सच हम नहीं, सच तुम नहीं, सच है महज संघर्ष ही!

गुरुवार, अक्तूबर 03, 2013

हूंकार रैली की संभावित भीड़ भी प्रायोजित तो नहीं होगी?

बिहार की राजनीतिक चौसर पर रैली-रैला का महत्व कुछ ज्यादा रहा है। दरअसल, पीछले दस वर्षों में बिहार में जितनी भी रैलियां हुई हैं उससे बिहार राष्ट्रीय राजनीतिक पटल पर चर्चा का विषय रहा है। रैली की बात आती है तो राजनीति के शूरमा लालू प्रसाद जोकि अभी सजायाफ्ता हैं के द्वारा प्रायोजित 2003 में तेल पिलावन महारैली गाहे-बगाहे याद आ ही जाती है। इन दिनों रैली की बात सूबे में फिर उठ खड़े होने का कारण बीजेपी के पीएम पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी हैं। वे इसी महीने में हूंकार रैली करने जा रहे हैं। जिसे लेकर राजनीतिक गहमागहमी तेज हो चली है और राजनीतिक चौसर पर अपने-अपने विसात बिछाने के लिए रैली के जवाब में बिहार के कद्दावर नेता हमले बोलने शुरू कर दिये हैं।
रैली की बात अगर सूबे में फिर उठी है तो अतीत में चलना मुनासिब होगा। तब जाकर हम रैली की जमीनी सच्चाई को टटोल पायेंगे।
यह सच है कि बिहार की हर रैली को अपार सफलता मिलती रही है। बहुतेरे दलों ने अपने राजनीतिक औकात मापने के निमित्त किसी न किसी बहाने रैली कराती रही हैं। और सभी रैलियों ने भीड़ बटोरने में कोई कसर नहीं छोड़ी। पीछले दस वर्षों की कुछ बड़ी रैलियों पर गौर किया जाये तो लोक जनशक्ति पार्टी की संकल्प रैली भीड़ बटोरने में कामयाब रही थी। राजद की तेल पिलावन-लाठी भजावन महारैली और चेतावनी रैली में भी अप्रत्याशित भीड़ देखने को मिली थी। वही राकांपा की किसान रैली, बहुजन समाज पार्टी की सवर्ण रैली ने भी सफलता का परचम लहराने में कोई कसर नहीं छोड़ा। अगर हम रैली में जुटी भीड़ को हीं लोकप्रियता का पैमाना मानने लगें तो इस लिहाज से हर दल का नेता सत्ता के खांचे में फिट बैठता है। जैसा कि हर राजनेता अपनी रैली के बाद मीडिया द्वारा सवासेर के रूप में निरूपित कर दिये जाते हैं। रामविलास पासवान की छउ नृत्य और अजायबघर की तरह जानवरों का तमाशा से आगंतुकों को मनोरंजित करने वाली संकल्प रैली के बाद यह बात महिमामंडित की गई थी कि लोजपा तीसरी ताकत के रूप में उभर रही है। जिसके बाद रामविलास पासवान का दिल कुलांचे मारने लगा और उन्होंने लगे हाथों यह घोषणा कर दी थी कि लोजपा 2009 के आम चुनाव और विधानसभा चुनाव में किसी दल के साथ नहीं जाएगा। उन्होंने इस बात को दिल्ली जाकर भी उच्चारा था कि अब वे किसी के साथ नहीं बल्कि अब उनके साथ अन्य दल आएंगे। लालू प्रसाद भी नीतीश सरकार के खिलाफ अपने चेतावनी रैली के में अप्रत्याशित भीड़ देख अह्लादित दिखें। क्योंकि, उन्हें रैली के बाद सर्वजन के लोकप्रिय नेता के रूप में निरूपित किया गया। उनकी किन्नर नाच व नर्तकियों के नाच से जनता को खुश करने वाली चेतावनी रैली में तकरीबन हर जाति के लोग देखने को मिले थे। जिससे उन्हें अपने नब्बे के दशक वाला रूतबा याद आ गया। किसान रैली के बाद उपेन्द्र कुशवाहा के राजनीतिक औकात में वृद्धि की बात कही गई थी तो बसपा की बिक्रमगंज में सवर्ण रैली, औरंगाबाद में बहुजन समाज पार्टी रैली और भभुआ में सवर्ण रैली में जुटे भीड़ को देखकर बसपा के बेहतर भविष्य की संभावना जताई गई थी। वही नीतीश कुमार की अधिकार रैली ने भी अप्रत्याशित भीड़ इकठ्ठी की. रैलियों में जुटे भीड़ को देखने के बाद ऐसी प्रतिक्रियाएं आने और संभावनाएं जताये जाने स्वभाविक हैं।
परंतु, अगर इस भीड़ वाली लोकप्रियता की चकाचौंध से इतर जमीनी सच्चाई पर गौर करें तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि रैली में जुटी भीड़ को लोकप्रियता का मानदंड मानना कितना सही है और कितना गलत। 

