० सौरभ के.स्वतंत्र
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- इस बिहार विधान सभा चुनाव में उभरेंगे नए समीकरण
रणभेरी बज चुकी है। बिहार के क्षत्रप विधानसभा चुनाव में किला फतह करने के निमित्त अपनी जोरआजमाइश शुरू कर दिये हैं। राजनीतिक दलों के अंदरखाने में रणनीति बनाई जा रही है। किसी तंबू में विकास को मुख्य मुद्दा बनाने की बात चल रही है तो कही दूसरे दल के नेताओं को भर्ती किया जा रहा है। एनडीए से लेकर राजद-लोजपा जोड़ी तथा कांग्रेस और वामदल तक हर कोई इस फिराक में है कि कहां कौन सा कदम उठाया जाए कि ज्यादा वोट मिले। मसलन, किस सीट पर कौन सा एजेंडा कारगर होगा। इस लिहाज से एनडीए चहंुमुखी विकास को मुख्य एजेंडा बनाने के फिराक में है तो वहीं लालू-पासवान एनडीए सरकार के पोल-खोल को एजेंडा बनाने के फिराक में। वहीं कांग्रेस अपने केंद्र सरकार के कार्यों को भुनाने में व्यस्त दिख रही है। विकास और महंगाई को लेकर वामदल भी लामबंद हैं। कुल मिलाकर एजेंडे की परिधि में विकास और महंगाई चक्कर काटती प्रतीत हो रही है। मानिए जातीय समीकरण से इस चुनाव का कोई वास्ता ही न होगा। सिर्फ विकास और विकास।
यह जगजाहिर है कि सूबे की अलहदा सियासत में समीकरणों के कई आयाम रहे हैं। सो, यह कहना बेमानी होगा कि इस विधानसभा चुनाव में कोई समीकरण काम नहीं करेगा। हां यह जरूर की लालू प्रसाद का एम-वाई (मुस्लिम-यादव) समीकरण दरक गया है। वहीं उनका मायका (मुस्लिम-यादव-कायस्थ) भी छिटक गया है। साथ में ससुराल(साधु-सुभाष -राबड़ी-लालू) समीकरण का हश्र भी सामने है। पर बावजूद इसके इस चुनाव में कई समीकरणों के काम करने की आशंका जतायी जा रही है। विगत 2009 के लोकसभा आम चुनाव में भी विकास को ही जीत का अमोघ अस्त्र कहकर महिमामंडित किया जा रहा था। आम चुनाव में जदयू-भाजपा गठबंधन ने 32 दुर्ग एक साथ भेद डाले थें। चर्चा यही थी कि ये सारे दुर्ग विकास के अस्त्र से भेदा गया है। कहीं नहीं कहा गया कि इस फतह में अन्य समीकरणों का हाथ रहा। राजनीति के विश्लेषकों ने भी इस पर गौर करना उचित नहीं समझा था। बस विकास की जय हो!
पर विकास के साथ-साथ उस चुनाव में कई तरह के समीकरण उभर के सामने आये थें। यह कहना एकदम गलत था कि नीतीश कुमार एंड कम्पनी ने उस आमचुनाव में सिर्फ विकास के अस्त्र से बाजी मारी थी। गौरतलब है कि जब उससे पहले के आम चुनाव यानी 2004 में लालू प्रसाद यूपीए के साथ मिलकर चुनाव लड़े थें, तब उन्हें और रामविलास पासवान को क्रमश: 23 और 4 सीटें मिली थीं, जबकि उस समय बिहार में लालू प्रसाद का कुशासन था। जनता कास्ट, क्राइम और करप्शन से जूझ रही थी।
वहीं केंद्र सरकार में रहकर जब लालू ने रेल और पासवान ने इस्पात तथा उर्वरक मंत्रालय से बिहार में विकास का परचम लहराया , तब राजद को आम चुनाव 2009 में महज 4 सीटें मिलीं और लोजपा को सूपड़ा ही साफ हो गया। यह इस बात का प्रमाण है कि विकास का नगाड़ा बजाने के बावजूद कहीं न कहीं समीकरण ने भी काम किया। सूबे में सिर्फ विकास का नारा लगाना चुनावी वैतरणी पार लगाने का जरिया नहीं है।
