बिहार की राजनीतिक चौसर पर रैली-रैला का महत्व कुछ ज्यादा रहा है। दरअसल, पीछले दस वर्षों में बिहार में जितनी भी रैलियां हुई हैं उससे बिहार राष्ट्रीय राजनीतिक पटल पर चर्चा का विषय रहा है। रैली की बात आती है तो राजनीति के शूरमा लालू प्रसाद जोकि अभी सजायाफ्ता हैं के द्वारा प्रायोजित 2003 में तेल पिलावन महारैली गाहे-बगाहे याद आ ही जाती है। इन दिनों रैली की बात सूबे में फिर उठ खड़े होने का कारण बीजेपी के पीएम पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी हैं। वे इसी महीने में हूंकार रैली करने जा रहे हैं। जिसे लेकर राजनीतिक गहमागहमी तेज हो चली है और राजनीतिक चौसर पर अपने-अपने विसात बिछाने के लिए रैली के जवाब में बिहार के कद्दावर नेता हमले बोलने शुरू कर दिये हैं।
रैली की बात अगर सूबे में फिर उठी है तो अतीत में चलना मुनासिब होगा। तब जाकर हम रैली की जमीनी सच्चाई को टटोल पायेंगे।
यह सच है कि बिहार की हर रैली को अपार सफलता मिलती रही है। बहुतेरे दलों ने अपने राजनीतिक औकात मापने के निमित्त किसी न किसी बहाने रैली कराती रही हैं। और सभी रैलियों ने भीड़ बटोरने में कोई कसर नहीं छोड़ी। पीछले दस वर्षों की कुछ बड़ी रैलियों पर गौर किया जाये तो लोक जनशक्ति पार्टी की संकल्प रैली भीड़ बटोरने में कामयाब रही थी। राजद की तेल पिलावन-लाठी भजावन महारैली और चेतावनी रैली में भी अप्रत्याशित भीड़ देखने को मिली थी। वही राकांपा की किसान रैली, बहुजन समाज पार्टी की सवर्ण रैली ने भी सफलता का परचम लहराने में कोई कसर नहीं छोड़ा। अगर हम रैली में जुटी भीड़ को हीं लोकप्रियता का पैमाना मानने लगें तो इस लिहाज से हर दल का नेता सत्ता के खांचे में फिट बैठता है। जैसा कि हर राजनेता अपनी रैली के बाद मीडिया द्वारा सवासेर के रूप में निरूपित कर दिये जाते हैं। रामविलास पासवान की छउ नृत्य और अजायबघर की तरह जानवरों का तमाशा से आगंतुकों को मनोरंजित करने वाली संकल्प रैली के बाद यह बात महिमामंडित की गई थी कि लोजपा तीसरी ताकत के रूप में उभर रही है। जिसके बाद रामविलास पासवान का दिल कुलांचे मारने लगा और उन्होंने लगे हाथों यह घोषणा कर दी थी कि लोजपा 2009 के आम चुनाव और विधानसभा चुनाव में किसी दल के साथ नहीं जाएगा। उन्होंने इस बात को दिल्ली जाकर भी उच्चारा था कि अब वे किसी के साथ नहीं बल्कि अब उनके साथ अन्य दल आएंगे। लालू प्रसाद भी नीतीश सरकार के खिलाफ अपने चेतावनी रैली के में अप्रत्याशित भीड़ देख अह्लादित दिखें। क्योंकि, उन्हें रैली के बाद सर्वजन के लोकप्रिय नेता के रूप में निरूपित किया गया। उनकी किन्नर नाच व नर्तकियों के नाच से जनता को खुश करने वाली चेतावनी रैली में तकरीबन हर जाति के लोग देखने को मिले थे। जिससे उन्हें अपने नब्बे के दशक वाला रूतबा याद आ गया। किसान रैली के बाद उपेन्द्र कुशवाहा के राजनीतिक औकात में वृद्धि की बात कही गई थी तो बसपा की बिक्रमगंज में सवर्ण रैली, औरंगाबाद में बहुजन समाज पार्टी रैली और भभुआ में सवर्ण रैली में जुटे भीड़ को देखकर बसपा के बेहतर भविष्य की संभावना जताई गई थी। वही नीतीश कुमार की अधिकार रैली ने भी अप्रत्याशित भीड़ इकठ्ठी की. रैलियों में जुटे भीड़ को देखने के बाद ऐसी प्रतिक्रियाएं आने और संभावनाएं जताये जाने स्वभाविक हैं।