बिहार के बहुतेरे आबादी बेरोजगार और अनपढ़ है। अगर रैली में उन्हें आन-जाने की सहुलियत मिलती है, मुफ्त में खाने-रहने उनका इंतजाम किया जाता है और लौंडा नाच की व्यवस्था रहती है तो कौन नहीं चाहेगा कि वह मुफ्त की यमायम दावत उड़ाये। सूबे की यह जमीनी सचाई है कि एक ही व्यक्ति पैसे के लालच में एक हाथ में एक दल का और दूसरे हाथ में दूसरे दल को झंडा लिए घूमता है। यह प्रलोभन की पराकाष्ठा का नतीजा है। उल्लेखनीय बात यह भी है कि रैली में ज्यादातर लोग ग्रामीण इलाकों से ही पहुंचते हैं। सूबे के ग्रामीण क्षेत्रों में यह देखने को मिलता है कि अगर पास के शहर या गांव में किसी आर्केस्टा (नाच-गाने) का इंतजाम होता है, तो चाहे युवा हो वृद्ध सारा काम छोड़ वे साइकिल या बैलगाड़ी से हीं उस गांव या शहर की दूरी तय कर देते हैं। कड़कड़ाती ठंड या चिलचिलाती गर्मी में भी। फिर रैली में तो आने-जाने की सुविधा के साथ रहने-खाने का भी बंदोबस्त रहता है। सो, रैली में जुटे भीड़ को लोकप्रियता का पैमाना मानना कितना सही है यह सवाल लाख टके का है। जनता इतनी नासमझ नहीं है कि वह अपने नेताओं के कर्मों को इतने हल्के में भुला दे। रैली के बाद लोजपा, राजद, राकांपा और बसपा का हश्र सर्वविदित है। फिलहाल बारी है बीजेपी प्रायोजित हूंकार रैली की...इस रैली को लेकर गांवों में तो अभी से हीं लोगों ने दिन कांटने शुरू कर दिये हैं.....आने वाली रैली में मौज करने के लिए!
--------------------
- सौरभ के.स्वतंत्र 



Bookmark and Share

सोमवार, सितंबर 30, 2013

ससुराल से लेकर जेल तक का सफ़र!

