत्र में सहभागी। कुदरत ने क्या कमाल किया, जल बिना सब सून या ठेठ साहित्य में कह लें तो बिन पानी सब सून। दरअसल, मैं पानी के जगह जल इसलिए उपयोग कर रहा था कि पानी के दो अर्थ हैं। एक पानी हया से मतलब रखता है तो दूसरे का सरोकार जीवन का अभिन्न हिस्सा वाले पानी से है। द्विअर्थी। कमाल की बात तो यह है कि इस वक्त किसी में शुद्धता नहीं है। बहुतेरे जगह तो पानी ही नहीं है। न आंख में न घाट पे। लिहाजा, इस किल्लत ने चाहुओर हड़बोंग मचा रखी है। लोग पानी के लिए आंख से पानी ही उतार दे रहे हैं। कोई आंख का पानी उतार, जीवनधारा वाले पानी को बेच रहा है तो कोई उसे अपनी जागीर बना आंखे तरेर रहा है। आंख में पानी ही नहीं है। सरकार भी अपने आंख का पानी शिकहर पर रख पानी की तिजारत पर को नजरंदाज कर रही है । नतीजन, आम जनता त्रस्त है। पानी बेचने वाले बाबा मस्त हैं। अब तो वस्तुस्थिति ऐसी हो गई है कि संडास के लिए भी पानी बेचे जाने की आशंका जतायी जा रही है। ए.सी. वाले नेता जी को तो इससे कोई मतलब ही नहीं , वे तो वेस्टर्न प्रसाधन सिस्टम से अपना काम चला रहे हैं। उन्हें पानी की कोई आवश्यकता ही नहीं। सो, दुख, दर्द, आफत इन सबसे नेताजी बचे हुए हैं। पर मैंगो पीपल या कह लीजिये आंख में पानी रखने वाली आम जनता तो पानी के किल्लत से परेशान है। आश्चर्य की बात तो यह है कि आंख में पानी है पर चौकाघर में पानी नहीं। औप्सन एक ही है। सो, अपील यही है मैंगो पीपल से कि आंख से पानी उतारकर नेताजी और पानी बेचने वाले बाबा को घसीट मारो, वरन पानी नसीब नहीं होने वाली।

