सच हम नहीं, सच तुम नहीं, सच है महज संघर्ष ही!

गुरुवार, मई 20, 2010

मेरी जात है, सिर्फ हिंदुस्तानी !

- डॉ. वेदप्रताप वैदिक

अगर हम दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों को आरक्षण देत रहना चाहते हैं तो जन-गणना में जाति का हिसाब तो रखना ही होगा उसके बिना सही आरक्षण की व्यवस्था कैसे बनेगी ? हॉं, यह हो सकता है कि जिन्हें आरक्षण नहीं देना है, उन सवर्णों से उनकी जात न पूछी जाए लेकिन इस देश में मेरे जैसे भी कई लोग हैं, जो कहते हैं कि मेरी जात सिर्फ हिंदुस्तानी है और जो जन्म के आधार पर दिए जानेवाले हर आरक्षण के घोर विरोधी है उनकी मान्यता है कि जन्म याने जाति के आधार पर दिया जानेवाला आरक्षण न केवल राष्ट्र-विरोधी है बल्कि जिन्हें वह दिया जाता है, उन व्यक्तियों और जातियों के लिए भी विनाशकारी है इसीलिए जन-गणना में से जाति को बिल्कुल उड़ा दिया जाना चाहिए
जन-गणना में जाति का समावेश किसने किया, कब से किया, क्यों किया, क्या यह हमें पता है ? यह अंग्रेज ने किया, 1871 में किया और इसलिए किया कि हिंदुस्तान को लगातार तोड़े रखा जा सके 1857 की क्रांति ने भारत में जो राष्ट्रवादी एकता पैदा की थी, उसकी काट का यह सर्वश्रेष्ठ उपाय था कि भारत के लोगों को जातियों, मजहबों और भाषाओं में बांट दो मज़हबों और भाषाओं की बात कभी और करेंगे, फिलहाल जाति की बात लें अंग्रेज के आने के पहले भारत में जाति का कितना महत्व था ? क्या जाति का निर्णय जन्म से होता था ? यदि ऐसा होता तो दो सौ साल पहले तक के नामों में कोई जातिसूचक उपनाम या 'सरनेम' क्यों नहीं मिलते ? राम, कृष्ण, शिव, विष्णु, महेश, बुद्घ, महावीर किसी के भी नाम के बाद शर्मा, वर्मा, सिंह या गुप्ता क्यों नहीं लगता ? कालिदास, कौटिल्य, बाणभट्रट, भवभूति और सूर, तुलसी, केशव, कबीर, बिहारी, भूषण आदि सिर्फ अपना नाम क्यों लिखते रहे ? इनके जातिगत उपनामों का क्या हुआ ? वर्णाश्रम धर्म का भ्रष्ट होना कुछ सदियों पहले शुरू जरूर हो गया था लेकिन उसमें जातियों की सामूहिक राजनीतिक चेतना का ज़हर अंग्रेजों ने ही घोला अंग्रेजों के इस ज़हर को हम अब भी क्यों पीते रहना चाहते हैं ? मज़हब के ज़हर ने 1947 में देश तोड़ा, भाषाओं का जहर 1964-65 में कंठ तक आ पहुंचा था और अब जातियों का ज़हर 21 वीं सदी के भारत को नष्ट करके रहेगा जन-गणना में जाति की गिनती इस दिशा में बढ़नेवाला पहला कदम है
1931 में आखिर अंग्रेज 'सेंसस कमिश्नर' जे.एच. हट्टन ने जनगणना में जाति को घसीटने का विरोध क्यों किया था ? वे कोरे अफसर नहीं थे वे प्रसिद्घ नृतत्वशास्त्री भी थे उन्होंने बताया कि हर प्रांत में हजारों-लाखों लोग अपनी फर्जी जातियॉं लिखवा देते हैं ताकि उनकी जातीय हैसियत ऊँची हो जाए हर जाति में दर्जनों से लेकर सैकड़ों उप-जातियॉं हैं और उनमें ऊँच-नीच का झमेला है 58 प्रतिशत जातियॉ तो ऐसी हैं, जिनमें 1000 से ज्यादा लोग ही नहीं हैं उन्हें ब्राह्रमण कहें कि शूद्र, अगड़ा कहें कि पिछड़ा, स्पृश्य कहें कि अस्पृश्य - कुछ पता नहीं आज यह स्थिति पहले से भी बदतर हो गई है, क्योंकि अब जाति के नाम पर नौकरियॉं, संसदीय सीटें, मंत्री और मुख्यमंत्री पद, नेतागीरी और सामाजिक वर्चस्व आदि आसानी से हथियाएं जा सकते हैं लालच बुरी बलाय ! लोग लालच में फंसकर अपनी जात बदलने में भी संकोच नहीं करते सिर्फ गूजर ही