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शुक्रवार, मई 21, 2010

जातिवाद का जहर : दुनिया के जातिवादी एक हों

जातिवाद पर विवाद कोई नया नहीं है..मंडल के कमंडल से लेकर अब तक, जाति आधारित राजनीति खूब हुई..कईयों ने तो इस राजनीति का जमकर फायदा उठाया और आज नेताजी बन बैठे हैं..या उनके शब्दों में कह लीजिये जनता के सेवक बन बैठे हैं..उसका सच "जातिवाद का जहर" सीरिज से एक बहस शुरू करने जा रहा है..हो सकता है इस बहस से कुछ सार्थक विचार निकले. इस सीरिज में देश के सभी पत्रकारों और लेखकों के लेख आमंत्रित है...आप अपना बेबाक लेख saurabh.swatantra@gmail.com पर सीधा मेल कर सकते हैं...पेश है जातिवाद का जहर-1 में आई.बी.एन. 7 के प्रबंध संपादक आशुतोष के विचार:
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दुनिया के जातिवादी एक हों

मंडल कमीशन लागू ही हुआ था। अचानक मुझे अपने दोस्तों में कुछ बदलाव दिखाई पड़े। दोस्तों के नाम के आगे कुछ नए नाम चस्पा होने लगे। किसी के आगे 'यादव' जुड़ गया तो किसी के आगे 'मिश्रा'। जोरशोर से प्रचार भी होने लगा कि वो अमुक जाति के हैं। मुझे भी अपनी जाति पता थी। लेकिन ये वो लोग थे जो काफी समय से कैंपस में रह रहे थे और हमेशा प्रगतिशील राजनीति के बारे में ही बातें किया करते थे। इन लोगों के लिये जाति समाज को तोड़ने वाली चीज थी। इनकी नजर में 'क्लास' यानी 'वर्ग' ही महत्वपूर्ण था। ये अपने आप को मार्क्सवादी कहते थे और सीपीएम, सीपीआई और कुछ दूसरी रेडिकल लेफ्टवादी पार्टियों की छात्र शाखा के सक्रिय सदस्य थे।
मुझ में जितनी समझ थी उसके मुताबिक मैंने मंडल कमीशन का विरोध करने की ठानी। बहुत सारे उच्च जाति के साथी साथ हो लिये। मैं कहता था कि ये जाति व्यवस्था ही गड़बड़ है इसलिये हमें मंडल का नहीं पूरी जाति आधारित राजनीति का विरोध करना चाहिये क्योंकि मंडल से जातिवाद का जहर और फैलेगा। आरक्षण की जगह सबको सरकार की तरफ से बराबर का मौका मिलना चाहिये और बराबर की सुविधाएं दी जानी चाहिये और जो पिछड़े हैं उनकी पढ़ाई-लिखाई के लिये विशेष इंतजाम होने चाहिये ताकि वो दूसरों के साथ बराबरी से कंपीट कर सके। इस बीच मैंने अपने आंदोलनकारियों के सामने एक प्रस्ताव रखा कि हमें जाति सूचक शब्दों का त्याग कर एक नयी शुरुआत करनी चाहिये। जातिवादी सरनेम हमेशा के लिये छोड़ देने चाहिये। अगले दिन मैं तय समय पर पंहुचा। काफी देर तक इंतजार किया कोई नहीं आया। मैं अकेला ही था। मैंने अपने नाम के आगे जातिवादी सरनेम हटा लिया। बाद में मित्रों से पूछा कि उस संकल्प का क्या हुआ जो हमने कल लिया था। सबने एक स्वर में कहा 'पागल हो कोई अपनी जाति छोड़ता है'।
मुझे एक हफ्ते में दूसरी बार जेएनयू जैसे प्रगतिशील, आधुनिक समाज में जाति की ताकत का एहसास हुआ। इसके बाद फिर कभी मैंने जाति को कम कर आंकने की गुस्ताखी नहीं की। ये वो वक्त था जब देश की राजनीति में मंदिर के साथ-साथ मंडलवादी राजनीति अपने पूरे उफान पर थी। लालू यादव, मुलायम सिंह यादव, शरद यादव, नीतीश कुमार, रामविलास पासवान अचानक देश की राजनीति पर धूमकेतु की तरह उभर आये। हालांकि मंडल कमीशन वी पी सिंह ने लागू किया था, देवीलाल को नीचा दिखाने के लिये। लोगों ने ये सोचा कि वी पी सिंह अब पिछड़ी जाति के नये मसीहा बन कर उभरेंगे और पहले से ज्यादा ताकतवर हो जायेंगे।
