सच हम नहीं, सच तुम नहीं, सच है महज संघर्ष ही!

शनिवार, जून 12, 2010

टापू

जानती हूं मैं

सागर हो तुम

अथाह, विस्तृत, उन्मुक्त

और मेरी इयत्ता

एक नौका भर है

जानते हो तुम!

उभचुभ सांसों को संभाले

ढूंढती हूं मैं

कोई टापू

प्रेम का, विश्वास का

जहां ले सकूं मैं

चंद सांसे

सुकून की।


- सीमा स्वधा

4 टिप्‍पणियां:

  1. अनुभूतियों की आकर्षक अभिव्यक्ति....अपनी प्रतीक योजना व कथ्य के स्तर पर सशक्त रचना..बधाई।

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  2. ढूंढती हूं मैं

    कोई टापू

    प्रेम का, विश्वास का
    बहुत खूब
    चित्र चयन लाजवाब

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  3. ढूंढती हूं मैं

    कोई टापू

    प्रेम का, विश्वास का

    जहां ले सकूं मैं

    चंद सांसे

    सुकून की।
    वाह .. बढिया !!

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