पार्टी में टिकट बंटवारे को लेकर असंतोष से लेकर दल-बदल तक इस विधानसभा में बाजी पलट सकती है। टिकट बंटवारे को लेकर अगर उम्मीदवारों में असंतोष होगा तो निश्चित तौर पर उसी दल का असंतुष्ट उम्मीदवार किसी और दल से या निर्दलीय उठकर वोटकटवा का काम कर सकता है। विगत लोकसभा चुनाव 2009 में वाल्मीकिनगर से पूर्व केंद्र सरकार में मंत्री रहे रघुनाथ झा की हार इसका जीता-जागता उदाहरण है। उन्हीं के दल के मो. फखरूद्दीन ने निर्दलीय चुनाव लड़कर , पूर्व मंत्री की उम्मीदों के ताबूत में आखिरी कील ठोंक दी थी। वहीं यादव जागरण मंच के प्रणेता रंजन प्रसाद यादव का लोजपा से जदयू में जाना यादव वोट में बिखराव का सबब बन सकता है। दल-बदल के ऐसे कई उदाहरण हैं जिसके चलते मतदाता निराश और शंका में हैं। पल में तोला पल में माशा वाली बात सूबे की राजनीति में चरितार्थ हो रही है।
लब्बोलुआब यही है कि इस विधानसभा चुनाव में कई नये समीकरण उभर कर सामने आयेंगे और वे समीकरण बाजी पलट भी सकते हैं।
0000यह जगजाहिर है कि सूबे की अलहदा सियासत में समीकरणों के कई आयाम रहे हैं। सो, यह कहना बेमानी होगा कि इस विधानसभा चुनाव में कोई समीकरण काम नहीं करेगा। हां यह जरूर की लालू प्रसाद का एम-वाई (मुस्लिम-यादव) समीकरण दरक गया है। वहीं उनका मायका (मुस्लिम-यादव-कायस्थ) भी छिटक गया है। साथ में ससुराल(साधु-सुभाष -राबड़ी-लालू) समीकरण का हश्र भी सामने है। पर बावजूद इसके इस चुनाव में कई समीकरणों के काम करने की आशंका जतायी जा रही है। विगत 2009 के लोकसभा आम चुनाव में भी विकास को ही जीत का अमोघ अस्त्र कहकर महिमामंडित किया जा रहा था। आम चुनाव में जदयू-भाजपा गठबंधन ने 32 दुर्ग एक साथ भेद डाले थें। चर्चा यही थी कि ये सारे दुर्ग विकास के अस्त्र से भेदा गया है। कहीं नहीं कहा गया कि इस फतह में अन्य समीकरणों का हाथ रहा। राजनीति के विश्लेषकों ने भी इस पर गौर करना उचित नहीं समझा था। बस विकास की जय हो!
पर विकास के साथ-साथ उस चुनाव में कई तरह के समीकरण उभर के सामने आये थें। यह कहना एकदम गलत था कि नीतीश कुमार एंड कम्पनी ने उस आमचुनाव में सिर्फ विकास के अस्त्र से बाजी मारी थी। गौरतलब है कि जब उससे पहले के आम चुनाव यानी 2004 में लालू प्रसाद यूपीए के साथ मिलकर चुनाव लड़े थें, तब उन्हें और रामविलास पासवान को क्रमश: 23 और 4 सीटें मिली थीं, जबकि उस समय बिहार में लालू प्रसाद का कुशासन था। जनता कास्ट, क्राइम और करप्शन से जूझ रही थी।
वहीं केंद्र सरकार में रहकर जब लालू ने रेल और पासवान ने इस्पात तथा उर्वरक मंत्रालय से बिहार में विकास का परचम लहराया , तब राजद को आम चुनाव 2009 में महज 4 सीटें मिलीं और लोजपा को सूपड़ा ही साफ हो गया। यह इस बात का प्रमाण है कि विकास का नगाड़ा बजाने के बावजूद कहीं न कहीं समीकरण ने भी काम किया। सूबे में सिर्फ विकास का नारा लगाना चुनावी वैतरणी पार लगाने का जरिया नहीं है।
पार्टी में टिकट बंटवारे को लेकर असंतोष से लेकर दल-बदल तक इस विधानसभा में बाजी पलट सकती है। टिकट बंटवारे को लेकर अगर उम्मीदवारों में असंतोष होगा तो निश्चित तौर पर उसी दल का असंतुष्ट उम्मीदवार किसी और दल से या निर्दलीय उठकर वोटकटवा का काम कर सकता है। विगत लोकसभा चुनाव 2009 में वाल्मीकिनगर से पूर्व केंद्र सरकार में मंत्री रहे रघुनाथ झा की हार इसका जीता-जागता उदाहरण है। उन्हीं के दल के मो. फखरूद्दीन ने निर्दलीय चुनाव लड़कर , पूर्व मंत्री की उम्मीदों के ताबूत में आखिरी कील ठोंक दी थी। वहीं यादव जागरण मंच के प्रणेता रंजन प्रसाद यादव का लोजपा से जदयू में जाना यादव वोट में बिखराव का सबब बन सकता है। दल-बदल के ऐसे कई उदाहरण हैं जिसके चलते मतदाता निराश और शंका में हैं। पल में तोला पल में माशा वाली बात सूबे की राजनीति में चरितार्थ हो रही है।
लब्बोलुआब यही है कि इस विधानसभा चुनाव में कई नये समीकरण उभर कर सामने आयेंगे और वे समीकरण बाजी पलट भी सकते हैं।