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बुधवार, सितंबर 18, 2013

ब्राण्डेड भिखारियों की दूकान

पटना का हड़ताली चौक हो या दिल्ली का जंतर-मंतर, इसके आगोश में आने के बाद कार वाले लोग बे-कार और बेकार लोग सरगर्म हो जाते हैं। मैं भी एक दिन बे-कार के मानिंद जंतर-मंतर पहुंचा। जिंदाबाद-मुर्दाबाद के नारों से गूंजता वातावरण मुझे बड़ा ही रमणीय लगा। कहीं लोग धरना पर बैठकर वायलीन, ढोलक और तबले की थाप पर गानों की धुन निकाल कर अपना समय काट रहे थे तो कही सोकर।
तभी मेरी मुलाकात हुई एक बम्बईया बाबू से। जो बम्बई से यहां धरना देने आए थें। अभी जीवन के 19-20 बसंत देखे होंगे जनाब! पर इरादा एकदम बुलंद था। इनकी मांग थी रेहड़ी-पटरी पर सब्जी बेचने वालों को न्याय दिया जाए। जब मैंने पूछा कि भाई ई सब्जी वालों को कौन सी न्याय की जरूरत आन पड़ी। तब उसने विस्तार से बताया - सब्जी की दूकान थी साहेब। बहुत अच्छी चल रेली थी। दो टैम का रोटी आसानी से मिल जाता था। भाई लोगों का हफ्ता भी चुकता हो जाता था। लाइफ एकदम बिंदास चल रेली थी साहेब। एक दम रापचीक। साहेब प्राब्लम तब आया जब इधर अपुन लोगों के पेट पर लात मारकर मोबाइल बेचने वाले मामू लोग सब्जी का बड़ा-बड़ा दूकान खोला। दूकान बोले तो एकदम झकास। शीशा-वीशा लगा कर। अब फ्रेश-फ्रेश सब्जी एयरकंडीशंड दूकान में अपुन लोगों के रेट पर मामू लोग बेच रेला है, सो, हमारे कस्टमर बड़े-बड़े दूकानों की तरफ जाने का है न साहेब।
इधर जब पेट पर लात पड़ता है न साहेब तब दिमाग घूम जाता है। तब अपुन भी सोच लिया कि इधर भाई लोगों को फोकट में हफ्ता देने से बढि़या है कि आंदोलन करें। तब से इधर अपुन एक साल से बैठा है। पर अभी तक कोई हमारा आवाज सुनने को नहीं मांगता साहेब।
मैं भी सोचने लगा कि इनका हड़ताल एकदम वाजिब है। मैंने कहा तेरे लोगों का इधर धरना एकदम उचित है.....बोले तो एकदम उचित।
अब मैं आगे क्या कहता? बम्बईया बाबू को सांत्वना देकर वहां से चल दिया। अभी वहां से चला ही था कि एक भिखारी मेरे पीछे पड़ गया और बोलने लगा - दस रूपये दे दोना साब! बच्चा भूखा है...साब दे दोना साब!
मैंने भी उससे बम्बईया भाषा में बोला......अभी तेरे को इधर से निकलने का मांगता हैं और बड़े-बड़े साहबों से भीख नहीं मांगने का। क्या? बोले तो बड़े-बड़े साहबों से भीख नहीं मांगने का....। बड़ा साहब लोग बड़ा चालाक होने का। तुम्हारे हाथ में इतना सारा चिल्लर-पैसा देख लिया न तो समझो तुम्हारा काम फिनिश। बोले तो फिनिश....। वह भी सब्जी की दूकान के बाद भिखारियों की दूकान खोल लेगा और अपना ब्राण्डेड भिखारी रोड पर दौड़ाने लगेगा। फिर तुम लोगों को भीख कौन देगा ? तेरे शरीर से तो बदबू आ रेली है बाप! लोग सोचेंगे कि बदबूदार भिखारियों को भीख देने से अच्छा तो परफ्यूम लगाए ब्राण्डेड भिखारियों को भीख दें। तब तुम लोग भी इधर जंतर-मंतर और हड़ताली चौक पर धरना देता फिरेगा । इसलिए इधर से अभी निकल लेने का.....वह देखो बड़ा साब आ रेला है और भिखारी तेज कदमों से वहां से निकल लिया।
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- सौरभ के.स्वतंत्र
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मंगलवार, सितंबर 17, 2013