लालू प्रसाद और राष्ट्रीय जनता दल का भविष्य
-----------------------------
- सौरभ के.स्वतंत्र
-----------------------------
बिहार में राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद जब सत्ता में थें तब ससुरालसमीकरण की तूती बोलती थी। साधू, सुभाष, राबड़ी और लालू के इर्द-गिर्द हीं सत्ता की धुरी घूमा करती थी। ठेठ राजनीति करने वाले लालू प्रसाद उस दौर में एक नयी परम्परा गढ़ रहे थें। श्री बाबू और अनुग्रह बाबू की शाश्वत राजनीतिक शैली, जिसके लिए बिहार गौरवान्वित महसूस करता था, लालू प्रसाद की सुप्रीमोवादी शैली में तब्दील हो रही थी। जेपी के सिद्धांतों को किनारा लगाया जा रहा था. परिवारवाद ने राजनीति में सर चढ़ना शुरू कर दिया था।
                                                पार्टी अध्यक्ष मतलब सुप्रीमो! सर ने जो कहा, वह आदेश। पत्थर की लकीर मानकर उस पर कार्यकर्ताओं को चलना ही था। भले हीं पार्टी या उसके कार्यकत्ता दोजख में चले जायें। परिवारवाद की राजनीति कुछ थी ही ऐसी। पन्द्रह सालों तक राजद ने सुप्रीमोवादी शैली में बिहार पर राज तो किया पर, नतीजा क्या हुआ? जाहिर है। पार्टी ने अपने ही कार्यकताओं का विश्वास खो दिया। परिवारवाद और जी हजूरी से पार्टी के नेताओं में घोर असंतोष उपटता चला गया। जिसका खामियाजा आज पूरे राष्ट्रीय जनता दल को उठाना पड़ रहा है। वही रही-सही कसर सुप्रीमो लालू प्रसाद के चारा घोटाले में दोषी करार दिए जाने ने पूरी कर दी. आलम यह है कि सुनहरे भविष्य की कोरी कल्पना करने वाले आज कई पार्टी सदस्य, पार्टी से अलग होकर दो जून की रोटी के जुगाड़ में जैसे-तैसे लगे हुए हैं। यह दीगर बात है कि आज राजद पूरे सूबे में सदस्यता अभियान चलाने का नाकाम प्रयास कर रही है।
                                दरअसल, राबड़ी दौर से ही राष्ट्रीय जनता दल में नेतृत्व को लेकर अंदरखाने से असहमति महसूस की जाती रही है। यह भी सच है कि राजद में लालू प्रसाद के कई ऐसे कद्दावर नेता वफादार रहे हैं जिन्होंने सूबे की कई दलों के जड़ में मठ्ठा डालकर राजद की साख को मजबूत किया है। पर, जबसे परिवारवादी और सुप्रीमोवादी सियासत में लालू प्रसाद मुब्तला हुए हैं तब से ये वरिष्ठ नेता पार्टी में रहकर भी पार्टी के पूरी तरह से नहीं हुए। नतीजन, शिवानंद तिवारी, श्याम रजक जैसे दिग्गजों, जो पार्टी या सरकार में बड़े पद को सुशोभित करते रहें, को भी राजद से जद(यू) की तरफ अपने बेहतर भविष्य के लिए पार्टी को मझधार में छोड़ कर  जाना पड़ा।
                                                ‘माय’ (मुसलमान-यादव) और कालांतर में यानी में मायका’ (मुसलमान-यादव-कायस्थ) ने बल देकर राजद को सरकार बनाने का मौका दिया पर घोर परिवारवाद ने इन समीकरणों के भ्रम को तोड़ा भी। राजद ने तो उस समय भी सरकार बखूबी चलाया जब सुप्रीमो लालू प्रसाद जेल में थें. आज फिर लालू प्रसाद जेल में हैं. अगर इस वक्त राजद अपने नेतृत्व से परिवारवाद दूर करेगा तो ही बिहार में लालटेन का संगठन फिर दुरुस्त हो सकता है। दरअसल, लालू प्रसाद की नब्बे के दशक वाली सियासत की जो शैली थी वह अभी भी उनमें है। भले हीं फलाना-फलाना वाद ने उनके उस ग्रास रूट लेवल की राजनीतिक शैली से आम लोगों का मोह भंग कर दिया हो। नहीं तो उनकी बेबाकी और सदाबहार खांटी राजनीति के आगे बड़े-बड़े शूरमा भी परास्त हो चुके हैं।
        फिलहाल, विडम्बना यह कि लालू-राबड़ी आज भी राजद को अपनी पारिवारिक सम्पत्ति मानते नजर आते हैं। मसलन, राबड़ी देवी को विधान परिषद् भेजने की कवायद और बेटे तेजस्वी को पार्टी नेतृत्व में शामिल करने की बात राजद के दिग्गजों में अपच की स्थिति पैदा कर रही है। खुद पार्टी के सबसे वरिष्ठ  नेता रघुवंश बाबू नेतृत्व के कतिपय फैसलों को लेकर असहमति जाता चुके हैं। और अब जब लालू प्रसाद जेल में हैं तो यह असहमति और मुखर होगी.
                                राजद के शीर्षस्थ नेताओं ने यह जहीर किया है कि राष्ट्रीय जनता दल बिहार में एक मात्र ऐसी पार्टी है जो चाहे तो सरकार का पूरजोर खिलाफत कर सकती है. पर आलाकमान उस भूमिका का निर्वहन येन-केन-प्रकारेण ही कर रही है। नीतीश सरकार के लीकेज को घेरने में जो उर्जा लगनी चाहिए उसमें नेतृत्व विफल हो रहा है। कई ऐसे मामले हैं जिन्हें भुना कर फिर से पार्टी का जनाधार बढ़ाया जा सकता था.
                                                                गौरतलब है कि जदयू और बीजेपी के तलाक के बाद कुछ पुराने समीकरण धराशायी हुए हैं इसमें कोई दो राय नहीं है। सो, राजद को अपने जनाधार बढ़ाने की कवायद तेज कर देनी चाहिए। लेकिन, उससे पहले नेतृत्व को लेकर कोई बड़ा फैसला सुप्रीमो लालू प्रसाद को जेल से ही लेना ही होगा। पार्टी में कई ऐसे कद्दावर नेता हैं जिन्हें अगर नेतृत्व दे दिया जाए तो राजद एक बार फिर लय में आ जाएगी। डा. रघुवंश प्रताप, रामकृपाल यादव, ए.ए. फातमी का नाम ऐसे वरिष्ठ नेताओं में शुमार है।
                                                                 
Bookmark and Share

शुक्रवार, सितंबर 27, 2013

एक रहस्यमयी मंदिर!