नहीं हैं, जो 'अति पिछड़े' से 'अनुसूचित' बनने के लिए लार टपका रहे हैं, उनके पहले 1921 और 1931 की जन-गणना में अनेक राजपूतों ने खुद को ब्राह्रमण, वैश्यों ने राजपूत और कुछ शूद्रों ने अपने आप को वैश्य और ब्राह्रमण लिखवा दिया कोई आश्चर्य नहीं कि जब आरक्षणवाले आज़ाद भारत में कुछ ब्राह्रमण अपने आप को दलित लिखवाना पसंद करें बिल्कुल वैसे ही जैसे कि जिन दलितों ने अपने आप को बौद्घ लिखवाया था, आरक्षण से वंचित हो जाने के डर से उन्होंने अपने आप को दुबारा दलित लिखवा दिया यह बीमारी अब मुसलमानों और ईसाइयों में भी फैल सकती है आरक्षण के लालच में फंसकर वे इस्लाम और ईसाइयत के सिद्घांतों की धज्जियां उड़ाने पर उतारू हो सकते हैं जाति की शराब राष्ट्र और मज़हब से भी ज्यादा नशीली सिद्घ हो सकती है
आश्चर्य है कि जिस कांग्रेस के विरोध के कारण 1931 के बाद अंग्रेजों ने जन-गणना से जाति को हटा दिया था और जिस सिद्घांत पर आज़ाद भारत में अभी तक अमल हो रहा था, उसी सिद्घांत को कांग्रेस ने सिर के बल खड़ा कर दिया है कांग्रेस जैसी महान पार्टी का कैसा दुर्भाग्य है कि आज उसके पास न तो इतना सक्षम नेतृत्व है और न ही इतनी शक्ति कि वह इस राष्ट्रभंजक मांग को रद्द कर दे उसे अपनी सरकार चलाने के लिए तरह-तरह के समझौते करने पड़ते हैं भाजपा ने अपने बौद्घिक दिवालिएपन के ऐसे अकाट्रय प्रमाण पिछले दिनों पेश किए हैं कि जाति के सवाल पर वह कोई राष्ट्रवादी स्वर कैसे उठाएगी आश्चर्य तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मौन पर है, जो हिंदुत्व की ध्वजा उठाए हुए है लेकिन हिंदुत्व को ध्वस्त करनेवाले जातिवाद के विरूद्घ वह खड़गहस्त होने को तैयार नहीं है सबसे बड़ी विडंबना हमारे तथाकथित समाजवादियों की है कार्ल मार्क्स कहा करते थे कि मेरा गुरू हीगल सिर के बल खड़ा था मैंने उसे पाव के बल खड़ा कर दिया है लेकिन जातिवाद का सहारा लेकर लोहिया के चेलों ने लोहियाजी को सिर के बल खड़ा कर दिया है लोहियाजी कहते थे, जात तोड़ो उनके चेले कहते हैं, जात जोड़ो नहीं जोड़ेंगे तो कुर्सी कैसे जुड़ेगी ? लोहिया ने पिछड़ों को आगे बढ़ाने की बात इसीलिए कही थी कि समता लाओ और समता से जात तोड़ो रोटी-बेटी के संबंध खोलो जन-गणना में जात गिनाने से जात टूटेगी या मजबूत होगी ? जो अभी अपनी जात गिनाएंगे, वे फिर अपनी जात दिखाएंगे कुर्सियों की नई बंदर-बांट का महाभारत शुरू हो जाएगा जातीय ईष्या का समुद्र फट पड़ेगा
दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों, ग्रामीणों, गरीबों को आगे बढ़ाने का अब एक ही तरीका है सिर्फ शिक्षा में आरक्षण हो, पहली से 10 वीं कक्षा तक आरक्षण का आधार सिर्फ आर्थिक हो जन्म नहीं, कर्म ! आरक्षण याने सिर्फ शिक्षा ही नहीं, भोजन, वस्त्र्, आवास और चिकित्सा भी मुफ्त हो इस व्यवस्था में जिसको जरूरत है, वह छूटेगा नहीं और जिसको जरूरत नहीं है, वह घुस नहीं पाएगा, उसकी जात चाहे जो हो जात घटेगी तो देश बढ़ेगा जन-गणना से जाति को हटाना काफी नहीं है, जातिसूचक नामों और उपनामों को हटाना भी जरूरी है जातिसूचक नाम लिखनेवालों को सरकारी नौकरियों से वंचित किया जाना चाहिए यदि मजबूर सरकार के गणक लोगों से उनकी जाति पूछें तो वे या तो मौन रहें या लिखवाऍं - मैं हिंदुस्तानी हूं हिंदुस्तानी के अलावा मेरी कोई जात नहीं है
Dainik bhaskar (11th may)