चंपारण में एक गाँधी आश्रम

भितिहरवा का गाँधी आश्रम 
एक सपना था-बापू का ऐतिहासिक धरोहर भितिहरवा आश्रम सरकारी तंत्र की तंद्रा के चलते उपेक्षित न रहे। न हीं उसकी चाहरदिवारी धूल-धूसरीत हो। सो एक सामाजिक न्याय के झंडाबरदार ने अपने इस सपने को साकार करने के लिए वीणा उठाया। अन्होंने अपने बेबाक वक्तव्यों से सरकारी तंत्र के गैरजिम्मेदाराना रवैये से इतर चंपारण की जनता के अंदर सरकारी सहायता की मोहताज इस अनमोल विरासत के प्रति जागरूकता पैदा की। जिसका नतीजा यह हुआ कि चंपारणवासियों ने उस प्रणेता के अहवान को स्वीकारते हुए गांधी के उपेक्षित आश्रम के जिर्णोद्धार के निमित्त भीक्षाटन किया। नतीजन उक्त वाकये ने तत्कालीन कांग्रेसी सरकार को केवल शर्मसार ही नहीं किया अपितु आनन-फानन में गांधी आश्रम के चाहरदिवारी को बनाने पर भी मजबूर किया। सरकारी तंत्र को शर्मसार करने वाले वे कोई और नहीं भारत के पूर्व प्रधानमंत्री व समाजिक सरोकार के हितैषी चंद्रशेखर थें। जो कि हमारे बीच अब नहीं हैं।
                                                उनके कार्यशैली का केवल उत्तर प्रदेश ही नहीं पूरा देश कायल था। युवा तुर्क के नाम से मशहूर चंद्रशेखर के प्रभाव से बिहार का चंपारण भी अछुता नहीं रहा है। जब वे 1988 में पश्चिम चंपारण स्थित भितिहरवा प्रखण्ड में दूसरी बार पांव रखे थे, तब उनसे गांधी के अनमोल धरोहर भितिहरवा आश्रम, जहाँ से गाँधी जी ने चंपारण में ऐतिहासिक सत्याग्रह किया था, की दुर्दशा देख आंखे नम हो गईं। उन्होंने इस विरासत की सरकारी उपेक्षा को देश के लिए शर्म बताया और आश्रम के जिर्णोद्धार के लिए चंपारण की जनता से चंदा एकत्र करने का आह्वान किया। चंदा तो इकट्ठा हुआ। परंतु, अपनी घटती लोकप्रियता को आंकते ही तत्कालीन कांग्रेसी सरकार ने अपने स्तर से बापू की कर्मभूमि पर चाहरदिवारी को जैसे-तैसे बनावा डाला। उस बाबत चंद्रशेखर ने भीक्षाटन से जमा हुई राशि को दूसरे शुभ काम में लगा दिया। उन्होंने उस राशि से आश्रम से लगे गांधी शोध संस्थान की नींव डाल दी। बताते हैं कि चंद्रशेखर ने भितिहरवा में गांधी शोध संस्थान के निर्माण को अपने सपनों का प्रोजेक्ट यानी ड्रीम प्रोजेक्ट माना था तथा वे इस प्रोजेक्ट को अपने जीवनकाल में ही फलीभूत करना चाहते थें।
                                              जानकार बताते हैं कि वे अंतिम बार 12 अप्रैल 2003 को गांधी की इस कर्मभूमि पर पांव रखे थें। जहां उन्होंने इस प्रोजेक्ट में अपने निकटतम सहयोगियों को दगाबाज पाया था। तिस पर भी बलिया के बलराम चंद्रशेखर हार नहीं माने और उन्होंने भावी गांधी शोध संस्थान के समक्ष महान आंदोलनकारी जयप्रकाश नारायण की प्रतीमा का अनावरण किया। साथ में उन्होंने भितिहरवा में आयोजित एक जनसभा को संबोधित करते हुये उन धोखेबाज सहयोगियों पर आक्रोश व्यक्त किया।
                                                     
कालांतर में बीमारियों ने उनके शरीर को ऐसे जकड़ा कि दुबारा उन्हें इस पावन भूमि की पीड़ा को तृप्त करने का मौका नहीं मिला। विदित हो कि चंद्रशेखर के देहावसान के बाद उनके अद्भुत ड्रीम प्रोजेक्ट का निर्माण कार्य भी अधर में लटक गया है। और तो और गांधी आश्रम की चाहरदिवारी में भी दरारें पड़ गईं हैं। जिससे यह कहना मुश्किल है कि सरकार अपने विकास के नारों में राष्ट्रपिता की कर्मभूमि पर चंद्रशेखर के ड्रीम प्रोजेक्ट गांधी शोध संस्थान को सम्मिलित करेगी। क्योंकि, बापू का भितिहरवा आश्रम ही पूरी तरह उपेक्षित है।
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- सौरभ के.स्वतंत्र
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आंधी और कविता

कल शाम की आंधी में
उड़े थे बहुत कुछ बेतरतीब,
उसी आंधी में उड़ी थी 
मेरी एक कविता भी,
मैंने अफ़सोस नहीं किया
सोंचा और अपने आप को कोंचा
कि कही इसी कविता से 
आंधी में बही मानवता 
वापस आ जाए,
चारों ओर खुशहाली छा जाए,
दिवाली और ईद
हम साथ-साथ मनाए,
आंधी की शुरुआत करने वालों
का दिल बदल जाए....
सुना है
कविता ने कई धाराओं को
मोड़ दिया,
हैवानियत की कमर को
तोड़ दिया,
सो, उम्मीद है
हम एक दूसरा
मुज़फ्फरनगर न दुहराए.
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- सौरभ के.स्वतंत्र