परंतु, अगर इस भीड़ वाली लोकप्रियता की चकाचौंध से इतर जमीनी सच्चाई पर गौर करें तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि रैली में जुटी भीड़ को लोकप्रियता का मानदंड मानना कितना सही है और कितना गलत।
बिहार के बहुतेरे आबादी बेरोजगार और अनपढ़ है। अगर रैली में उन्हें आन-जाने की सहुलियत मिलती है, मुफ्त में खाने-रहने उनका इंतजाम किया जाता है और लौंडा नाच की व्यवस्था रहती है तो कौन नहीं चाहेगा कि वह मुफ्त की यमायम दावत उड़ाये। सूबे की यह जमीनी सचाई है कि एक ही व्यक्ति पैसे के लालच में एक हाथ में एक दल का और दूसरे हाथ में दूसरे दल को झंडा लिए घूमता है। यह प्रलोभन की पराकाष्ठा का नतीजा है। उल्लेखनीय बात यह भी है कि रैली में ज्यादातर लोग ग्रामीण इलाकों से ही पहुंचते हैं। सूबे के ग्रामीण क्षेत्रों में यह देखने को मिलता है कि अगर पास के शहर या गांव में किसी आर्केस्टा (नाच-गाने) का इंतजाम होता है, तो चाहे युवा हो वृद्ध सारा काम छोड़ वे साइकिल या बैलगाड़ी से हीं उस गांव या शहर की दूरी तय कर देते हैं। कड़कड़ाती ठंड या चिलचिलाती गर्मी में भी। फिर रैली में तो आने-जाने की सुविधा के साथ रहने-खाने का भी बंदोबस्त रहता है। सो, रैली में जुटे भीड़ को लोकप्रियता का पैमाना मानना कितना सही है यह सवाल लाख टके का है। जनता इतनी नासमझ नहीं है कि वह अपने नेताओं के कर्मों को इतने हल्के में भुला दे। रैली के बाद लोजपा, राजद, राकांपा और बसपा का हश्र सर्वविदित है। फिलहाल बारी है बीजेपी प्रायोजित हूंकार रैली की...इस रैली को लेकर गांवों में तो अभी से हीं लोगों ने दिन कांटने शुरू कर दिये हैं.....आने वाली रैली में मौज करने के लिए!
--------------------
- सौरभ के.स्वतंत्र
रैली की बात अगर सूबे में फिर उठी है तो अतीत में चलना मुनासिब होगा। तब जाकर हम रैली की जमीनी सच्चाई को टटोल पायेंगे।
यह सच है कि बिहार की हर रैली को अपार सफलता मिलती रही है। बहुतेरे दलों ने अपने राजनीतिक औकात मापने के निमित्त किसी न किसी बहाने रैली कराती रही हैं। और सभी रैलियों ने भीड़ बटोरने में कोई कसर नहीं छोड़ी। पीछले दस वर्षों की कुछ बड़ी रैलियों पर गौर किया जाये तो लोक जनशक्ति पार्टी की संकल्प रैली भीड़ बटोरने में कामयाब रही थी। राजद की तेल पिलावन-लाठी भजावन महारैली और चेतावनी रैली में भी अप्रत्याशित भीड़ देखने को मिली थी। वही राकांपा की किसान रैली, बहुजन समाज पार्टी की सवर्ण रैली ने भी सफलता का परचम लहराने में कोई कसर नहीं छोड़ा। अगर हम रैली में जुटी भीड़ को हीं लोकप्रियता का पैमाना मानने लगें तो इस लिहाज से हर दल का नेता सत्ता के खांचे में फिट बैठता है। जैसा कि हर राजनेता अपनी रैली के बाद मीडिया द्वारा सवासेर के रूप में निरूपित कर दिये जाते हैं। रामविलास पासवान की छउ नृत्य और अजायबघर की तरह जानवरों का तमाशा से आगंतुकों को मनोरंजित करने