5 टिप्‍पणियां:

  1. अगर जाति हट जाए तो इस देश की आधी से अधिक समस्याओं का हल हो जाए. ये गुटबाजी बंद हो जाते , जातिगत राजनीति ख़त्म हो जाए और सबसे बड़ा कि ये आरक्षण की दिशा ही बदल जायेगी. ये उसको मिले जो पिछड़े हों और वास्तव में हों न की रिश्वत लेकर नौकरी या पद के लालच में बने हुए पिछड़े. अब सिर्फ वही आरक्षण का हक़दार होना चाहिए जो कि आर्थिक रूप से पिछड़ा हो. जो दलित आगे बढ़ गए उनकी पीढियां आगे पढ़ चुकी हैं और वे गाँव से सम्बंधित नहीं रहे लेकिन जिन्हें इसकालाभ जिस वजह से भी नहीं मिल पाया उनके हक़ पर तो डाका न डालें. अब जन्म नहीं बल्कि उनकी स्थिति ही आरक्षण का आधार हो. अब जाति और नहीं. जनगणना से इसकी पहल हो सकती है. लेकिन ये राजनीतिक दलों का क्या होगा? इन समाज बांटने वाले जाति के ठेकेदारों का क्या होगा? जो रोज नए नए संगठन बनाकर - ब्राह्मण समाज, कायस्थ समाज, क्षत्री समाज, अग्रसेन समाज, और भी तमाम समाज हैं. इनका होना ख़राब नहीं है सिर्फ इनका उद्देश्य जनोत्थान ही होना चाहिए चाहे वे किसी भी तरीके से करें. इसका प्रयोग देश , समाज और मानव को बांटने में नहीं होना चाहिए.

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  2. जाति के आधार पर जनगणना नेताओं के लिए बहुत जरुरी है. इसका फ़ायदा केवल उन्हें ही है. जातिगत आधार पर विधानसभा और लोकसभा में उम्मीदवार खड़ा करने में मदद मिलती है. आरक्षण के लिए आन्दोलन करने में मदद मिलती है. भिन्न भिन्न जाति के लोगों में नफ़रत फ़ैलाने में मदद मिलती है. एक आम भारतवासी बहुत भोला होता है और वो आसानी से इन नेताओं की बात में आ जाता है और उनकी एक आवाज पर एक दूसरे को मरने मारने पर उतारू हो जाता है ; अपनी जाति के उम्मीदवार को मत देने को तैयार हो जाता है. उस वक्त वो ये नहीं देखता कि वो उम्मीदवार उस सदस्यता के लायक है या नहीं. एक आम आदमी को जाति के आधार पर आरक्षण से कोई फायदा नहीं होता. लाखों पद खाली पड़े रहते हैं. कई बार अक्षम कर्मचारी उच्च पद पर आसीन हो जाते हैं. इन नेताओं की रोजी-रोटी केवल जातिगत राजनिति पर ही चलती है. जिस तरह से अंग्रेजों ने हम लोगों को कभी एक नहीं होने दिया; उसी तरह आज ये नेता हमें कभी एक नहीं होने देना चाहते हैं. अब जाति के अलावा क्षेत्रीयता के आधार पर भी हमें बांटा जा रहा है. पता नहीं इन नेताओं को कब सदबुधि आयेगी और कब एक आम भारतीय को उसके वास्तविक अधिकार मिलेंगे?

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  3. jo log margin par hain unhe hi positive discrimination ke tahat reservation mile...Rekha ji ne sahi kaha ki stithi ke adhar par resevation uchit hai...baaki jaat ke basis par reservation lootmari bhar hai.

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  4. क्या लाजवाब लेख...वेड प्रताप जी के विचार से मै सहमत हू..

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  5. देखें १२ मई का -

    http://hindibharat.blogspot.com/2010/05/casteism_12.html

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