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सोमवार, सितंबर 16, 2013

रिश्ते

ये मौन/
ये सन्नाटा
क्यूँ?
आखिर हुआ क्या?
रिश्ते दरकते हैं तो
आवाज़ आती है..
फिर...
लगता है कोई दिल का 
टुकड़ा अलग हुआ है/
शायद वजह यही है.
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- सौरभ के स्वतंत्र


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शनिवार, सितंबर 14, 2013

वो भुकड़ी लगी रोटियां

आज पढ़ रहा था/

भुकड़ी लगे
रोटियों को,
थोड़ी पिली जरूर
पर शब्दश: सब कुछ
अभी भी लिखा है
उन रोटियों पर
माँ का प्यार और सुझाव,
पिता का स्नेह और
मानी-आर्डर के पावती का जिक्र,
बहन के साथ
झोटा-पकड़ लड़ाई पर
माँ की डांट ,
हर रोटियां
कुछ न कुछ
जरूर कह रही हैं,
उसी में दबा मिला
एक और रोटी
लिफाफे में बंद,
यादे ताज़ा हो गयीं
पहले प्यार की
पहली चिट्ठी से,
मै आज बेहद रोमांचित हूँ
उन चन्द
रोटियों पर पड़े शब्दों को पढ़,
 चुक्कड़ की जगह
शीशे की ग्लास में
चाय पीता बलरेज में
मै आज यही सोच रहा हूँ कि
अब रोटियां कहाँ विलुप्त
हो गयीं हैं…
आज क्यों नहीं दस्तक
दे रहे हैं खाखी पहने
झोला टाँगे बाबर्ची,
फास्टफूड के आगे..
अब यादों को फटे लिफाफे
 और बंद पेटियों में
सहेजना
मुश्किल ही नहीं नामुमकिन
जान पड़ता है….
- सौरभ के.स्वतंत्र
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एक मजबूत विकल्प की दरकार!

हंग पार्लियामेंट से बेहतर होगा कि हम अपना वोट और विश्वास उस गठबंधन को सौपें जो लगता है कि वाकई ये सत्ता का प्रबल दावेदार है. अन्यथा इस देश की माली हालत छिपी नहीं है. देश को एक स्थिर और निर्णायक सरकार की दरकार है. लिहाजा, हमें चाहिए की हम तीसरे मोर्चे पर भी अपनी राय स्पष्ट करें. दरसल, बीजेपी के पास वैसे अलाइस नहीं हैं जो 272 को मैजिकल फिगर उसे दिलवा दे. आपका क्या कहना है?? नमो या राहुल का भ्रम पाल कर देश को रसातल में ले जाना है या एक मजबूत विकल्प ढूँढना है..


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शुक्रवार, सितंबर 13, 2013

हॉर्स पॉवर और आर.पी.एम. वाले बच्चे!