वाली संकल्प रैली के बाद यह बात महिमामंडित की गई थी कि लोजपा तीसरी ताकत के रूप में उभर रही है। जिसके बाद रामविलास पासवान का दिल कुलांचे मारने लगा और उन्होंने लगे हाथों यह घोषणा कर दी थी कि लोजपा 2009 के आम चुनाव और विधानसभा चुनाव में किसी दल के साथ नहीं जाएगा। उन्होंने इस बात को दिल्ली जाकर भी उच्चारा था कि अब वे किसी के साथ नहीं बल्कि अब उनके साथ अन्य दल आएंगे। लालू प्रसाद भी नीतीश सरकार के खिलाफ अपने चेतावनी रैली के में अप्रत्याशित भीड़ देख अह्लादित दिखें। क्योंकि, उन्हें रैली के बाद सर्वजन के लोकप्रिय नेता के रूप में निरूपित किया गया। उनकी किन्नर नाच व नर्तकियों के नाच से जनता को खुश करने वाली चेतावनी रैली में तकरीबन हर जाति के लोग देखने को मिले थे। जिससे उन्हें अपने नब्बे के दशक वाला रूतबा याद आ गया। किसान रैली के बाद उपेन्द्र कुशवाहा के राजनीतिक औकात में वृद्धि की बात कही गई थी तो बसपा की बिक्रमगंज में सवर्ण रैली, औरंगाबाद में बहुजन समाज पार्टी रैली और भभुआ में सवर्ण रैली में जुटे भीड़ को देखकर बसपा के बेहतर भविष्य की संभावना जताई गई थी। वही नीतीश कुमार की अधिकार रैली ने भी अप्रत्याशित भीड़ इकठ्ठी की. रैलियों में जुटे भीड़ को देखने के बाद ऐसी प्रतिक्रियाएं आने और संभावनाएं जताये जाने स्वभाविक हैं।
परंतु, अगर इस भीड़ वाली लोकप्रियता की चकाचौंध से इतर जमीनी सच्चाई पर गौर करें तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि रैली में जुटी भीड़ को लोकप्रियता का मानदंड मानना कितना सही है और कितना गलत।
बिहार के बहुतेरे आबादी बेरोजगार और अनपढ़ है। अगर रैली में उन्हें आन-जाने की सहुलियत मिलती है, मुफ्त में खाने-रहने उनका इंतजाम किया जाता है और लौंडा नाच की व्यवस्था रहती है तो कौन नहीं चाहेगा कि वह मुफ्त की यमायम दावत उड़ाये। सूबे की यह जमीनी सचाई है कि एक ही व्यक्ति पैसे के लालच में एक हाथ में एक दल का और दूसरे हाथ में दूसरे दल को झंडा लिए घूमता है। यह प्रलोभन की पराकाष्ठा का नतीजा है। उल्लेखनीय बात यह भी है कि रैली में ज्यादातर लोग ग्रामीण इलाकों से ही पहुंचते हैं। सूबे के ग्रामीण क्षेत्रों में यह देखने को मिलता है कि अगर पास के शहर या गांव में किसी आर्केस्टा (नाच-गाने) का इंतजाम होता है, तो चाहे युवा हो वृद्ध सारा काम छोड़ वे साइकिल या बैलगाड़ी से हीं उस गांव या शहर की दूरी तय कर देते हैं। कड़कड़ाती ठंड या चिलचिलाती गर्मी में भी। फिर रैली में तो आने-जाने की सुविधा के साथ रहने-खाने का भी बंदोबस्त रहता है। सो, रैली में जुटे भीड़ को लोकप्रियता का पैमाना मानना कितना सही है यह सवाल लाख टके का है। जनता इतनी नासमझ नहीं है कि वह अपने नेताओं के कर्मों को इतने हल्के में भुला दे। रैली के बाद लोजपा, राजद, राकांपा और बसपा का हश्र सर्वविदित है। फिलहाल बारी है बीजेपी प्रायोजित हूंकार रैली की...इस रैली को लेकर गांवों में तो अभी से हीं लोगों ने दिन कांटने शुरू कर दिये हैं.....आने वाली रैली में मौज करने के लिए!
--------------------
- सौरभ के.स्वतंत्र