लेकिन ऐसा हुआ नहीं। जाति अगर सच्चाई है तो पिछड़ों और दलितों की नुमाइंदगी वी पी सिंह नहीं लालू, मुलायम और पासवान ही करेंगे, ऐसा मेरा सोचना था। और हुआ भी यही जिस शख्स की वजह से पिछड़ों को आरक्षण मिला था उसे इतिहास के कूड़ेदान में फेंक दिया गया और लालू, मुलायम और पासवान नये जननायक बन गये। लालू को सबसे ज्यादा फायदा हुआ। क्योंकि जातिवाद का सबसे अधिक भावनात्मक दोहन उन्होंने किया। लालू ने खुलेआम भूरे बाल यानी ऊंची जातियों को साफ करने का ऐलान किया था। इस जातिवादी राजनीति की लगाम थाम उनकी पार्टी पंद्रह साल तक बिहार में गद्दी पर काबिज रही। उनको हटाया भी तो एक पिछड़ी जाति के नेता नीतीश कुमार ने ही। जगन्नाथ मिश्रा जैसे तपे तपाये ब्राह्मण नेता की जमीन ऐसी गोल हुई कि आज भी कोई ऊंची जाति का नेता मुख्यमंत्री बनने के बारे में नहीं सोच सकता।
पड़ोस के उत्तर प्रदेश में भी सत्ता मुलायम, कल्याण और मायावती के बीच ही डोलती रही। हालांकि कुछ समय के लिये समझौते के तौर पर राम प्रकाश गुप्ता जरूर मुख्यमंत्री बने थे लेकिन वो भी बीजेपी की वजह से अपने कारण से नहीं। आज मंडल के बीस साल बाद, देश की राजनीति पूरी तरह से बदल जाने के बाद भी लालू, मुलायम, मायावती को नकार के कम से कम यूपी बिहार में काम नहीं चल सकता है और न ही उनकी सहमति के बगैर केंद्र में सरकार रह सकती है। ऐसे में सवाल ये उठता है कि जाति के आधार पर होने वाली जनगणना का विरोध क्यों किया जा रहा है? क्यों हम ये दुहाई दे रहे हैं कि इस के बाद देश में जातिवाद और बढ़ेगा? कहीं इसके पीछे भी तो वही ऊंची जाति की सोच काम नहीं कर रही?
हम लालू, मुलायम, मायावती को गाली जरूर देते हैं लेकिन आज भी हम भारतीय बाद में हैं और तिवारी, कुर्मी, बनिया और जाटव पहले हैं। चुनाव में टिकट देना हो या फिर चुनावी रणनीति बनाना हो एक-एक क्षेत्र के मुहल्ले और टोले की जातियों का पोस्टमार्टम किया जाता है। उनकी संख्या का आकलन होता है, फिर चुनाव जीतने की बात की जाती है। इस देश में चुनाव सबसे बड़ा "जातिवादी आयोजन" या मेला है। जाति आधारित जनगणना का विरोध करने के पहले हमें चुनाव पर बैन लगाने की मांग करनी चाहिये? क्या हममें इतना नैतिक साहस है?
चुनाव और नेताओं को क्यों दोष देते हैं? जेएनयू का अनुभव न भी होता तो भी मुझे ये कहने में जरा भी संकोच नहीं होता कि हम भारतीय दुनिया के सबसे बड़े हिप्पोक्रेट हैं। वामपंथी हो या फिर समाजवादी, पिछड़ावादी हो या फिर अगड़वादी, कांग्रेसी हो या फिर बीजेपी वाला, वैज्ञानिक हो या फिर साहित्यकार, इंजीनियर हो या फिर डॉक्टर सभी अपने बेटे-बेटियों की शादी के समय अपनी जाति में वर या वधू की तलाश करते हैं। अगर रिश्तेदारों में नहीं मिलता तो अखबार में बेशर्मी से विज्ञापन देकर अपनी और अपने बेटे-बेटियों की जाति की गोत्र समेत नुमाइश करते हैं और लेकिन जब कहने को आता है तो चौड़े हो कर कहते हैं "आई एम नाट कास्टिस्ट" ।
मैं आज भी ऐसे पढ़े-लिखे परिवारों को जानता हूं जिनके बेटे-बेटियों ने अगर अपनी जाति से अलग निचली जाति में शादी की तो उनके परिवार से संबंध तोड़ लिये गये। तो फिर जाति आधारित जनगणना का विरोध करने के पहले ऐसे समाज पर बैन लगाने की बात हम क्यों नही करते? जातियों में ही शादी करने वालों का क्यों बहिष्कार नहीं करते? अगर नहीं कर सकते तो हमें इस जनगणना का विरोध करने का अधिकार नहीं है? और न सिर्फ लालू, मुलायम, मायावती और पासवान को जातिवादी कहने का हक है। क्योंकि ये इसी जातिवाद का परिणाम है कि कोडरमा की निरुपमा को मौत को गले लगाना पड़ता है। जो ऑनर किलिंग करते हैं वही जातिवादी नहीं हैं। जातिवाद हमारे खून में हैं और इसलिये आओ हम खुल कर बिना संकोच कहें जातिवाद जिंदाबाद।
(from IBN7 blog)

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