‘अभिभावक की अपेक्षाएं’ और ‘बच्चों पर बस्ते का बोझ’ जैसे मुद्दे पर निरंतर बहस जारी है। पर विडम्बना यह है कि शिक्षाविद् भी इस बहस में संतुलन नहीं बना पा रहे। बच्चों पर आखिर कितना बोझ दिया जाए और अभिभावकों की अत्यधिक अपेक्षाओं पर लगाम कैसे लगाया जाए, इन सवालों का जवाब ढ़ूंढ़ पाना मुश्किल है। बच्चे तो कोई मशीन नहीं कि जब चाहा अभिभावक की अपेक्षाओं के अनुरूप उनका आर.पी.एम और हॉर्स पावर बढ़ा दिया जाए और अपेक्षित नतीजा मिल जाए। हर बच्चे की अपनी मौलिकता होती है। अगर उस मौलिकता के साथ छेड़छाड़ किया जाता है तो निश्चित ही उस बच्चे का भविष्य गर्त में जा सकता है।
एक स्कूल, एक क्लास, एक ही शिक्षक। पर रिजल्ट में अंतर क्यों? एक बच्चा 90 प्रतिशत अंक स्कोर करता है तो वही दूसरा बच्चा 40 प्रतिशत। आखिर क्यों? मेरे नजरिये से इसका जवाब तो यह हो सकता है कि उस बच्चे का रूझान किसी और कला में हो। यानी वह बच्चा भी अव्वल दर्जे का है। वह उसी प्रतिशत अंक लाने वाले बच्चे को अपनी कला में पछाड़ सकता है। खराब रिजल्ट का दूसरा कारक यह भी हो सकता है कि बच्चे को घर पर सही मार्गदर्शन या वह माहौल नहीं मिल पा रहा हो जो पहले बच्चे का मिलता आ रहा है। पर, ज्यादा बच्चे के रूझान पर निर्भर करता है।
अब सवाल यह है कि बच्चे के अंदर पढ़ाई के प्रति ललक कैसे पैदा किया जाए? बच्चा खेलने में ज्यादा मन लगा रहा है, तो पढ़ाई?
पढ़ाई तो अभिभावक के नजरिये पर निर्भर करता है। ग्लास आधा भरा है या आधा खाली, यही आपके नजरिये और सोच को दर्शाता है। अगर आप ग्लास को आधा भरा मानते हैं तो निष्चित ही आप अपने बच्चे में भरे गुण से वाकिफ हैं और आप अपने बच्चे का एक बेहतर भविष्य निर्माण कर सकते हैं। बच्चे के अंदर आप उसके उसी आधे भरे गुण से पढ़ाई के प्रति ललक पैदा कर सकते हैं।
रचनात्मकता एक शब्द है। जिसे मैंने अपने अध्यापन काल में जाना। मैंने यह भी जाना कि जो व्यक्ति जितना ही रचनात्मक या रचनाशील है..वह उतना ही सफल है। अध्यापन के 8 साल के इस दौर में मैंने पाया कि बच्चा स्कूल आता है, क्लास वर्क करता है और फिर घर जाकर होमवर्क। पढ़ाई पूरी।
मुझे लगता कि बच्चों में जब तक कुछ नया नहीं दिया जाए तो उसके अंदर स्कूल और पढाई के प्रति आकर्षण नहीं बढेगा। सो, हमलोगों को रचनात्मकता पर जोर देना चाहिए। विद्यालय प्रबंधन रचनाशील रहें तो निश्चित हीं विद्यालयीन बच्चों के भीतर शिक्षा के प्रति ललक पैदा किया जा सकता है। मसलन, प्ले-वे मेथड, पब्लिक एड्रेसिंग, वाद-विवाद, ग्रुप डिस्कशन , आॅडियो-विजुअल, स्मार्ट क्लास, विद्यालयी पत्रिका, क्वीज प्रतियोगिता आदि। वहीं शिक्षक भी पुराने ढर्रे को छोड़ अब नये ढर्रे को अपनाये तो बेहतर। दूसरी ओर समाज की भी यह जिम्मेदारी बनती है कि बच्चों में स्कूल और शिक्षा के प्रति झुकाव बढाये।
बच्चों के रूझान को सही दिशा देने के क्रम में सामाजिक संस्थाओं द्वारा जागरूकता और मार्गदर्शन उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना कि एक अच्छे विद्यालय और अभिभावक का योगदान।
सो, कहना न होगा कि बच्चों के सर्वांगीण विकास में समाज की भूमिका भी महती है। मेरे विचार से बच्चों के अंदर पढ़ाई का भय पैदा करने से बेहतर उसके अंदर ललक पैदा करना श्रेयस्कर है....और वह ललक आपके रचनात्मक सोच से पैदा की जा सकती है।
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- सौरभ के.स्वतंत्र
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रोटी और वोट!

एक चौथाई रोटी खायेंगे, कांग्रेस को जिताएंगे,
राहुल बाबा की खातिर अंतड़ी/पेट को सुखायेंगे,
ज्यादा हुआ तो हवा पियेंगे और पानी खायेंगे.



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