लालू प्रसाद और राष्ट्रीय जनता दल का भविष्य
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- सौरभ
के.स्वतंत्र
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बिहार में राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद जब सत्ता
में थें तब ‘ससुराल’ समीकरण की तूती बोलती थी। साधू, सुभाष, राबड़ी
और लालू के इर्द-गिर्द हीं सत्ता की धुरी घूमा करती थी। ठेठ राजनीति करने वाले
लालू प्रसाद उस दौर में एक नयी परम्परा गढ़ रहे थें। श्री बाबू और अनुग्रह बाबू की
शाश्वत राजनीतिक शैली, जिसके
लिए बिहार गौरवान्वित महसूस करता था, लालू प्रसाद की सुप्रीमोवादी शैली में तब्दील हो रही थी। जेपी के
सिद्धांतों को किनारा लगाया जा रहा था. परिवारवाद ने राजनीति में सर चढ़ना शुरू कर
दिया था।
पार्टी अध्यक्ष मतलब सुप्रीमो! सर ने
जो कहा, वह आदेश। पत्थर की लकीर मानकर उस पर कार्यकर्ताओं
को चलना ही था। भले हीं पार्टी या उसके कार्यकत्ता दोजख में चले जायें। परिवारवाद
की राजनीति कुछ थी ही ऐसी। पन्द्रह सालों तक राजद ने सुप्रीमोवादी शैली में बिहार
पर राज तो किया पर, नतीजा
क्या हुआ? जाहिर है। पार्टी ने अपने ही कार्यकताओं
का विश्वास खो दिया। परिवारवाद और जी हजूरी से पार्टी के नेताओं में घोर असंतोष
उपटता चला गया। जिसका खामियाजा आज पूरे राष्ट्रीय जनता दल को उठाना पड़ रहा है।
वही रही-सही कसर सुप्रीमो लालू प्रसाद के चारा घोटाले में दोषी करार दिए जाने ने
पूरी कर दी. आलम यह है कि सुनहरे भविष्य की कोरी कल्पना करने वाले आज कई पार्टी
सदस्य, पार्टी से अलग होकर दो जून की रोटी के
जुगाड़ में जैसे-तैसे लगे हुए हैं। यह दीगर बात है कि आज राजद पूरे सूबे में
सदस्यता अभियान चलाने का नाकाम प्रयास कर रही है।
दरअसल, राबड़ी दौर से ही राष्ट्रीय जनता दल में नेतृत्व को लेकर अंदरखाने से
असहमति महसूस की जाती रही है। यह भी सच है कि राजद में लालू प्रसाद के कई ऐसे
कद्दावर नेता वफादार रहे हैं जिन्होंने सूबे की कई दलों के जड़ में मठ्ठा डालकर
राजद की साख को मजबूत किया है। पर, जबसे परिवारवादी और सुप्रीमोवादी सियासत में लालू प्रसाद मुब्तला हुए
हैं तब से ये वरिष्ठ नेता पार्टी में रहकर भी पार्टी के पूरी तरह से नहीं हुए।
नतीजन, शिवानंद तिवारी, श्याम रजक जैसे दिग्गजों, जो पार्टी या सरकार में बड़े पद को सुशोभित
करते रहें, को भी राजद से जद(यू) की तरफ अपने
बेहतर भविष्य के लिए पार्टी को मझधार में छोड़ कर जाना पड़ा।
‘माय’ (मुसलमान-यादव) और कालांतर में यानी में ‘मायका’ (मुसलमान-यादव-कायस्थ) ने बल देकर राजद को सरकार
बनाने का मौका दिया पर घोर परिवारवाद ने इन समीकरणों के भ्रम को तोड़ा भी। राजद ने
तो उस समय भी सरकार बखूबी चलाया जब सुप्रीमो लालू प्रसाद जेल में थें. आज फिर लालू
प्रसाद जेल में हैं. अगर इस वक्त राजद अपने नेतृत्व से परिवारवाद दूर करेगा तो ही बिहार
में लालटेन का संगठन फिर दुरुस्त हो सकता है। दरअसल, लालू प्रसाद की नब्बे के दशक वाली सियासत की जो शैली थी वह अभी भी
उनमें है। भले हीं फलाना-फलाना वाद ने उनके उस ग्रास रूट लेवल की राजनीतिक शैली से
आम लोगों का मोह भंग कर दिया हो। नहीं तो उनकी बेबाकी और सदाबहार खांटी राजनीति के
आगे बड़े-बड़े शूरमा भी परास्त हो चुके हैं।
फिलहाल, विडम्बना यह कि लालू-राबड़ी आज भी राजद
को अपनी पारिवारिक सम्पत्ति मानते नजर आते हैं। मसलन, राबड़ी देवी को विधान परिषद् भेजने की
कवायद और बेटे तेजस्वी को पार्टी नेतृत्व में शामिल करने की बात राजद के दिग्गजों
में अपच की स्थिति पैदा कर रही है। खुद पार्टी के सबसे वरिष्ठ नेता रघुवंश बाबू नेतृत्व के कतिपय फैसलों को
लेकर असहमति जाता चुके हैं। और अब जब लालू प्रसाद जेल में हैं तो यह असहमति और
मुखर होगी.
राजद के शीर्षस्थ नेताओं ने यह जहीर
किया है कि राष्ट्रीय जनता दल बिहार में एक मात्र ऐसी पार्टी है जो चाहे तो सरकार
का पूरजोर खिलाफत कर सकती है. पर आलाकमान उस भूमिका का निर्वहन येन-केन-प्रकारेण
ही कर रही है। नीतीश सरकार के लीकेज को घेरने में जो उर्जा लगनी चाहिए उसमें
नेतृत्व विफल हो रहा है। कई ऐसे मामले हैं जिन्हें भुना कर फिर से पार्टी का
जनाधार बढ़ाया जा सकता था.
गौरतलब है कि जदयू और बीजेपी के तलाक के
बाद कुछ पुराने समीकरण धराशायी हुए हैं इसमें
कोई दो राय नहीं है। सो, राजद
को अपने जनाधार बढ़ाने की कवायद तेज कर देनी चाहिए। लेकिन, उससे पहले नेतृत्व को लेकर कोई बड़ा
फैसला सुप्रीमो लालू प्रसाद को जेल से ही लेना ही होगा। पार्टी में कई ऐसे कद्दावर
नेता हैं जिन्हें अगर नेतृत्व दे दिया जाए तो राजद एक बार फिर लय में आ जाएगी। डा.
रघुवंश प्रताप, रामकृपाल यादव, ए.ए. फातमी का नाम ऐसे वरिष्ठ नेताओं
में शुमार है।