बिहार के बगहा पुलिस जिला स्थित पकीबावली मंदिर का रहस्य आज भी अनसुलझा है। 200 वर्ष पूर्व नेपाल नरेश जंग बहादुर द्वारा भेंट किया गया जिंदा सालीग्राम, जिसे चुनौटी (खईनी का डब्बा) में रखकर भारत लाया गया था, आज लगभग नारियल से दो गुना आकार का हो गया है और निरंतर इस जिंदा सालीग्राम का विकास जारी है। यह मंदिर बावली (तालाब) के पूर्वी तट पर स्थित है। बकौल मंदिर पुजारी इस मंदिर के जिर्णोद्धार के निमित्त बिड़ला समूह ने अपनी देख-रेख में लेने की पहल की थी। परंतु, स्थानीय हलवाई समुदाय ने इस रहस्यमय मंदिर को बिड़ला समूह को नहीं दिया। जानकारी के लिए बता दें कि यह सिद्ध पीठ मंदिर हलवाई समुदाय के संरक्षण में है। हलवाई समुदाय को डर था कि बिड़ला समूह को मंदिर देने पर मंदिर के निर्माणकत्र्ता रामजीयावन साह का नाम समाप्त हो जाएगा। जिसका फलसफा यह हुआ कि आज मंदिर की मेहराबों व दीवारों में दरारें पड़ गईं हैं। वहीं बावली के तट पर स्थित कई मंदिरें ढ़ह चुकी हैं।
मंदिर की ऐसी दुर्दशा होने के बावजूद यहां भूले-भटके श्रद्धालु तिलेश्वर महाराज के दर्शन करने चले आते हैं। हाल ही में सहज योग संस्था की ओर से दिल्ली, नोएडा तथा अमेरिका से तकरीबन पचास श्रद्धालु रहस्यमयी जिंदा सालीग्राम के दर्शन हेतु आये थें। भक्तों ने वहां जमकर भजन-कीर्तन भी किया था। स्थानीय लोगों ने भी आगन्तुकों का यथाशक्ति स्वागत किया।
मंदिर ट्रस्ट(जो कि अब बंद हो चुका है) द्वारा मुद्रित एक पुस्तक के मुताबिक तकरीबन 200 वर्ष पूर्व तत्कालीन नेपाल नरेश जंग बहादुर अंग्रेज सरकार के आदेश पर किसी जागीरदार को गिरफ्तार करने के लिए निकले थें। तब उन्होंने संयोगवश बगहा पुलिस जिला में ही अपना कैंप लगाया था। उस वक्त रामजीयावन साह खाड़सारी(चिनी) के उत्पादक थंे। रामजीयावन साह नेपाल नरेश की बगहा में ठहरने की सूचना पाकर, एक थाल में शक्कर भेंट करने के लिए कैंप गये। राजा ने खुश होकर उन्हें नेपाल आने का निमंत्रण दिया। रामजीयावन साह के नेपाल जाने पर भव्य स्वागत हुआ और वहां के राजपुरोहित ने उन्हें एक छोटा सा सालीग्राम भेंट किया और अवगत कराया कि यह तिलेश्वर महाराज हैं। रामजीयावन साह ने उस सालीग्राम को चुनौटी में करके बगहा(भारत) लाया तथा अपने पैसों से एक विशालकाय मंदिर प्रांगण की स्थापना की। मंदिर प्रांगण स्थित तालाब(बावली) के पूर्वी तट पर तिलेश्वर महाराज की स्थापना हुई, जहां आज भी वे अपनी अद्भुत छटा बिखेरते हैं।
बावली 

गौरतलब है कि पकीबावली मंदिर प्रांगण में स्थित तालाब के चारों ओर अनेक मंदिर हैं। कुछ मंदिर उपेक्षा के कारण ढ़ह चुकी हैं तो कुछ अभी भी मुत्र्त रूप में खड़ी रामजीयावन साह के सद्कर्मों को अतीत की कुहेलीकाओं से निकालकर वर्तमान में श्रद्धालुओं से बयां कर रही हैं। स्थानीय लोगों का मानना हैे कि बावली जबसे बना है अभी तक नहीं सुखा है। लोगों का यह भी मानना है कि यह किंवदंती है कि इस बावली में सात कुंआ है। वहीं बावली के पश्चिमी तट पर ग्यारह रूद्र दुधेेश्वर नाथ मंदिर तथा उत्तरी तट पर गणेश मंदिर है। इस सिद्ध पीठ स्थान के चारों ओर पार्क भी है। परंतु स्थानीय लोगों के कूपमंडूक दृष्टिकोण से यह सिद्धपीठ स्थान रहस्यमयी और अद्भुत होने के बावजूद स्थानीय रहस्य बनकर ही रह गया है।
-----------------------------------------------
- सौरभ के.स्वतंत्र

 Bookmark and Share